ईडी पर नियंत्रण के सरकार के अधिकार कम हुए, पर देखिये अख़बार क्या बता रहे हैं

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


सरकार ने ईडी निदेशक को अवैध और गैरकानूनी सेवा विस्तार देकर काम करवाया,

सुप्रीम कोर्ट में मुंह की खाने के बाद कह दिया कि इससे ईडी के अधिकार कम नहीं होंगे

 

आज के अखबारों की प्रमुख खबरों में एक है, ईडी प्रमुख संजय कुमार मिश्रा को सुप्रीम कोर्ट से सेवा विस्तार न मिलना। इसमें खास बात यह है कि सरकार एक रिटायर अधिकारी से ही काम करवाना चाहती थी और इसके लिए उन्हें सेवा विस्तार दिये जो सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेशों के खिलाफ है। सरकार के अपने तर्क हैं और उसी अधिकारी के उपयोग की जरूरत। सुप्रीम कोर्ट ने इसे नहीं माना। इसका मतलब यही हुआ कि सरकार गलत या गैरकानूनी ढंग से काम करने को तैयार थी। सुप्रीम कोर्ट ने यही कहा है। यह कितना महत्वपूर्ण है उसकी चर्चा किये बिना मैं यह बताना चाहता हूं कि अखबार इसे कैसे पेश कर रहे हैं। 

उदाहरण इंडियन एक्सप्रेस की खबर है। इसके उपशीर्षक के अनुसार केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि जो खुश हो रहे हैं वो भ्रम में हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ ईडी के अधिकार कायम हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें खुश होने की बात को महत्व दिया गया है और ईडी के अधिकार की बात हो रही है जबकि यह मुद्दा ही नहीं था। वैसे भी, ईडी के अधिकार तो वही रहेंगे जो हैं। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा ही है तो सरकार ईडी को सेवा विस्तार पर विस्तार क्यों दे रही थी और क्यों उसी अधिकारी को सेवा विस्तार दिये जा रही थी जो सरकार के लिए डिटरजेन्ट की तरह काम  कर रहा था। स्पष्ट है कि मुद्दा कुछ और था तथा कुछ और बनाने की कोशिश की जा रही है। बेशक, यह भी खबर है और इंडियन एक्सप्रेस ने इसे महत्व दिया है उसे नहीं, जो सरकार छिपा रही है या छिपाना चाहती है।    

एक्सप्रेस ने अपने कॉलम, एक्सप्लेन्ड में बताया है कि  इस मामले में मुख्य मुद्दा सुप्रीम कोर्ट का आदेश ही था। ईडी के अधिकार या कार्य मुद्दा था ही नहीं। अमित शाह निश्चित रूप से राजनीति कर रहे हैं और उनका बयान जो क ट्वीट है, खबर से हो सकने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए दिया गया है जो प्रचारकों के लिए हेडलाइन मैनेजमेंट के प्रयास में काम आयेगा। मेरे अखबारों में एक, द हिन्दू ने अमित शाह के लीपापोती वाले बयान को प्रमुखता नहीं दी है और मुख्य खबर का शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने ईडी प्रमुख से पद छोड़ने के लिए कहा लेकिन संशोधनों को कायम रखा। उपशीर्षक है, पीठ ने कहा मिश्रा को 2021 और 2022 में लगातार दो बार दिये गये सेवा विस्तार अवैध और गैर कानूनी हैं हालांकि उसने इन्हें पद छोड़ने के लिये 31 जुलाई तक का समय दिया है जिससे सहज पारगमन सुनिश्चित हो सके। 

अखबार ने न्यायामूर्ति बीआर गवई के हवाले से एक टिप्पणी हाइलाइट की है, सरकार सेवा विस्तार तभी दे सकती है जब नियुक्ति की सिफारिश के लिये गठित समिति जनहित में उनकी सेवा विस्तार की सिफारिश करे और इसके कारण भी लिखित में दर्ज करे। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को अपने पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर लीड बनाया है और खबर के साथ हाईलाइट अंशों में वह भी है जो इंडियन एक्सप्रेस में है। लगभग उसी शीर्षक के साथ। 

मूल खबर का शीर्षक है, ईडी प्रमुख के सेवा विस्तार अवैध, पर वे 31 जुलाई तक रह सकते हैं : सुप्रीम कोर्ट। इसके साथ दी गई क्रोनोलॉजी का शीर्षक है, कार्यकाल 18 नवंबर को समाप्त होना था।    

द टेलीग्राफ के शीर्षक में भी अमित शाह का बयान नहीं है। यहां यह खबर दो कॉलम में टॉप पर है शीर्षक है, “सुप्रीम कोर्ट ने ईडी प्रमुख के विस्तार को अवैध कहकर खारिज किया”। द टेलीग्राफ ने अपने संवाददाता आर बालाजी की बाईलाइन से खबर छापी है और इसमें पीटीआई ने जोड़ा के तहत बताया है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इस खबर से निपटने के लिए ट्वीट के जरिये क्या कहा है। अखबार ने पहले पन्ने पर भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह की खबर भी छापी है। इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर ब्रज भूषण सिंह को सुरक्षा देने का कांग्रेस का आरोप है। इसके साथ एक तस्वीर है जिसके कैप्शन में बताया गया है कि पहलवानों ने सिंह के खिलाफ काले पट्टे बांधे।   

नवोदय टाइम्स की खबर के साथ भी ऐसा ही है। यहां मूल खबर के साथ एक अलग खबर का शीर्षक है, “परिवारवादियों के भ्रष्टाचार पर कार्रवाई जारी रहेगी: शाह“। आप जानते हैं कि ईडी का उपयोग विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई के लिए किया जाता रहा है जबकि भाजपा को वाशिंग मशीन पार्टी कहा जाने लगा है। होता यह रहा है कि विपक्ष के नेताओं को धमकाने, डराने और जरूरत पड़ने पर ईडी की कार्रवाई हुई है और जो भाजपा के समर्थन में चले गए उन्हें छोड़ दिया जाता रहा है। जाहिर है, भाजपा राज में संघ परिवार तो छोड़िये धमकाकर समर्थन में आ जाने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं हुई है। संघ परिवार के लोगों को संरक्षण साफ दिख रहा है लेकिन परिवार वादियों के खिलाफ कार्रवाई का दावा व प्रचार किया जा रहा है जबकि उन मामलों की भी कहानी है। 

कुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट के कल के आदेश से आज अखबारों में भाजपा के इस खेल को खुलना चाहिये था पर अखबारों ने पहले पन्ने पर तो ऐसा नहीं ही किया है, अमित शाह के बयान से उसे छिपाने की कोशिश की गई है और पार्टी इसमें कामयाब नजर आ रही है। इसीलिये सुप्रीम कोर्ट में हारने के बाद अमित शाह ने कहा है और नवोदय टाइम्स ने छापा है, “यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ईडी का निदेशक कौन है, क्योंकि जो भी इस पर होगा वह विकास विरोधी मानसिकता रखने वाले परिवारवादियों के बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार पर नजर रखेगा”। कहने की जरूरत नहीं है कि चारा घोटाले में लालू यादव को सजा जरूर हुई पर वह मामला पुराना है और लालू यादव के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उनकी पार्टी के समर्थन के मुद्दे पर केंद्र सरकार नीतिश कुमार को समर्थन बदलने के लिए मजबूर कर चुकी है। 

नीतिश कुमार कभी इधर, कभी उधर होते रहे हैं और भ्रष्टाचार के खिलाफ केंद्र सरकार की कार्रवाई चल भी रही है। इस चल का मतलब समझना मुश्किल नहीं है और यह ईडी के पसंदीदा निदेशक से ही संभव होगा और ईमानदारी से काम करने वाला ईडी निदेशक दल या समर्थन बदलने के बाद भी कार्रवाई जारी रखेगा तो भाजपा का खेल इतना खुलेआम नहीं चल पाता। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का मतलब है लेकिन मीडिया वही बताता है जो सरकार चाहती है और इस मामले में आप देख ही रहे हैं। महाराष्ट्र में सरकार बनाने, गिराने और भ्रष्टाचारियों को धमकाने, जेल भेजने और संरक्षण के उदाहरण स्पष्ट हैं।   

अमर उजाला में इस खबर का शीर्षक है, “ईडी निदेशक का कार्यकाल तीसरी बार बढ़ाना गैरकानूनी: सुप्रीम कोर्ट“। लेकिन यहां अमित शाह वाली छोटी सी खबर को दो कॉलम में फैला दिया गया है, फोटो के साथ। कायदे से, फैसले पर उनका पक्ष मांगा जाना चाहिए था कि सरकार गैर कानूनी काम क्यों कर रही थी या करना चाहती थी। जाहिर है, उनके पास तर्क हैं और सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना है। इसलिए अखबार ने सरकार का पक्ष बताने की बजाय सरकार की राजनीति को महत्व दिया है। वैसे भी, इस सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत कौन करे। 

कल ट्वीटर पर एक महिला पत्रकार से भाजपा सांसद ब्रज भूषण शरण सिंह की बदतमीजी का वीडियो वायरल था। आज उसकी खबर या सांसद महोदय से संबंधित मामला पहले पन्ने पर तो नहीं ही है। इस मामले में इंडियन एक्सप्रेस अपवाद है और वहां सांसद के खिलाफ महिला पहलवानों की शिकायत से संबंधित एक्सक्लूसिव खबर है पर इस महत्वपूर्ण मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत कौन करे? हालांकि वह अलग मुद्दा है और यह कॉलम इसी  लिए है। 

हिन्दुस्तान टाइम्स में मूल खबर चार कॉलम में है और अमित शाह का बयान तीन कॉलम में सरकार के पक्ष की तरह फैला दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अमित शाह के यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि, “ईडी का प्रमुख कौन है यह महत्वपूर्ण नहीं है उसका काम है“। अगर ऐसा ही था तो सेवा विस्तार की जरूरत ही नहीं थी, नियम विरूध काम करने की क्या जरूरत थी और जब मामला अदालत में गया तो सरकारी कार्रवाई का बचाव करने की क्या जरूरत थी। सरकार का मकसद और उसका हाल सबको पता है पर अखबार बता नहीं रहे हैं और अमित शाह अपने बेमतलब बयान से सरकार का बचाव कर रहे हैं। 

एक स्पष्ट मामले में सरकार का इस तरह बचाव करने के अलावा अखबार सरकार के खिलाफ खबरें नहीं छापकर उसकी सेवा कर रहे हैं। जीएसटी का मामला आप जानते हैं। इस संबंध में आज द टेलीग्राफ में एक खबर है, जीएसटी डेटा को `पीएमएलए से लिंक करने का आदेश, टैक्स आतंकवाद की शिकायत। असल में, सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) नेटवर्क को धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के दायरे में लाने का आदेश जारी किया है। मंगलवार को जीएसटी परिषद की बैठक में कई राज्य सरकारों ने इसका विरोध किया। इसके तहत देश में रहने वाले करदाताओं के एक समूह को पहली बार किसी कठोर प्रावधान के तहत कवर किया गया है। 

खबर के अनुसार केंद्र सरकार ने 7 जुलाई को, चुपचाप एक अधिसूचना जारी की जिसके तहत जीएसटी अधिकारियों को प्रवर्तन निदेशालय और वित्तीय खुफिया इकाई (एफआईयू) के साथ जानकारी साझा करने के लिए बाध्य किया गया है। ये दो संघीय जांचकर्ता हैं जो मनी लॉन्ड्रिंग मामलों पर मुकदमा चलाते हैं। जीएसटीएन अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था की प्रौद्योगिकी रीढ़ को संभालता है और कर रिटर्न सहित जीएसटी से संबंधित सभी सूचनाओं का भंडार है। अधिसूचना जारी करने का स्पष्ट कारण यह संदेह है कि बड़ी संख्या में जीएसटी करदाता नकली चालान का उपयोग कर रहे हैं और अनुचित इनपुट टैक्स क्रेडिट का दावा करके खुद को समृद्ध कर रहे हैं। हालाँकि, विपक्ष-शासित राज्यों को संदेह है कि यह करदाताओं को परेशान करने का एक भयावह प्रयास है। जो भी हो, खबर तो खबर है, दूसरे कई अखबारों में इसी प्रमुखता से क्यों नहीं है। वह भी तब जब सांप्रदायिकता भड़काने वाली खबरों को आवश्यक प्रचार और छिपाने में मदद मिलती है।  

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।