आज भी अखबारों की मुख्य खबर कर्नाटक के मुख्यमंत्री के चयन से संबंधित है
आज भी अखबारों की मुख्य खबर कर्नाटक के मुख्यमंत्री के चयन से संबंधित है। हालांकि सारी खबरें अटकल हैं, किसी को खबर नहीं माना जा सकता है लेकिन इनके जरिये यह जताने की कोशिश की जा रही है कि आंतरिक उठा-पटक ज्यादा होने के कारण किसी एक का चयन करने में मुश्किल हो रही है। दूसरी ओर, अडानी मामले में कोई खबर नहीं है। संसद में झूठ बोलने और फिर सुप्रीम कोर्ट मे झूठ बोलना स्वीकार करने की स्थिति अपने आप में अनूठी है। झूठ बोलना गलत है सो अलग पर वह सब खबर नहीं है। अखबारों की इस चिन्ता और परेशानी के जवाब में सोशल मीडिया पर बताया जा चुका है कि भाजपा ने 2021 में असम के मुख्यमंत्री की घोषणा 18 दिन में की थी और 2017 में यूपी के मुख्यमंत्री की घोषणा करने में एक सप्ताह लगाया था।
आइए, आज के अखबारों की लीड का शीर्षक देख लें
1.हिन्दुस्तान टाइम्स- कर्नाटक का ससपेंस बना हुआ है क्योंकि सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार ने दावा किया
2.इंडियन एक्सप्रेस- राहुल और खड़गे मिले पर सहमति नहीं हुई, मुख्यमंत्री को लेकर गतिरोध बना हुआ है
3.टाइम्स ऑफ इंडिया- सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार के लिए कार्यकाल के बंटवारे पर विचार, निर्णय आज? इंट्रो है, शिवकुमार को अंतिम तीन वर्षों की पेशकश : सूत्र
4. शिवकुमार ने अपने दावे पर जोर दिया; वार्ता का निष्कर्ष नहीं निकला उपशीर्षक में बताया गया है कि मुख्यमंत्री का चुनाव करने के लिए बैठकों का एक और दौर आज अपेक्षित है।
कहने की जरूरत नहीं है कि ये खबरें नहीं छपतीं तो भी पाठक यही समझता और यही सब अनुमान लगाता तथा इनमें खबर कोई नहीं है। लगभग सब अटकल है और ऐसी खबरों में सूत्र की खबर कितनी भरोसेमंद हो सकती है यह आप समझ सकते हैं। जैसा पहले कहा गया है कि ऐसी खबर रोज-रोज, सभी अखबारों में छाप-छपवा कर जनता को यह संकेत देने की कोशिश की जा रही है कि पार्टी में जबरदस्त खींच-तान आदि है जबकि लोकतांत्रिक तरीके से चयन में समय लगेगा ही और लोकतांत्रिक तरीका ही सर्वश्रेष्ठ है। और विधायक दल अपना नेता चुनता है जो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को यह अधिकार दे चुका है और इस आशय की खबर सबने तो नहीं छापी पर छप चुकी है।
यहां यह बताना दिलचस्प होगा कि 2014 में प्रधानमंत्री का ‘चयन’ पहले हो चुका था और बाद में चुने गए सांसदों ने इस नाम पर ठप्पा भर लगाया गया था और यह दिखाने बताने की कोशिश की गई थी कि प्रधानमंत्री जिसे चाहेंगे (उम्मीदवार बना देंगे) वह चुनाव जीत जाएगा और प्रधानमंत्री की इसी लोकप्रियता का कमाल था कि भाजपा को इतनी सीटें मिलीं। ऐसे जीतकर आए लोगों को बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चुनाव करना ही था। 2019 में भी लगभग यही हुआ और यह प्रचारित किया जाता रहा। दूसरी ओर, पूरी कोशिश की गई कि कांग्रेस राहुल गांधी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दे और उसका मजाक बनाया जाए। राहुल गांधी का मजाक बनाने के उदाहरण हैं ही। पर वह सब अलग मामला है।
अभी तथ्य यही है कि नरेन्द्र मोदी, पूरी भाजपा या कहिये संघ परिवार एक सांसद के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रहा है (या कर पा रहा है)। शुरू में आरोप नहीं मानने, यकीन नहीं करने आदि जैसी दलीलें चल गईं पर अब तो पार्टी को अपनी छवि बचाने के लिए कार्रवाई करनी चाहिए औऱ कई अन्य मौकों पर भी करना चाहिए था। पर नहीं किया गया और सांसदों की अपनी शक्ति का पता चलता रहा है लेकिन प्रचार यही किया जाता रहा है जैसे नरेन्द्र मोदी सर्वशक्तिमान हैं जबकि उनका विकल्प उनकी अपनी पार्टी में भी नहीं है। कर्नाटक की हार के बाद, 2024 में स्थिति खराब होने की रिपोर्ट पर पार्टी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बदलकर स्थिति को काफी हद तक अपने पक्ष में कर सकती थी लेकिन वो स्थिति है ही नहीं। ऐसे में कांग्रेस या प्रमुख विपक्षी को कमजोर दिखाना मजबूरी है और यही होता दिख रहा है।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री के चयन की बात है, प्रशांत टंडन ने आज यह कहानी ट्वीट की है। सुना या पढ़ा तो आपने भी होगा लेकिन फिर से याद करने के लिए पढ़ लीजिये। जब बीजेपी को 7 दिन लगे थे यूपी का मुख्यमंत्री तय करने में: 11 मार्च 2017 को नतीजे घोषित हुये और बीजेपी को बहुमत मिल गया। अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य थे और मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कैंडीडेट थे मनोज सिन्हा। उन्हें कह भी दिया गया। मनोज सिन्हा काशी विश्वनाथ के दर्शन करके धूमधाम से 17 मार्च को लखनऊ की तैयारी कर रहे थे। योगी आदित्यनाथ सीन में थे ही नहीं और नतीजों के बाद गोरखपुर चले गये। उस समय की विदेश मंत्री, सुषमा स्वराज के साथ उन्हे विदेश यात्रा पर जाना था। 18 मार्च की सुबह ‘सांस्कृतिक संगठन’ आरएसएस के भैया जी जोशी का फोन जाता है तब के बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के पास इसमें योगी को मुख्यमंत्री बनाने की मंशा जाहिर की जाती है। अमित शाह और मोदी तय करते हैं कि मनोज सिन्हा की कुर्बानी दी जाये और योगी को दिल्ली बुलाया जाय। दिल्ली से गोरखपुर एक चार्टर विमान भेजा जाता है। योगी की मोदी और अमित शाह से मुलाकात होती है और 18 की ही शाम लखनऊ में वे शपथ लेते हैं।
इस पूरी खींचतान में 7 दिन का समय लगता है। इसके अलावा महाराष्ट्र-बिहार की कहानी कौन नहीं जानता है जहां सुबह शपथ शाम में इस्तीफा और सुबह इस्तीफा, शाम में शपथ जैसे मामले हो चके हैं। इससे पहले गुरदीप सिंह सप्पल ने (कल) लिखा था, कर्नाटक में मुख्यमंत्री के चयन को लेकर मीडिया में हो रही बेचैनी हैरान करने वाली है। रिजल्ट महज तीन दिन पहले घोषित हुए हैं। इसके बाद पार्टी को एक प्रक्रिया का पालन करना ही होता है। 13 तारीख को नतीजे आये थे। 14 तारीख़ को एआईसीसी के पर्यवेक्षकों ने नवनिर्वाचित विधायकों की बैठक ली। 15 तारीख की सुबह तक एक-एक करके उनसे बात की, ये प्रक्रिया पूरी रात चली। 15 तारीख़ को ही पर्यवेक्षक दिल्ली पहुँचे और शाम को कांग्रेस अध्यक्ष को अपनी रिपोर्ट सौंपी। आज कांग्रेस अध्यक्ष सीनियर नेताओं से विचार-विमर्श करेंगे। बताइए, क्या यह देरी हो रही है या बिजली की गति से प्रक्रिया का पालन किया जा रहा है?
इन सबसे अलग, मुख्यमंत्री के चयन को लेकर द टेलीग्राफ की आज की खबर इस प्रकार है, कर्नाटक में जो तय हुआ उसपर आज सीएलपी बैठक की मुहर का इंतजार। नई दिल्ली डेटलाइन से संजय के. झा की खबर इस प्रकार है : ऐसा लगता है कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने दिन भर विचार-विमर्श के बाद कर्नाटक के लिए समझौता तय कर लिया है। दोनों पीसी सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार ने पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से मुलाकात की और फॉर्मूले पर अपनी सहमति दी है। हालाँकि घोषणा को तब तक के लिए टाल दिया गया है जब तक कि कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) बुधवार को औपचारिक रूप से अपने नेता का चुनाव करने के लिए फिर से बैठक नहीं करता। सूत्रों ने संकेत दिया है कि परामर्श प्रक्रिया समाप्त हो गई है और मुद्दों को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल कर लिया गया है। सिद्धारमैया के बारे में ठोस संकेत है कि शिवकुमार उनके डिप्टी के रूप में सरकार का नेतृत्व करेंगे, लेकिन कोई भी निर्णय की पुष्टि करने को तैयार नहीं है।
वार्ता में शामिल एक शीर्ष पदाधिकारी ने मंगलवार शाम को कहा, “जब (नरेंद्र) मोदी अपने मुख्यमंत्री (उत्तराखंड में) का चयन करने के लिए नौ दिन लेते हैं तो कोई भी सवाल नहीं उठाता है और हमें तीन दिन भी नहीं दिए जाते हैं। खड़गे जी को पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट कल रात ही मिली। आज, उन्होंने परामर्श पूरा किया। हमें उम्मीद है कि फैसला कल आएगा। इसमें देरी कहाँ है और दरार की झूठी कहानियाँ गढ़ने का क्या मतलब है?” कहने की जरूरत नहीं है कि अखबारों को जितनी चिन्ता कर्नाटक के मुख्यमंत्री को लेकर है उतनी सेबी द्वारा संसद में झूठ बोलने और फिर सुप्रीम कोर्ट में उसे स्वीकार करने तथा अडानी मामले की जांच छह महीने से कम में नहीं कर पाने के मामले की चिन्ता नहीं है। हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट से पहले इस मामले को तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा ने उठाया था और उन्होंने कल इसपर ट्वीट भी किया था।
यह सेबी द्वारा शपथपूर्वक झूठ बोलने का मामला है
क्या अखबारों-संपादकों पत्रकारों की जिम्मेदारी नहीं है कि उनसे बात करते, पूरे मामले पर प्रकाश डालते – पर क्या किसी अखबार ने ऐसा किया है। आपकी जिज्ञासा शांत करने के लिए बताया है कि कोशिश की गई, मुलाकात का समय नहीं मिला या ऐसा कुछ। जाहिर है उन्हें पता है कि आप पूछेंगे नहीं और उन्हें यह सब करने की जरूरत नहीं है। दूसरी ओर, द टेलीग्राफ ने उनसे बात करके लिखा है कि यह सेबी द्वारा शपथपूर्वक झूठ बोलने का मामला है। आप जानते हैं कि सेबी सरकार नहीं है। सेबी भाजपा या सरकारी पार्टी के परिवार की संस्थाओं में नहीं है। फिर इसकी चूक या लापरवाही से संबंधित खबर सरकार के खिलाफ नहीं होगी, अडानी के खिलाफ भले हो। लेकिन अखबार इसकी भी जरूरत नहीं समझते हैं तो कारण क्या हो सकता है, समझना मुश्किल नहीं है। दूसरी ओर, आपको कोई मामला याद आता है कि पहले किसी सांसद ने भ्रष्टाचार का मामला उठाया हो और उसपर झूठ बोलकर ऐसे टालने की कोशिश की गई हो।
टालने की कोशिश तो हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट के बाद भी की गई और आपको यह समझा दिया गया कि वह विदेशी एजेंसी है इसलिए नरेन्द्र मोदी या भाजपा की सरकार का विरोध कर रही है। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार सेबी एक नियामक है (सरकारी एजेंसी) और सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा है कि अडानी मामले की जांच के सिलसिले में झूठ बोला है। महुआ मोइत्रा ने तो भाजपा सांसद निशिकांत दुबे पर भी फर्जी डिग्री का आरोप लगाया है और कार्रवाई उसमें भी नहीं हुई है। राहुल गांधी के मामले में कितनी तेजी से हुई आप जानते ही है। क्या आपको याद है कि कांग्रेस के जमाने में किसी सांसद पर ऐसे आरोप लगे हों और लगे हों तो कार्रवाई नहीं हुई हो। पर उसे भ्रष्ट कहकर चुनाव ही नहीं हरवा दिया गया खुद उसके पांव की धूल के बराबर होने की कोशिश तो छोड़िये, दिखावा भी नहीं है और अखबार वाले चुप्पी साधे बैठे हैं।
व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी के जरिए और दूसरे तरीकों से हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट की खारिज करने की कोशिश की जाती रही है और आम भक्तों को यह यकीन दिला दिया गया है कि मामला विदेशी ताकतों द्वारा प्रधानमंत्री और भारतीय उद्यमी को बदनाम या अस्थिर करने का है। भारतीय मीडिया मामले की तह में नहीं जाता है और हिन्दी वालों की तो बात ही अलग है। ऐसे में द टेलीग्राफ की आज की खबर का वह अंश पेश है जो घोटाले के बारे में बताता है (जल्दबाजी का यह अनुवाद मेरा है)। तब महुआ मोइत्रा ने पूछा था, क्या “एफपीआई और/या अडानी की संस्थाएं” संदिग्ध लेन-देन के लिए सेबी, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), डीआरआई या एमसीए की किसी जांच के अधीन थीं। उन्होंने तीन एफपीआई – अल्बुला इन्वेस्टमेंट फंड लिमिटेड, क्रेस्टा फंड लिमिटेड और एपीएमएस इन्वेस्टमेंट फंड लिमिटेड – का नाम लिया था और जानना चाहा था कि पूर्व में वे सेबी की फ्रोजन (संभवतः प्रतिबंधित) सूची में थे और फिर इससे बाहर आ गए थे।
अपने सवालों से महुआ मोइत्रा ने धन के अंतिम स्वामित्व पर स्पष्टता मांगी थी – जो मॉरीशस में पंजीकृत थे और इनके पास अडानी की चार कंपनियों में कुल मिलाकर 43,500 करोड़ रुपये के शेयर थे और अडानी समूह की हिस्सेदारी रणनीतिक बुनियादी ढांचा क्षेत्रों में थी। इनमें बंदरगाह, हवाई अड्डे और बिजली संयंत्र शामिल हैं। खबर के अनुसार, 19 जुलाई, 2021 को एक लिखित उत्तर में, कनिष्ठ वित्त मंत्री पंकज चौधरी ने कहा था कि सेबी अडानी समूह की कुछ कंपनियों की जांच कर रही है और यह जांच प्रतिभूति नियमों के अनुपालन के साथ-साथ विभाग द्वारा आयात और निर्यात करों के संदर्भ में की जा रही थी। सांसद महुआ मोइत्रा, अडानी मामले में केंद्र सरकार से पूछताछ कर रही थीं। उन्होंने सेबी के उस समय के प्रमुख अजय त्यागी को एक पत्र भेजा था जिसमें “अडानी समूह के संदिग्ध सौदे” और “इसके अल्पसंख्यक शेयरधारकों को धोखा देने” से संबंधित दो महत्वपूर्ण सवालों पर “तत्काल ध्यान” देने की मांग की गई थी। इन “महत्वपूर्ण मुद्दों” पर नियामक का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कोई स्पष्ट और ठोस जवाब हासिल करने में नाकाम रहा। ऐसा उन्होंने कई बार कहा था और बाद में यह हिंडनबर्ग के खुलासे में भी एक्सपोज़ हुआ। आप जानते हैं कि राहुल गांधी ने इसपर सख्ती से सवाल पूछना शुरू किया तो सरकारी पार्टी ने क्या रुख अपनाया और सेबी की कथित जांच का कितना भरोसा दिया गया।
सेबी की “अक्षमता और बेशर्म लीपा पोती”
अखबार ने लिखा है कि महुआ मोइत्रा इस समय शिकागो में हैं और समय के अंतर के कारण उनसे देर रात में बात हुई तथा इस कारण मंगलवार की रात सेबी या वित्त मंत्रालय का पक्ष नहीं लिया जा सकता और जब उपलब्ध होगा तब प्रकाशित किया जाएगा। महुआ मोइत्रा ने कहा है कि संसद में झूठ बोलना शपथपूर्वक झूठ बोलने की तरह है और ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट के मामले में है जो बेहद शर्मनाक है। अडानी को बचाने की यह कोशिश सेबी का अंत होगा और सरकार का भी। जांच के लिए समय सीमा बढ़ाने के सेबी के अनुरोध ने कइयों को चौंका दिया है क्योंकि शुरू में जांच पूरी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2 मार्च 2023 को दो महीने की समय सीमा निर्धारित की थी और तब उसने इसे कम नहीं कहा था और ना ही बढ़ाने के लिए कहा था। अब यह तथ्य कि सेबी ने “लेनदेन के एक जटिल जाल” को समझने के लिए समय सीमा बढ़ाने की मांग की है और “निवेशकों तथा प्रतिभूति बाजार के हित को ध्यान में रखते हुए न्याय सुनिश्चित करने” का हवाला भी दिया है। इससे कई सवाल खड़े हो गए हैं। अर्थशास्त्री प्रसेनजीत बोस ने कहा है कि हलफनामे से सेबी की “अक्षमता, इससे भी बदतर, एक बेशर्म लीपा पोती” का पता चलता है।
बोस ने सेबी पर अपने दो आरटीआई आवेदनों को विफल करने का भी आरोप लगाया – एक यह कि क्या उसने हिंडनबर्ग रिपोर्ट से पहले अडानी कंपनियों की कोई जांच शुरू की थी और दूसरा अडानी एंटरप्राइजेज के एफपीओ की ग्राहकी तथा इसे रद्द करने से संबंधित था। बोस ने टेलीग्राफ से कहा, “सेबी ने अपने जवाब में दावा किया कि उसके पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है और यह भी कि ये सूचना आरटीआई अधिनियम के तहत ‘सूचना’ के रूप में योग्य नहीं हैं… यह स्पष्ट है कि उन्हें कुछ छिपाना था।” उन्होंने कहा, ‘जो भी हो सेबी को अब बोरिया बिस्तर समेटने के लिए कहा जाना चाहिए।’ इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाली अनामिका जायसवाल ने दावा किया था कि अल्बुला इन्वेस्टमेंट फंड, क्रेस्टा फंड और एपीएमएस इनवेस्टमेंट फंड – सभी मॉरीशस में पंजीकृत हैं – के पास अडानी समूह की चार कंपनियों: अदानी एंटरप्राइजेज, अदानी ग्रीन एनर्जी, अदानी ट्रांसमिशन और अदानी टोटल गैस में 43,500 करोड़ रुपये के शेयर हैं। खबर यह भी है कि जून 2016 में, सेबी ने अल्बुला, क्रेस्टा और एपीएमएस सहित कई एफपीआई के लाभार्थी खातों को फ्रीज कर दिया था, जांच के बाद 51 कंपनियों द्वारा जारी वैश्विक डिपॉजिटरी रसीदों में निवेश से संबंधित अनियमितताओं का पता चला था।
यह सवाल लटका हुआ था कि अगर नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड (एनएसडीएल) ने इन खातों पर रोक लगा दी थी, तो ये एफपीआई अडानी समूह की कंपनियों में कैसे निवेश कर सकते थे? यहीं पर सेबी ने जीडीआर मामले और अडानी समूह में धन प्रवाह के बीच एक अच्छा अंतर निकाला है। इसने कहा कि जीडीआर के मामले में केवल संबंधित लाभार्थी खाते फ्रोजन (प्रतिबंधित) थे। इन तीन एफपीआई के “अन्य लाभार्थी खातों” के संबंध में कोई आदेश पारित नहीं किया गया था। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे वित्त मंत्रालय ने जुलाई 2021 में लोकसभा में महुआ मोइत्रा द्वारा उठाए गए एक प्रश्न के जवाब में भी कहा था। सेबी ने दावा किया था कि जीडीआर मामले में अडानी की जांच नहीं की गई क्योंकि उन्होंने कोई जीडीआर जारी नहीं किया था। लेकिन यह एक हास्यास्पद तर्क है; एपटेक, बिरला कॉटसिन, लायका लैब्स और मोरपेन लैब्स जैसी 51 कंपनियों और जीडीआर जारीकर्ताओं में से किसी की भी जांच नहीं की गई। असल में जीडीआर में निवेशकों की अनियमितताओं के लिए जांच की गई थी न कि जीडीआर जारीकर्ता की। अडानी समूह और अल्बुला, क्रेस्टा और एपीएमएस के बीच मजबूत संबंधों ने संदेह पैदा किया कि क्या जीडीआर के मुद्दों में इधर-उधर किए गए धन किसी ऐसे व्यक्ति के थे जो गौतम अदानी समूह के साथ घनिष्ठ संबंध रखता था। पूरे मामले पर विवाद बना हुआ है क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार और बाजार नियामक दोनों ने तथ्यों का खुलासा नहीं किया है और वास्तविक विवरणों को छिपा कर रखा गया है। यह दिलचस्प है कि इन तथ्यों के बावजूद मॉरीशस के प्रधानमंत्री ने कहा है कि वहां शेल कंपनियां नहीं हैं और अडानी के चैनल एनडीटीवी ने यह खबर दी है। बाकी को लगभग कोई परवाह नहीं है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।