डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 12
पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण स्रोतग्रंथ ‘डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन ‘ का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की बारहवीं कड़ी – सम्पादक
109.
डा. आंबेडकर अपने मत पर अटल, राजनीतिक कलाबाजियों से प्रभावित नहीं
(दि बाम्बे क्रानिकल, 14 सितम्बर 1932)
डा. आंबेडकर ने कहा- ‘मैं राजनीतिक करतबों की परवाह नहीं करता हूॅं।’
उन्होंने आगे कहा, ‘मि. गाॅंधी की आमरण अनशन की धमकी कोई नैतिक लड़ाई नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक चाल है। मैं अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी से समान शर्तों पर ईमानदारी का श्रेय देकर बातचीत करने की कोशिश कर सकता हूॅं, परन्तु इन तरीकों से मैं कभी नहीं चलूॅंगा।
‘मेरा निर्णय साफ है। यदि मि. गाॅंधी हिन्दू समुदाय के हितों के लिए अपने जीवन की बाजी लगाना चाहते हैं, तो दलित वर्ग भी अपने हितों की सुरक्षा के लिए अपने जीवन की बाजी लगाने के लिए बाध्य होंगे।’
मि. एम.सी.राजा के इस विचार के सन्दर्भ में कि यदि डा. आंबेडकर पृथक निर्वाचन की अपनी माॅंग को छोड़कर सीटों के आरक्षण के साथ संयुक्त निर्वाचन को स्वीकार कर लेते हैं, तो इस स्थिति से बचा जा सकता है, डा.आंबेडकर ने कहा कि वे इसके लिए तैयार नहीं हैं।
110.
मि. गाॅंधी की नीति हिंसा भड़का सकती है, डा. आंबेडकर ने पुनर्विचार करने को कहा
(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 19 सितम्बर 1932)
डा. आंबेडकर ने हिन्दू और दलित वर्गों के नेताओं के सम्मेलन की संध्या पर समाचार पत्रों को निम्नलिखित वक्तव्य जारी किया-
‘मुझे यह शायद ही कहना चाहिए कि मैं मि. गाॅंधी, सर सैमुएल होरे और प्रधानमन्त्री के बीच हुए पत्राचार को पढ़कर चकित हूॅं। जिस अविवेकपूर्ण स्थिति में मि. गाॅंधी के आमरण अनशन ने मुझे रख दिया है,उसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्यों मि. गाॅंधी एक ऐसे मुद्दे पर अपने जीवन को दाॅंव पर लगा रहे हैं, जो उस साम्प्रदयिक प्रश्न से उत्पन्न हुआ है, जिसे उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में बहुत ही तुच्छ महत्व दिया था। मि. गाॅंधी ने साम्प्रदायिक प्रश्न को गलत तरीके से सोचा है,यह वास्तव में भारत के संविधान की किताब का एक परिशिष्ट है, मुख्य अध्याय नहीं। यदि मि. गाॅंधी देश के लिए स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए इस उग्र कदम का सहारा लेते, तो यह उचित माना जाता, जिस पर उन्होंने गोलमेज सम्मेलन की बहसों में जोर दिया था।
‘यह भी एक दुखद आश्चर्य है कि मि. गाॅंधी ने अपने आमरण अनशन के लिए दलित वर्गों के विशेष प्रतिनिधित्व को बहाना बनाया है।
देश से अलगाव
‘दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के परिणाम को लेकर मि. गाॅंधी ने अपना जो डर व्यक्त किया है, वह मेरी दृष्टि में पूरी तरह काल्पनिक है।
‘मैं जानता हूॅं, बहुतों ने यह अनुभव किया है कि यदि कोई वर्ग है, जिसे स्वराज के संविधान में बहुसंख्यकों के अत्याचारों के विरुद्ध राजनीतिक संरक्षण चाहिए, तो वह दलित वर्ग ही है। यह वह वर्ग है, जो निःसन्देह अपने अस्तित्व के संघर्ष में स्वयं को बनाए रखने की स्थिति में नहीं है। जिस धर्म से वे बॅंधे हैं, वह उनको सम्मानजनक स्थान देने के बजाए कुष्ठ रोगियों के रूप में देखता है, जो सामान्य व्यवहार के लिए योग्य नहीं हैं। आर्थिक रूप से यह वर्ग अपनी रोजी-रोटी के लिए पूरी तरह उच्च जातियों के हिन्दुओं पर निर्भर रहता है और उसके लिए जीवित रहने का कोई स्वतन्त्र तरीका नहीं है। न केवल हिन्दुओं के सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण उसके विकास का रास्ता बन्द है, बल्कि जीवन का स्तर बढ़ाने में भी दलित वर्गों को कोई अवसर न मिले, इसके लिए समस्त हिन्दू समाज में हर सम्भावित दरवाजे को बन्द रखने का पक्का प्रयास किया गया है।
‘इन परिस्थितियों में मैं सोचता हूॅं कि दलित वर्गों के एक शुभ चिन्तक को उनके हितों के संरक्षण के लिए पूरी शक्ति से लड़ना चाहिए, और इसके लिए नए संविधान में उनको अधिक से अधिक राजनीतिक ताकत चाहिए। किन्तु मि. गाॅंधी के सोचने के तरीके अजीब हैं, जो मेरी समझ से परे हैं। वे न केवल थोड़े से भी उन राजनीतिक अधिकारों को बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हैं, जो दलित वर्गों को साम्प्रदायिक निर्णय के अन्तर्गत प्राप्त हुए हैं, बल्कि इसके विपरीत जो उन्हें प्राप्त हुए हैं, वे उन्हें उनसे भी वंचित करना चाहते हैं। दलित वर्गों को राजनीतिक जीवन से पूरी तरह से हटाने का यह प्रयास मि. गाॅंधी की ओर से पहली बार नहीं हुआ है।
दावों को झुठलाने के प्रयास
‘अल्पसंख्यक संधि से काफी पहले मि. गाॅंधी ने दलित वर्गों के दावों को खारिज कराने के लिए मुसलमानों से समझौता करने की कोशिश की थी। उन्होंने मुसलमानों के लिए उन सभी 14 दावों की पेशकश की थी, जो वे अपनी ओर से चाहते थे, और बदले में उन्होंने उनसे यह माॅंग की थी कि वे दलित वर्गों की ओर से मेरे द्वारा किए गए विशेष प्रतिनिधित्व के दावों का विरोध करने के लिए उनके साथ आ जाएॅं।
‘मुस्लिम प्रतिनिधियों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने इस तरह की सौदेबाजी के लिए उनका पक्षकार बनने से इन्कार कर दिया और दलित वर्गों को मुसलमानों तथा मि. गाॅंधी के संयुक्त विरोध के परिणामस्वरूप होने वाली आपदा से बचा लिया।
मैं साम्प्रदायिक निर्णय (कम्युनल अवार्ड) के प्रति मि. गाॅंधी के विरोध के आधार को समझने में असमर्थ हूॅं। वे कहते हैं कि साम्प्रदायिक निर्णय ने दलित वर्गों को हिन्दुओं से पृथक कर दिया है। किन्तु दूसरी ओर हिन्दुत्व के नायक और हिन्दू हितों के उग्र समर्थक डा. मुंजे का दृष्टिकोण इस मामले में बिल्कुल अलग है। डा. मुंजे लन्दन से लौटने के बाद से ही अपने भाषणों में लगाातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि साम्प्रदायिक निर्णय दलित वर्गों और हिन्दुओं के बीच कोई अलगाव पैदा नहीं करता है। इसलिए यह आश्चर्यजनक है कि मि. गाॅंधी ने, जो एक राष्ट्रवादी हैं और साम्प्रदायिक प्रचारक के रूप में नहीं जाने जाते हैं, साम्प्रदायिक निर्णय को दलित वर्गों के सम्बन्ध में डा. मुंजे जैसे साम्प्रदायिकतावादी के ठीक विपरीत अर्थ में पढ़ा है।
डा. राजा ने विचार बदला
असेम्बली में डा. राजा के भाषणों से मैं काफी खुश था। पृथक निर्वाचन का वह प्रबल समर्थक और जातिवादी हिन्दुओं की निरंकुशता का कटु तथा उग्र आलोचक अब संयुक्त निर्वाचन में विश्वास करता है और हिन्दुओं का प्रिय हो गया है। मि. राजा की साम्प्रदायिक निर्णय की आलोचना के दो बिन्दु हैं: एक यह कि दलित वर्गों को उनकी आबादी के आधार पर कम सीटें प्राप्त हुई हैं, और दूसरा यह कि दलित वर्ग हिन्दू धर्म से अलग हो जायेंगे। मैं उनके पहले बिन्दु से सहमत हूॅं, परन्तु जब राव बहादुर हम लोगों पर यह आरोप लगाते हैं कि उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में अपने अधिकारों का सौदा करके दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व किया था, तो मेरे लिए यह बताना आवश्यक हो जाता है कि मि. राजा को साम्प्रदायिक निर्णय की आलोचना करने से पहले अपनी स्मृति को ताजा कर लेना चाहिए कि उन्होंने भारतीय केन्द्रीय समिति के सदस्य के रूप में दलित वर्गों की ओर से बिना किसी विरोध के क्या स्वीकार किया था। उनका तर्क यह है कि साम्प्रदायिक निर्णय में दलित वर्गों को सवर्ण हिन्दुओं से अलग कर दिया गया है, यह एक ऐसा विचार है, जिससे मैं सहमत नहीं हो सकता।
मि. गाॅंधी का रवैया
मि. गाॅंधी का रवैया मेरी समझ में नहीं आता कि वे क्या चाहते हैं। यह मानना कि यद्यपि वे पृथक निर्वाचन प़द्धति के विरुद्ध हैं, पर संयुक्त निर्वाचन और आरक्षित सीटों के विरुद्ध नहीं हैं, एक बड़ी गलती है। आज उनके जो भी विचार हैं, परन्तु लन्दन में वे दलित वर्गों के लिए विशेष प्रतिनिधित्व की किसी भी पद्धति के, चाहे वह संयुक्त निर्वाचन की हो या पृथक निर्वाचन की, पूर्णतया विरोधी थे। वयस्क मताधिकार पर आधारित सामान्य निर्वाचन में वोट देने के अधिकार के सिवा, वे विधायिकाओं में दलित वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए किसी भी तरह तैयार नहीं थे। आरम्भ में उनकी यही स्थिति थी। गोलमेज सम्मेलन के अन्त में उन्होंने मुझे जिस योजना का सुझाव दिया था, उस पर वे इस पर विचार करने के लिए तैयार थे। वह योजना पूरी तरह पारम्परिक थी, उसके पीछे संवैधानिक स्वीकृति नहीं थी, और निर्वाचन विधि में दलित वर्गों के लिए एक भी सीट के आरक्षण का नियम नहीं था। वह योजना इस तरह थी-
‘आम चुनावों में दलित वर्ग के प्रत्याशी सवर्ण हिन्दू प्रत्याशियों के विरुद्ध खड़े हो सकते हैं। यदि चुनाव में दलित वर्ग का कोई प्रत्याशी हार जाता है, तो उसे चुनाव याचिका दायर करके यह निर्णय प्राप्त करना होगा कि वह अछूत होने के कारण हारा है। यदि इस तरह का निर्णय उसे मिल जाता है, तो मि. गाॅंधी ने कहा, इससे वह कुछ हिन्दू सदस्यों को इस्तीफा देने और सीट खाली करने के लिए प्रेरित करेगा। इसके बाद उन सीटों पर एक और चुनाव होगा, जिसमें दलित वर्ग का हारा हुआ प्रत्याशी या दलित वर्ग का कोई भी अन्य सदस्य हिन्दू प्रत्याशियों के विरुद्ध दुबारा अपना भाग्य आजमा सकता है। यदि वह फिर से हार जाता है, तो उसे फिर से वही निर्णय प्राप्त करना होगा कि वह अछूत होने के कारण हारा है और इसका कोई अन्त नहीं। मैं इन तथ्यों को इसलिए उजागर कर रहा हूॅं, क्योंकि कुछ लोग अब भी इस दबाव में हैं कि संयुक्त निर्वाचन और आरक्षित सीटों से मि. गाॅंधी सन्तुष्ट होंगे। पर इससे यह साफ होगा कि मैं इस बात पर क्यों जोर देता हूॅं कि जब तक मि. गाॅंधी का असली प्रस्ताव सामने नहीं आता है, इस विषय पर चर्चा करने का कोई लाभ नहीं है।
‘फिर भी मैं बताता हूॅं कि मैं मि. गाॅंधी के इन आश्वासनों को स्वीकार नहीं कर सकता, जिनकी दरकार केवल उन्हें और उनकी काॅंग्रेस को है। मैं अपने लोगों के संरक्षण के इस महत्वपूर्ण प्रश्न को सम्मेलनों पर नहीं छोड़ सकता। मि. गाॅंधी अमर रहने वाले व्यक्ति नहीं हैं और काॅंग्रेस भी, यह मानते हुए कि यह दुर्भावनापूर्ण नहीं है, हमेशा रहने वाली नहीं है।
‘मुझे सुधार की गति का पर्याप्त अनुभव है,और मैं महाद तथा नासिक के संघर्षों में हिन्दू सुधारकों की आस्था को भी देख चुका हूॅं, इसलिए मैं कहता हूॅं कि दलित वर्गों का कोई भी शुभ चिन्तक विश्वासघाती लोगों के कंधों पर दलित वर्गों के उत्थान का काम छोड़ने के लिए राजी नहीं होगा। सुधारक वे होते हैं, जो संकट में अपने सिद्धान्तों का बलिदान कर देते हैं, किन्तु जो सुधारक अपने भाइयों की भावनाओं को चोट पहुॅंचाते हैं, उनसे दलित वर्गों को कोई लाभ नहीं हो सकता है। इसलिए मैं अपने लोगों के संरक्षण के लिए संवैधानिक गारन्टी को चाहता हूॅं। यदि मि. गाॅंधी साम्प्रदायिक निर्णय को बदलवाना चाहते हैं, तो पहले वे अपने प्रस्तावों से साबित करें कि जो गारन्टी हमें साम्प्रदायिक निर्णय में मिली है, उनके पास उससे बेहतर गारन्टी है।
बेहतर कारण के योग्य
मुझे आशा है कि मि. गाॅंधी अपने द्वारा उग्र कदम उठाने से बचेंगे। जब हम पृथक निर्वाचन की माॅंग करते हैं, तो हमारा मतलब हिन्दू समाज को कोई नुकसान पहुॅंचाना नहीं है। यदि हम पृथक निर्वाचन को पसन्द करते हैं, तो ऐसा हम अपने भाग्य को सवर्ण हिन्दुओं की सद्इच्छा पर छोड़ने की निर्भरता को खत्म करने के उद्देश्य से करते हैं। मि. गाॅंधी के समान हम भी गलती के लिए अपने अधिकारों का दावा करते हैं, और उनसे अपेक्षा करते हैं कि वे इस अधिकार से हमें वंचित न करें। उन्होंने आमरण अनशन का निर्णय एक बेहतर उद्देश्य से नहीं किया है। मैं मि. गाॅंधी के इस उग्र कदम के विचार को समझ सकता था, अगर ऐसा कदम उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों अथवा दलित वर्गों और हिन्दुओं के बीच दंगों को रोकने के या किसी अन्य राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए उठाया होता। किन्तु निश्चित रूप उनका यह कदम दलित वर्गों का कोई भला नहीं कर सकता। मि. गाॅंधी जानते हैं या नहीं, उनके अनशन का कोई परिणाम नहीं निकलेगा, पर दलित वर्गों के विरुद्ध उनके समर्थकों का आतंकवाद पूरे देश में फैल जायेगा।यदि दलित वर्गों ने हिन्दू धर्म से बाहर निकलने का निश्चय कर लिया है, तो इस तरह के जबरन दबाव से वे उनको हिन्दू धर्म में लाने में सफल नहीं होंगे। यदि मि. गाॅंधी ने दलित वर्गों के समक्ष हिन्दू धर्म और राजनीतिक सत्ता का अधिकार में से किसी एक को चुनने की माॅंग रखी, तो मुझे पूरा भरोसा है कि दलित वर्ग राजनीतिक सत्ता को चुनेंगे और मि. गाॅंधी को आत्म-बलिदान करने से बचायेंगे। यदि मि. गाॅंधी शान्ति से अपने अनशन के परिणाम पर विचार करेंगे, तो मुझे सन्देह है कि क्या वे इसे जीतने के योग्य पायेंगे।
बेलगाम ताकतें
यह ध्यान में रखना अभी भी काफी महत्वपूर्ण है कि मि. गाॅंधी प्रतिक्रियावादी और बेलगाम ताकतों को मुक्त कर रहे हैं तथा अनशन का सहारा लेकर हिन्दुओं और दलित वर्गों के बीच नफरत की आग भड़का रहे हैं, एवं दोनों के बीच मौजूदा खाई को और ज्यादा चौड़ी कर रहे हैं। जब गोलमेज सम्मेलन में मैंने मि. गाॅंधी का विरोध किया था, तो पूरे देश में मेरे विरुद्ध जहर उगला गया था और तथाकथित राष्ट्रवादी प्रेस ने मेरे पत्राचार को दबाने के लिए तथा उन सभाओं और सम्मेलनों की अतिरंजित खबरें प्रकाशित करके, जिनमें बहुत से हुए ही नहीं थे, मेरी पार्टी के खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिए मुझे राष्ट्र का गद्दार बताने की साजिश शुरु कर दी थी। दलित वर्गों में उपजातियों का विभाजन करने के लिए ‘चाॅंदी की गोलियाॅं’ इस्तेमाल की गई थीं। वहाॅं कुछ हिंसक संघर्ष भी हुए हैं।
‘यदि मि. गाॅंधी चाहते हैं कि ये (हिंसक संघर्ष) बड़े पैमाने पर फिर से न हों, तो, भगवान के वास्ते, अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें और इन विनाशकारी परिणामों को टालें। मुझे विश्वास है, मि. गाॅंधी यह नहीं चाहते हैं। किन्तु यदि वे अपनी इच्छाओं के बावजूद विचलित नहीं होते हैं, तो इन परिणामों का आना उसी तरह निश्चित है, जिस तरह रात के बाद दिन का आना।
‘अपनी बात समाप्त करने से पहले, मैं जनता को आश्वस्त काना चाहता हूॅं कि यद्यपि मैं यह कहने का हकदार हूॅं कि मैं मामले को खत्म कर रहा हूॅं, पर मैं मि. गाॅंधी के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए तैयार हूॅं। हालाॅंकि मुझे भरोसा है कि मि. गाॅंधी अपने जीवन और मेरे लोगों के अधिकारों के बीच विकल्प चुनने के लिए मुझे बाध्य नहीं करेंगे। क्योंकि मैं कभी भी हिन्दुओं के हित के लिए भावी पीढ़ियों तक अपने लोगों के हाथ-पैर बाॅंधने के लिए राजी नहीं हो सकता।’
111.
मुझे और मेरी पार्टी को चुनौती
‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ के सम्पादक को डा. आंबेडकर का पत्र
(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 19 सितम्बर 1932)़
महोदय,
मैं आज आपके अखबार में यह खबर पढ़कर आश्चर्यचकित हूॅं कि नगर के विभिन्न भागों में ‘इमरजेंसी कमेटी’ के तत्वावधान में कुछ आठ जनसभाएॅं हुई हैं, जिनमें ब्रिटिश सरकार को साम्प्रदायिक निर्णय में दलित वर्गों से सम्बन्धित अपनी नीति को बदलने के लिए बाध्य करने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पास किया गया है। स्पष्ट रूप से इस प्रस्ताव का उद्देश्य दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के लिए प्रधानमन्त्री के निर्णय में किए गए विशेष प्राविधानों के विरुद्ध जनता की राय जुटाना है।
जब से महात्मा गाॅंधी ने इस प्रश्न को लेकर आमरण अनशन करने की घोषणा की है, उसी समय से कुछ प्रमुख हिन्दू नेताओं और मेरे बीच बातचीत चल रही है। कल शाम मुझे इमरजेंसी कमेटी की सभा में भाग लेने का निमन्त्रण मिला था, जिसमें मैं शामिल हुआ था। उस दौरान, जब मैं वहाॅं मौजूद था, ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं आया था और न उस सभा में ऐसा कोई प्रस्ताव पास किया गया था। यदि कल शाम की सभा में ऐसा कोई प्रस्ताव मेरे संज्ञान में आता, तो मैं निश्चित रूप से न सिर्फ प्रस्ताव की भाषा का विरोध करता, बल्कि इस आधार पर कि बातचीत जारी है और परिणाम लम्वित है, अन्य जनसभाएॅं करने के विचार का भी विरोध करता। वास्तव में, यह तय हो चुका था कि किसी किस्म का कोई प्रचार किसी भी पार्टी के द्वारा नहीं किया जाना थां। इसी विचार ने मुझे अपनी पार्टी के तमाम सदस्यों के दबाव के बावजूद साम्प्रदायिक निर्णय के पक्ष में कोई सभा करने या प्रचार शुरु करने से रोका था।
इमरजेंसी कमटी ने जिन जनसभाओं का आयोजन करने का विचार किया है और जो प्रस्ताव पेश किया है, वह मुझे और मेरी पार्टी को उकसाने वाली चुनौती है। जो लोग मेरे साथ बातचीत चला रहे हैं, वे मेरे विरुद्ध अपना प्रचार नहीं चला सकते, जबकि इसी समय बातचीत के परिणामस्वरूप एक सौहार्दपूर्ण समाधान निकलने की आशा है। अब वे या तो बातचीत कर लें या सीधे लड़ाई कर लें। दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकतीं। अगर दूसरा पक्ष अपना विरोध जारी रखने के अपने अधिकार पर टिका रहता है, तब अगर मेरी पार्टी ने उनके विरुद्ध प्रचार करने का फैसला ले लिया, तो फिर उन्हें मुझ पर दोष लगाने का कोई अधिकार नहीं होगा।
बी. आर. आंबेडकर,
बम्बई, 18 सितम्बर।
112.
बातचीत करो या सीधे लड़ाई लड़ो
‘दि बाम्बे क्राॅनिकल’ को डा. आंबेडकर का पत्र
(दि बाम्बे क्रानिकल, 19 सितम्बर 1932)़
महोदय,
मैं आज आपके अखबार में यह खबर पढ़कर आश्चर्यचकित हूॅं कि नगर के विभिन्न भागों में ‘इमरजेंसी कमेटी’ के तत्वावधान में कुछ आठ जनसभाएॅं हुई हैं, जिनमें ब्रिटिश सरकार को साम्प्रदायिक निर्णय में दलित वर्गों से सम्बन्धित अपनी नीति को बदलने के लिए बाध्य करने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पास किया गया है। स्पष्ट रूप से इस प्रस्ताव का उद्देश्य दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के लिए प्रधानमन्त्री के निर्णय में किए गए विशेष प्राविधानों के विरुद्ध जनता की राय जुटाना है।
जब से महात्मा गाॅंधी ने इस प्रश्न को लेकर आमरण अनशन करने की घोषणा की है, उसी समय से कुछ प्रमुख हिन्दू नेताओं और मेरे बीच बातचीत चल रही है। कल शाम मुझे इमरजेंसी कमेटी की सभा में भाग लेने का निमन्त्रण मिला था, जिसमें मैं शामिल हुआ था। उस दौरान, जब मैं वहाॅं मौजूद था, ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं आया था और न उस सभा में ऐसा कोई प्रस्ताव पास किया गया था। यदि कल शाम की सभा में ऐसा कोई प्रस्ताव मेरे संज्ञान में आता, तो मैं निश्चित रूप से न सिर्फ प्रस्ताव की भाषा का विरोध करता, बल्कि इस आधार पर कि बातचीत जारी है और परिणाम लम्वित है, अन्य जनसभाएॅं करने के विचार का भी विरोध करता। वास्तव में, यह तय हो चुका था कि किसी किस्म का कोई प्रचार किसी भी पार्टी के द्वारा नहीं किया जाना थां। इसी विचार ने मुझे अपनी पार्टी के तमाम सदस्यों के दबाव के बावजूद साम्प्रदायिक निर्णय के पक्ष में कोई सभा करने या प्रचार शुरु करने से रोका था।
इमरजेंसी कमटी ने जिन जनसभाओं का आयोजन करने का विचार किया है और जो प्रस्ताव पेश किया है, वह मुझे और मेरी पार्टी को उकसाने वाली चुनौती है। जो लोग मेरे साथ बातचीत चला रहे हैं, वे मेरे विरुद्ध अपना प्रचार नहीं चला सकते, जबकि इसी समय बातचीत के परिणामस्वरूप एक सौहार्दपूर्ण समाधान निकलने की आशा है। अब वे या तो बातचीत कर लें या सीधे लड़ाई कर लें। दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकतीं। अगर दूसरा पक्ष अपना विरोध जारी रखने के अपने अधिकार पर टिका रहता है, तब अगर मेरी पार्टी ने उनके विरुद्ध प्रचार करने का फैसला ले लिया, तो फिर उन्हें मुझ पर दोष लगाने का कोई अधिकार नहीं होगा।
आपका,
बी. आर. आंबेडकर,
दामोदर हाल, परेल, 18 सितम्बर।
113.
मि. राजा से कोई मतलब नहीं
डा. आंबेडकर का वक्तव्य
(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 22 सितम्बर 1932)़
डा. आंबेडकर ने बुधवार को, पूना प्रस्थान करने से पूर्व, ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ के साथ एक साक्षात्कार में कहा, ‘मुझे पूना से निमन्त्रण मिला है कि मि. गाॅंधी उस प्रस्ताव के सम्बन्ध में, जो मैंने कल रात सम्मेलन द्वारा नियुक्त समिति को प्रस्तुत किया था, मुझसे और मि. राजा से मिलना चाहते हैं।’
डा. आंबेडकर ने कहा, ‘मैंने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया है, लेकिन मैंने यह मैंने स्पष्ट कर दिया है कि इस बातचीत में मित्र राजा और उनकी पार्टी से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं होगा और यदि मि. गाॅंधी उनसे बातचीत करने की इच्छा रखते हैं, तो वे उनसे अलग से बात कर सकते हैं। मेरे यह कहने का कारण यह है कि विवाद वास्तव में मेरे और मेरी पार्टी तथा मि. गाॅंधी के बीच में है।’
‘इसके अतिरिक्त, मैं काॅंग्रेस और हिन्दू महासभा की उस नीति का घोर विरोध करता हूॅं और उसे अस्वीकार करता हूॅं, जिसके तहत वे अपने उद्देश्य और अपने प्रचार के लिए दलित वर्ग में नेता पैदा करके उनको दलित वर्गों पर थोप देते हैं। इसमें मि. राजा के खिलाफ व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। मैं रात में ही प्रस्थान कर रहा हूॅं।’
अन्य भी यरवदा
सर तेज बहादुर सप्रू और मि. जयकर भी ट्रेन से पूना पहॅंचे। उन्होंने बुधवार को यरवदा जेल में सुबह साढ़े सात बजे मि. गाॅंधी से भेंट की और दस बजे तक उनसे मन्त्रणा करते रहे। बाहर निकलकर उन्होंने कहा कि उनसे कल सुबह पुनः मिलने की आशा है।
मि. गाॅंधी से मिलने के बाद उन्होंने यह वक्तव्य जारी किया-
‘सर तेज बहादुर सप्रू, मि. जयकर, मि. राजगोपालाचारी, बाबू राजेन्द्र प्रसाद और मि. जी. डी. बिरला के शिष्ट मण्डल ने आज सुबह मि. गाॅंधी से लम्बा विचार-विमर्श किया। उन्होंने उनको अपनी उस योजना से अवगत कराया, जो कल के परामर्श के बाद बनाई गई थी। बातचीत आशापूर्ण थी, परन्तु मि. गाॅंधी ने अपनी अन्तिम राय को तब तक के लिए सुरक्षित रखा है, जब तक कि वे इस विषय पर अन्य मित्रों डा. आंबेडकर और मि. राजा से चर्चा नहीं कर लेते हैं।’
इसलिए यह शिष्ट मण्डल अगले दिन भी पूना में ठहरेगा। सर टी. बी. सप्रू को, जिनके साथ यह योजना बनी थी, पूर्ण आशा है कि योजना मि. गाॅंधी को स्वीकार होगी और इस तरह समस्या का समाधान मिल जायेगा। शिष्ट मण्डल ने बताया कि मि. गाॅंधी पूरी तरह स्वस्थ और प्रसन्न हैं।
114.
बड़ा शिखर पार, पर एक पहाड़ी अभी बाकी
सीटें दुगुनी हुईं, जनमत संग्रह दस वर्ष बाद?
डा. आंबेडकर ने कहा, ‘गाॅंधी मेरे साथ हैं’
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 24 सितम्बर 1932)
पूना, 23 सितम्बर।
शुक्रवार की मध्य रात्रि स्थिति पहले से और ठीक होने की उम्मीद
रात्रि साढ़े नौ बजे मि. गाॅंधी से मिलकर आने वाले नेताओं में थकान थी, परन्तु चेहरों पर प्रसन्नता थी। डा. आंबेडकर को यह कहते हुए सुना गया, ‘गाॅंधी मेरे साथ हैं।’
सभी नेता शनिवार की सुबह आठ बजे पुनः बातचीत के लिए एकत्र हुए हैं। उसके बाद वे शीघ्र ही गाॅंधी जी से मिलेंगे। अभी की यह राय है कि समझौता पूरा होने के करीब पहुॅंच गया है। और अगर चमत्कारिक रूप से कोई दुर्भाग्य बाधा नहीं डालता है, तो शनिवार की दोपहर तक एक निश्चित समाधान की खुशखबरी मिल सकती है।
बडे़ मतभेद लगभग खत्म हो गए हैं और दलित वर्गों के जनमत संग्रह के सवाल पर सैद्धान्तिक मतभेद आने वाली किसी तारीख पर कम कर लिया जायेगा। यह सम्भावना है कि जनमत संग्रह के लिए दस वर्ष की अवधि पर सहमति बन सकती है।
जिन बिन्दुओं पर सहमति बनी है, वे निम्नप्रकार हैं-
चुनाव के लिए प्रत्येक सीट पर चार लोगों का एक पैनल, एक वोट दलित वर्गों के लिए समस्त प्रान्तीय परिषदों में साम्प्रदायिक निर्णय में दी गई 71 सीटों के विरुद्ध 150 से 155 तक सीटें आरक्षित हो सकती हैं।
समय के खिलाफ दौड़
बहुत सवेरे पंडित मालवीय के निवास पर हुई बैठक में लगाातार 13 घण्टों तक बिना रुके बातचीत हुई थी, जो रात साढ़े नौ बजे खत्म हुई थी। इसके बाद पंडित मालवीय, सी. राजगोपालाचारी, मि. जयकर, डा. सप्रू, डा. आंबेडकर और अन्य नेता शीघ्र ही यरवदा जेल के लिए रवाना हो गए।
इस सभा को देखने के लिए पंडित मालवीय के निवास पर लोगों की भीड़ जमा थी। साढ़े नौ बजे उठने के बाद भी नेताओं को उस रात में समाधान की कोई उम्मीद नहीं थी।
नेता समय के विरुद्ध दौड़ रहे हैं, और उनका दोपहर तथा रात का खाना भी चर्चा के साथ-साथ चल रहा है।
हालाॅंकि वे पहले गम्भीर और परेशान दिखते थे, पर शाम को दीवालों के पीछे से हॅंसी के ठहाके सुनाई देने लगे थे।
सवर्ण हिन्दुओं और दलित वर्ग के नेताओं का यह सम्मेलन सुबह नौ बजे मालवीय जी के निवास पर बन्द कमरे में हुआ था। समझा जाता है कि इस सम्मेलन में ज्यादा मुद्दों पर बातचीत हुई है और निर्वाचन के लिए पैनल के सवाल पर समाधान हो गया है, जिसके तहत संयुक्त प्रान्तों को छोड़कर, प्रतिनिधित्व का आधार क्या होगा, पैनल के विषय पर अभी भी चुप्पी बनी हुई है।
पैनल के सम्बन्ध में, कहा जाता है कि चार का पैनल तय हो गया है, जबकि डा. आंबेडकर की माॅंग दो की थी, और गाॅंधी जी का सुझाव पाॅंच का था।
देर शाम प्रेस के लोगों द्वारा सवाल पूछे जाने पर डा. सप्रू ने कहा, ‘अब तक की चर्चाएॅं सन्तोषजनक हैं, और हमारा विचार रात में भी बैठकर चर्चा करने का है।’
सम्मेलन के बाद डा. आंबेडकर ने बताया-
‘स्थिति आशाजनक है। गम्भीर किस्म के मतभेद कम हैं, और वहाॅं भी सहमति की सम्भावनाएॅ। हैं। उपवास की वजह से गाॅंधी जी कमजारी महसूस कर रहे हैं, पर इसके बावजूद उन्होंने हमसे 15 मिनट से ज्यादा बात की।’
पिछली कड़ियाँ –
कँवल भारती : महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्पणियों के लिए विख्यात। कई पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।