राष्ट्रपति के डिप्टी होने की दलील पर दिल्ली के एलजी को राहत नहीं, पर ख़बर?

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


इतिहास बदलने वाली सरकार के एलजी का इतिहास सार्वजनिक हो गया पर छपा नहीं 


आज दिल्ली के मेरे सभी अखबारों में पाकिस्तान की खबर लीड है। दूसरी कोई ऐसी बड़ी खबर नहीं है और हिन्दुस्तान टाइम्स ने कर्नाटक चुनाव की तस्वीर को लीड के समानांतर टॉप पर रखा है तो नवोदय टाइम्स ने सचिन पायलट की खबर को। इंडियन एक्सप्रेस ने राम मंदिर निर्माण की खबर को लीड के साथ रखा है तो हिन्दू में मध्य प्रदेश की बस दुर्घटना है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने समलिंगी विवाह से संबंधित सुप्रीम कोर्ट की खबर को लीड के साथ टॉप पर रखा है। पाकिस्तान की खबर लीड और सभी अखबारों में सेकेंड लीड अलग होना बताता है कि आज दूसरे महत्व की कोई गंभीर खबर नहीं है। ऐसे में दिल्ली के उपराज्यपाल पर 21 साल से लंबित आपराधिक मामले की खबर बड़ी सूचना है। कल जब यह खबर मिली कि उपराज्यपाल के खिलाफ मामला लंबित है और वे संवैधानिक पद पर होने के नाते अदालत से राहत या मामले को स्थगित रखने की मांग कर रहे थे तो मुझे भाजपा की राजनीति पर एक बार फिर तरस आई। 

इसका पता आज के अखबारों से लगा जब यह खबर दिल्ली के अखबारों में भी पहले पन्ने पर नहीं दिखी। जहां तक बाकी खबरों की बात है, द टेलीग्राफ ने पाकिस्तान की खबर को सिंगल कॉलम में छापा है और कर्नाटक चुनाव व प्रचार से संबंधित खबर लीड है। यहां पहले पन्ने पर मणिपुर भी है जो दूसरे अखबारों से अब सामान्य हो गया लगता है। द टेलीग्राफ ने अपनी खबर के साथ प्रकाशित फोटो के कैप्शन में बताया है कि भाजपा नेताओं ने कांग्रेस द्वारा घृणा फैलाने वाले संगठनों पर प्रतिबंध लगाने तथा उदाहरण के रूप में बजरंग दल व पीएफआई का नाम लिए जाने का लाभ उठाने के लिए मतदान से एक दिन पहले पूरे कर्नाटक में हनुमान मंदिरों का दौरा किया और पूजा-अर्चना की। प्रकाशित तस्वीर बैंगलोर के महालक्ष्मी ले आउट स्थित मंदिर की है।  

आप जानते हैं कि दिल्ली के उपराज्यपाल से पहले साध्वी प्रज्ञा ठाकुर पर आपराधिक मामला होने के बावजूद उन्हें भोपाल से भाजपा का उम्मीदवार बनाया गया और वे चुनाव जीतकर सांसद हैं। पिछले करीब पांच साल से उनके खिलाफ मामले की खबर नहीं है और जनता ने जब उन्हें वोट दिया है तो कहा जा सकता है कि वे जनता की पसंद हैं। टिकट देना, उम्मीदवार बनाना नैतिक रूप से अनुचित हो भी तो वे जनता की अदालत में सफल रही हैं और ऐसे में अगर अदालत ने उन्हें राहत दी है तो बात समझ में आती है लेकिन किसी आरोपी को संवैधानिक पद पर बैठा दिया जाना और उसका यह दावा करना कि वह राष्ट्रपति का डिप्टी है इसलिए उसके खिलाफ मुकदमा स्थगित रखा जाए जाए – अपराध और अपराधियों को प्रोत्साहन देना नहीं तो और क्या है? 

इससे यह भी पता चलता है कि उसके पास योग्य लोगों की कितनी कमी है। इसके बावजूद दिल्ली की यह खबर दिल्ली के मेरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। मेरे पांच अखबारों में सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया ने आज इस खबर को पहले पन्ने पर ठीक-ठाक जगह दी है। बाकी पन्ना तो पूरा भरा ही हुआ है और जैसे तैसे रोज भर ही दिया जाता है। इंडियन एक्सप्रेस में आज आधे पन्ने का विज्ञापन है लेकिन उपराज्यपाल की खबर नहीं है। यह खबर इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि न सिर्फ उन्हें उपराज्यपाल बनाया गया है बल्कि वे इसी बिना पर राहत भी मांग रहे थे। और अदालत ने राहत नहीं दी है। जहां तक राष्ट्रपति के डिप्टी होने की बात है, इस मामले की पीड़ित मेधा पाटकर ने कहा है कि उपराज्यपाल वीके सक्सेना राष्ट्रपति के डिप्टी नहीं एजेंट मात्र हैं। जो भी हो, आज जब बहुत महत्वपूर्ण खबरें नहीं हैं, दिल्ली के अखबारों में दिल्ली के राज्यपाल से संबंधित इस खबर को पहले पन्ने पर जगह मिलनी चाहिए थी। 

जहां तक डिप्टी होने की बात है, आज ही एक खबर से पता चला कि गाजियाबाद के सांसद जनरल वीके सिंह डिप्टी उड्डयन मंत्री हैं। पूर्व जनरल डिप्टी मंत्री और एक आरोपी राष्ट्रपति का डिप्टी या उपराज्यपाल। यह तथ्य है। वैसे तो यह पार्टी का आंतरिक मामला है और प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार लेकिन प्रधानमंत्री जब कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र की बात करते रहे हैं तो उनकी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की बात भी होनी ही चाहिए। और इस लिहाज से यह गौर तलब है कि एमजे अकबर जैसे सीनियर और काबिल पत्रकार तथा नेता मीटू से पहले विदेश मंत्रालय में सुषमा स्वराज के डिप्टी थे। सुषमा स्वराज तो फिर भी भाजपा की पुरानी नेताओं में थीं और एमजे अकबर अंग्रेजी के पत्रकार लेकिन जनरल वीके सिंह और उनके कैबिनेट मंत्री का मामला ऐसा नहीं है। यहां यह भी याद आता है कि पहले कैबिनेट मंत्री और राज्य मंत्री होते थे। डिप्टी मंत्री तीसरा होता था। अब पता नहीं क्या स्थिति है। दोनों डिप्टी हैं या इनमें भी कोई सीनियर जूनियर है। कहने की जरूरत नहीं है कि यहां वरिष्ठता संसद सदस्य के रूप में कार्यकाल से होती है लेकिन दूसरे मंत्रियों के मामले में कहा जा सकता है कि वे जूनियर होने के बावजूद कैबिनेट मंत्री बने या बनाए गए। 

वैसे यह मेरा मुद्दा नहीं है। मैं तो सिर्फ डिप्टी होने और उस आधार पर मांगी गई राहत की चर्चा कर रहा था जो नहीं मिली। और खबर भी नहीं बनी। जब उप राज्यपाल की खबर छपी नहीं है तो मामले की संक्षिप्त जानकारी देना प्रासंगिक रहेगा और वह यह है कि इतिहास बदलने वाली सरकार के एलजी का इतिहास सार्वजनिक हो गया है। भले अखबारों ने उसे आवश्यक महत्व नहीं दिया है। निश्चत रूप से यह सरकारी स्तर पर नियमों का मजाक बनाए जाने का एक और मामला है। इस मामले से ही मुझे पता चला कि केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने जिस वीके सक्सेना को दिल्ली का उपराज्यपाल बनाया है वह मेधा पाटकर पर हमला करने के आरोपी भी है। उपराज्यपाल मुख्यमंत्री के बंगले के पुनरुद्धार पर 45 करोड़ रुपए खर्च किए जाने के मामले की जांच करवा रहे हैं और 21 साल पुराने मामले में अदालत से अपील कर रहे हैं कि संवैधानिक पद पर हैं इसलिए सुनवाई स्थगित रखी जाए। इस बीच अपात्र होने के बावजूद खुद सरकारी बंगले का मजा ले ही रहे होंगे। 

दूसरी ओर, आप जानते हैं कि राहुल गांधी के खिलाफ मामला, फैसला और उसके बाद की कार्रवाई कैसे हुई। यही नहीं, गुजरात दंगों से संबंधित कई गंभीर मामलों में लोगों को क्लीन चिट मिल गई है और कई अभी तक लटके हुए हैं। मुझे लगता है कि जिन्हें क्लीन चिट मिली और जो मामले लटके हुए हैं या बाद में जिनके फैसले आए उनमें कुछ दिलचस्प संबंध हो सकता है और उसकी जांच की जानी चाहिए। पर वह होनी नहीं है। इंटरनेट पर उपलब्ध हिन्दुस्तान, नभाटा आदि की खबरों के अनुसार अहमदाबाद में अतिरिक्त मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट पीएन गोस्वामी की अदालत में दिल्ली के उपराज्यपाल के खिलाफ यह मामला चल रहा है। अदालत से उन्होंने मार्च में मामले को स्थगित रखने की अपील की थी। आप जानते हैं कि वीके सक्सेना को पिछले साल मई में दिल्ली का उपराज्यपाल बनाया गया था। 

उपराज्यपाल, वीके सक्सेना के खिलाफ यह मामला अहमदाबाद स्थित गांधी आश्रम में 7 मार्च 2002 को आयोजित एक शांति बैठक के दौरान हिंसा करने का है। यह सब नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर के खिलाफ था। उन्होंने वीके सक्सेना और दूसरे लोगों पर हमला करने का आरोप लगाया था। इसके बाद सक्सेना समेत चार लोगों के खिलाफ साबरमती थाने में एफआईआर दर्ज हुई थी। अब इसी मामले में मेट्रोपॉलिटन कोर्ट में केस की सुनवाई होनी है। यह मामला दंगा, हमला, गलत तरीके से रोकना, आपराधिक धमकी और जानबूझकर अपमानित करने से संबंधित है। इसमें वीके सक्सेना के साथ एक भाजपा विधायक और तीन अन्य अभियुक्त हैं। इसका मतलब हुआ कि जिस सरकार (या व्यवस्था) ने सूरत की अदालत के फैसले के बाद राहुल गांधी की संसद की सदस्यता खत्म कर दी थी उसी ने वीके सक्सेना के खिलाफ मामला लंबित होने के बावजूद उन्हें राज्यपाल बना दिया था। और पीड़ित महिला हैं, मेधा पाटकर जिन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है। पर न्याय का क्या है, बिल्किस बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा है कि बचने की कोशिश चल रही है। 

एलजी को अदालत से राहत नहीं मिली – सुनने में लग सकता है कि अदालत से राहुल गांधी को राहत नहीं मिली तो उपराज्यपाल को भी नहीं मिली और सब बराबर है लेकिन दोनों मामले अलग हैं, अपराध भी। यही नहीं, राहुल गांधी का मामला 2019 का है और यह 2002 का। इसमें ताज्जुब की बात यह है कि हिंसा, महिला अपमान का मुकदमा लंबित होने के बावजूद उन्हें संवैधानिक पद पर रखा गया और राहुल गांधी जो निर्वाचित सांसद हैं उनकी सदस्यता मानहानि के मामले में चली गई और प्रज्ञा ठाकुर या फर्जी डिग्री वालों का कुछ नहीं बिगड़ा यह व्यवस्था है और ही इस सरकार का प्रशासन। गोदी मीडिया को न उपराज्यपाल के खिलाफ मामला होने की खबर है ना उन्हें राज्यपाल बनाए जाने पर यह खबर सामने आई। यहां तक कि राहुल गांधी से बंगला खाली कराए जाने और अरविन्द केजरीवाल के बंगले पर खर्च की जांच कराने के उपराज्यपाल के फैसलों के बाद भी नहीं। 

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं.