आज के अखबारों के पहले पन्ने की खबरों से देखिये-समझिये सरकार के भिन्न विभाग कैसे काम कर रहे हैं
आज टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर है जिससे पता चलता है कि कर्नाटक में प्रधानमंत्री (और भाजपा ने) कांग्रेस के खिलाफ बजरंगबली को उतार दिया गया है। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में बजरंगदल पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव किया है और प्रधानमंत्री अपनी रैली की शुरुआत और समापन जयबजरंगबली से कर रहे हैं। मैं बजरंगी हूं कहने वाले पोस्टर लग गए हैं इनमें दावा किया जा रहा है कि मुझ पर प्रतिबंध लगाइये और गिरफ्तार कीजिए – भाजपा को यह नया मुद्दा मिल गया है और इस बीच कांग्रेस ने स्पष्टीकरण दिया है अपने घोषणा पत्र में हमने स्पष्ट कहा है कि हम शांति भंग करने की कोशिश करने वालों के खिलाफ काम करेंगे …. हमें किसी संगठन का अलग से नाम लेने की जरूरत नहीं है। इस और ऐसी दूसरी खबरों से पता चलता है कि चुनाव जीतने के लिए प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी क्या कर रहे हैं और चुनाव आयोग क्या कर रहा है या उसकी हैसियत क्या बना दी गई है।
आज पहले पन्ने की खबरों से इसे समझा जा सकता है। इन खबरों में एक और खबर है, प्रियांक खरगे और बसनगौड़ा को चुनाव आयोग का नोटिस (नवोदय टाइम्स)। खबर के अनुसार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बेटे और विधायक प्रियंक खरगे को निर्वाचन आयोग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपमानजनक शब्द का इस्तेमाल करने पर बुधवार (3 मई) को कारण बताओ नोटिस जारी किया आयोग ने कहा कि पहली नजर में यह आचार संहिता के प्रावधानों का उल्लंघन है। खबर के अनुसार, प्रियांक खरगे ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पिछले दिनों अपनी एक चुनावी जनसभा में पीएम मोदी के लिए ‘नालायक’ शब्द का इस्तेमाल किया था। प्रियांक कर्नाटक के चित्तापुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक हैं। इस बार भी वह इसी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। मझे लगता है कि नालायक अनुपयुक्त का ही पर्याय है और जो आदर्श न हो उसके लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। लायक का विलोम है नालायक। कोई किसी पद या काम के लिए लायक हो सकता है बाकी नालायक हो सकते हैं। अच्छा नाचने वाला गाने के लिए नालायक हो सकता है।
प्रधानमंत्री को 10 साल पहले अगर इस पद के लायक कहा गया तो ठीक था तब उनके बारे में पता नहीं था तो उन्हें नालायक नहीं कहा जा सकता था लेकिन अब उन्हें नालायक कहा जा सकता है। इसमें कुछ गलत नहीं है पर चुनाव आयोग के लिए यह मुद्दा है। मुझे नहीं पता चुनाव से पहले मुसलमानों का आरक्षण रद्द करना, उसे संविधान विरोधी कहना और कांग्रेस का यह कहना कि सत्ता में आए तो आरक्षण बहाल करेंगे – सही है या गलत। चुनाव ऐसे दावों के बीच लड़े जा रहे हैं तो जाहिर है दो धर्मों के समर्थक और विरोधी बनकर लड़े जा रहे हैं या इस स्थिति में पहुंचा दिए गए हैं। यह दोनों पक्षों के लिए समान स्थिति नहीं है। मेरे ख्याल से मामला अदालत में है तो इसपर बोलना भी नहीं जाना चाहिए लेकिन शुरुआत सत्तारूढ़ पार्टी ने की तो कांग्रेस के पास चारा नहीं था हालांकि उसका ऐसा कहना उसके लिए नुकसानदेह भी हो सकता है। चुनाव आयोग का काम ऐसी चीजें देखना है पर वह नालायक को देख रहा है। यह व्यवस्था है जो पिछले 10 वर्षों में बनी है या पहले से थी तो ठीक नहीं की गई है। अखबारों का काम है इसे रेखांकित करना पर कितने अखबार ऐसा कर रहे हैं? वैसे, यह सुनिश्चित करना भी सरकार का ही काम है और 2014 से पहले इतनी बुरी हालत नहीं थी।
आज पहले पन्ने की खबरों में एक यह भी है (द हिन्दू) ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय ने यह स्वीकार किया है कि कथित शराब घोटाले की चार्जशीट में आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह का नाम गलती से चला गया है। यह खबर कहीं और दिखी क्या, पहले कभी ऐसा हुआ था क्या और हुआ भी हो तो पहले कभी सरकार ने ईडी के मुखिया को योग्य बताकर सेवा विस्तार देने का रिकार्ड बनाया था क्या? अब सब हो रहा है और खबर भी अपने रंग में या बिना रंग के छप रही है। दिलचस्प यह है कि संजय सिंह का नाम गलती से शामिल हो जाने की भयानक गलती पर भाजपा ने कहा है कि गलती से नाम शामिल किया जाना स्वीकार करने का मतलब यह नहीं है कि वे बरी हो गए हैं। ईडी की तरफ से भाजपा के इस बयान (अखबार में छपा है) का मतलब मैं नहीं जानता लेकिन यह जरूर जानता हूं कि 20,000 करोड़ पर सबकी बोलती बंद है। प्रधानमंत्री निवास में या प्रधानमंत्री से संबंधित भिन्न मामलों में कितना खर्च होता है उसकी चिन्ता नहीं करने वाले लोग दिल्ली के मुख्यमंत्री निवास पर 40-45 करोड़ रुपए खर्च किए जाने से परेशान हैं। और ये वही लोग हैं जो प्रधानमंत्री के साथ पत्रकारों का विदेश जाना रोक दिए जाने की वकालत करते थे और जब राहुल गांधी ने पूछा कि अडानी आपके साथ कितनी बार विदेश गए हैं तो चुप्पी साध गए। सरकार ने तो ऐसे पांच सामान्य सवाल का जवाब नहीं दिया क्योंकि इससे अडानी के समर्थन में किए गए उनके कामों की पोल खुलती। पर वह अलग मुद्दा है।
इंडियन एक्सप्रेस में आज पहले पन्ने पर छपी खबर के अनुसार, कुश्ती ही नहीं, देश के आधे खेल महासंघों में कानून के अनुसार यौन उत्पीड़न पैनल है ही नहीं। कहने की जरूरत नहीं है कि यह स्थिति देश के मुख्य न्यायाधीश से संबंधित मामला होने के बावजूद है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा देने वाली सरकार के एक नहीं दो कार्यकाल लगभग पूर्ण होने के बाद है और इस दृढ़ मान्यता के बाद है कि पहलवानों के मामले में उनके आरोपों पर कार्रवाई करने की जरूरत नहीं है (और जैसा आरोपी कह रहे हैं मामला राजनीतिक है)। दूसरी ओर, सत्तारूढ़ पार्टी की राजनीति की ही बात करूं तो आज ही खबर छपी है और प्रधानमंत्री ने कहा है, “जय बजरंग बली बोलकर बटन दबाओ और कांग्रेस को सजा दो।” दिल्ली के नवोदय टाइम्स में पहले पन्ने पर छपी यह खबर बता रही है कि हमारे प्रधानमंत्री कैसे हैं? चुनाव जीतने के लिए किस स्तर तक जा सकते हैं। चर्च, गुरद्वारा का दौरा तो याद ही है।
प्रधानमंत्री के अनुभव को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि उन्होंने ऐसा बिना सोचे-समझे कह दिया होगा या हताशा में या परेशानी में हैं इसलिए कह रहे हैं। मेरा मानना है कि ऐसा कहने और करने का राजनीतिक फायदा होता है इसीलिए वे ऐसा कहते और करते हैं। यह चिन्ता की बात है। प्रधानमंत्री को चुनाव जीतना है, पार्टी कार्यालय बनवाने हैं, पार्टी के अगले चुनाव के लिए पैसा इकट्ठा करना है वे इसके लिए काम कर रहे हैं। सवाल यह है कि जनता के लिए या देश के लिए क्या कर रहे हैं और अगर कुछ किया होता तो कहते और कहने के लिए भी नहीं है तो ऐसा कहने-करने पर वोट देने वाले ही इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। मेरा मानना है कि जो इसे नहीं समझते हैं, समझने के लिए तैयार नहीं हैं और समझाने पर भी नहीं सुनते हैं वही इसका नुकसान या फायदा उठाते हैं। फायदे उठाने वाले तो ठीक हैं, नुकसान उठाने वालों को भी नहीं समझ में आ रहा है तो यह जरूर समझना चाहिए कि जो बजरंग दल पर रोक लगाने की बात कर रहा है वह नहीं भी कर सकता था। ताली-थाली तो बजा ही सकता था, जेल जाने के मुहाने पर तो नहीं होता।
कहने की जरूरत नहीं है कि प्रचारित भले किया गया है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं पर जो करते रहे हैं उससे जेल जाने का रास्ता ही पूरा हो रहा है और सब समझते हुए भी वे रुक नहीं रहे हैं डर नहीं रहे हैं तो कुछ कारण होगा। पर भाई लोगों को इसे भी समझने की जरूरत है। और तुच्छता देखिये कि बजरंग दल और बजरंग बली को एक बता दे रहे हैं। और विडंबना देखिये कि शिक्षा मंत्री कौन हो, तय कर सकते हैं। उनके जरिए वीसी और शिक्षा निदेशक भी। भ्रष्टाचार रोकने के वादे, दावे, दिखावे और प्रचार तथा नियमों में भारी परिवर्तन नोटबंदी जैसी कार्रवाई के बावजूद लोग 40 करोड़ रुपए नकद रखते हैं क्योंकि उन्हें यकीन है कि अब नोटबंदी नहीं होगी। इस तरह बिना सोचे समझे नोटबंदी करके उन्होंने नकद और काले धन का काम करने वालों की हिम्मत बढ़ाई है। आपके हित में शौंचालय बने हों तो मैं नहीं जानता लेकिन डबल इंजन वाले गाजियाबाद के तथाकथित पॉश इलाके में रहता हूं, मॉर्निंग वॉक नहीं कर सकता क्योंकि सड़क पर चल नहीं सकता, पार्क में बंदरों का आतंक है और शौचालय नहीं है या उपयोग करने लायक नहीं है।
यह गाजियाबाद की हालत है देश के बाकी हिस्सों का अंदाज लगा सकते हैं और इसकी तुलना व्हाट्सऐप्प पर आने वाले प्रचार से कीजिए और सोचिये कि जब ऐसे-समर्थक हैं तो विरोधी के चुप बैठने से काम चलेगा। पर आपको मतलब नहीं है कि 20,000 करोड़ किसके हैं। दूसरी ओर, आज ही खबर है कि कर्नाटक चुनाव से पहले चुनाव के लिए पैसे देने वाले इलेक्ट्रल बांड की बिक्री 2018 के मुकाबले नौ गुना बढ़ गई है। इलेक्ट्रल बांड का पूरा अर्थशास्त्र घपले वाला है और ऊपर से पीएम केयर्स उसमें सरकारी कंपनियों के सीएसआर के अरबों रुपये और आम लोगों का वेंटीलेटर व ऑक्सीजन के बिना मरना। सबसे बड़ी बात उस मामले में पारदर्शिता नहीं होना। और छवि भ्रष्टाचार विरोधी की। यह मीडिया और प्रचारकों का ही किया धरा है। इसीलिए जनहित में काम कम हुए हैं, नाम ज्यादा बदले गए हैं और जानते हैं, ऑल इंडिया रेडियो को अब आकाशवाणी ही कहा जाना है। यह भी आज की खबर है (हिन्दुस्तान टाइम्स) नाम बदलने की इस बीमारी या पुण्य कर्तव्य से जनता को क्या फायदा होगा वह तौ मैं नहीं जानता लेकिन मुगलसराय का नाम देश के पूर्व रेल मंत्री, लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर रखा जाता तो बात समझ में आती।
उनका जन्म वहीं हुआ था और वे ऐसे रेल मंत्री रहे हैं जिन्होंने दुर्घटना की जिम्मेदारी लेकर पद छोड़ दिया था। वैसे तो मुगलसराय नाम का अपना महत्व है और भले बदल दिया गया है बोलचाल में वैसे ही रहेगा जैसे कनाट प्लेस राजीव चौक नहीं हुआ पर मुगलसराय से दीन दयाल उपाध्याय का संबंध बताने के लिए स्टेशन का नाम बदल दिया जाना और फिर मन की बात को आकाशवाणी कहने के बाद ऑल इंडिया रेडियो नाम खत्म कर दिया जाना बताता है कि सरकार की प्राथमिकता क्या है। उसमें जनहित कहां है। यौन उत्पीड़न पैनल न होने की अपनी खबर के साथ इंडियन एक्सप्रेस ने यह भी बताया है कि सरकार ने कुश्ती महासंघ के मामले की जांच करते हुए इस साल जनवरी में इसे फ्लैग भी किया था। दूसरी ओर, हालत यह है कि इस मामले में बनाई गई मैरी कॉम समिति ने अभी तक अपनी रिपोर्ट नहीं दी है और सरकार की तरफ से अघोषित प्रचारक और समर्थक कहते रहे कि समिति तो बनी हुई है और उससे किसी ने शिकायत नहीं की या ऐसी ही बातें। यहां दिलचस्प यह भी है कि पहलवाना का मामला बातचीत-आश्वासन से निपटाया जा सकती है कि नहीं इसकी कोशिश ही नहीं हुई है।
अपने सरकार समर्थक बयान के बाद पीटी उषा कल पहलवानों के पास गई थीं। खबर, फोटो टाइम्स ऑफ इंडिया में है और फोटो कैप्शन में कहा गया है कि पहलवानों को आश्वासन दिया था कि उनके मामले में न्याय किया जाएगा। पर खबर यही है कि आधी रात को पहलवानों को जबरन हटा दिया गया। यह सब तब है जब कहा जाता है और दिख रहा है कि सब कुछ एक ही आदमी करता है। सारे निर्णय वहीं लिये जाते हैं। अगर ऐसा है और उसके बाद यह सब हो रहा है तो मामला क्षमता और योग्यता का भी हो सकता है और मैंने लिखा है कि आपको राजनीति नहीं आती है। कुल मिलाकर सरकार अमान्य, अघोषित प्रचारकों की सूचनाओं से चल रही है और काम का यह हाल है कि महिला पहलवानों की शिकायत तीन महीने में तो नहीं ही सुनी गई उन्हें रात में धरना स्थल से हटा दिया गया और इसके लिए महिला बल ले जाने की भी जरूरत नहीं समझी गई। पुरुष सुरक्षा कर्मियों ने महिला एथलीटों को ना सिर्फ जबरदस्ती हटाया मौके पर मौजूद यू ट्यूबर साक्षी जोशी से भी हाथापाई की।
यह सरकार की हालत है दस साल बाद उसकी प्राथमिकताओं की दशा है, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ नारे के बावजूद। जहां तक अदालतों और पुलिस जांच की बात है, दंगे और नरसंहार के आरोपी बरी हो जा रहे हैं, अपराध के वीडियो के बावजूद सजा नहीं हुई है तो दूसरी ओर राहुल गांधी को अधिकतम सजा दी गई और सजा ही नहीं दी गई अभी तक राहत नहीं मिली है। दूसरी ओर रांची अदालत में व्यक्तिगत पेशी से छूट नहीं मिली है। ऐसा लग रहा है जैसे अपने समय का सबसे बड़ा अपराध यही है और राहुल गांधी को सजा हो गई तो यह अपराध फिर होगा ही नहीं। वैसे तो अदालत के मामले में टिप्पणी नहीं करनी चाहिए पर यह मामला इतना चर्चित और अटपटा है कि इस एक मामले से देश में न्याय व्यवस्था पर जो टिप्पणी हो सकती है वह शत प्रतिशत सही न भी हो तो बहुत विस्तृत चित्रण करती है। शिकायत का जवाब यही है कि पहले भी ऐसा ही था – अगर इसे मान भी लिया जाए कि तब आप क्या करने आए थे? दिल्ली में भाजपा के दो कार्यालय बनवाने या नया गुजरात भवन बनवाने। दिलचस्प यह है कि बजरंग बली की मेहरबानी कोई ऐसे सवाल नहीं करता है।
ठीक है कि आम आदमी के साथ ऐसे मामले नहीं होते हैं लेकिन विपक्ष के नेता के साथ भी हों तो सरकार का विरोध कैसे होगा और क्यों नहीं होना चाहिए। क्या सरकार को मनमानी करने की छूट होनी चाहिए। हम सब लोग जानते हैं कि एक ही मामले में दो बार सजा नहीं हो सकती है। फिर भी राहुल गांधी के खिलाफ रांची में मामला चलना और व्यक्तिगत मौजूदगी से छूट नहीं मिलना कुछ कहता है – क्या कहता है इसे समझने की जरूरत नहीं है? वह भी तब जब पटना में सुशील मोदी (जो इस मामले में सरकार के बड़े और प्रभावी प्रतिनिधि हैं) के मामले में पटना हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश पर रोक लगाई हुई है। क्या हर मामले में व्यक्ति (आरोपी) को हाईकोर्ट जाना जरूरी होना चाहिए। इस व्यवस्था को दुरुस्त करने की जरूरत नहीं है। और ऐसे तमाम मामले हैं जिनपर काम होना चाहिए था। पुलिस सुधार भी इनमें एक है पर सरकार बंजरंग दल की वकालत कर रही है। दूसरे शब्दों में चुनाव जीतने में लगी है। वह भी तब जब अब यह साबित हो चला है कि संघ परिवार के पास सरकार चलाने के लिए योग्य और सक्षम लोग नहीं हैं और सत्ता की भूख न हो संघ परिवार को अपने हाथ वैसे ही खींच लेने चाहिए जैसे वंशवाद के आरोपी परिवार से अपेक्षा की जाती रही है।
एक तरफ जीएसटी वसूली बढ़ने का प्रचार है दूसरी तरफ हवाई चप्पल वालों को हवाई यात्रा का सपना दिखाने के बावजूद विमानन कंपनियों का बुरा हाल है और गो फर्स्ट दिवालिया घोषित कर दिए जाने की कगार पर है। इंदिरा गांधी ने बैंकों का अधिग्रहण किया था अब बैंक के बैंक बंद हो गए और लुट गए तथा जीएसटी वसूली बढ़ने के प्रचार के बावजूद कारोबारी दिवालिया हो रहे हैं बचने के लिए देश छोड़कर भाग रहे हैं और सरकार समर्थक ज्यादातर कामयाब रहे पर प्रचारित यह किया जाता रहा कि सबको कर्ज पिछली सरकार के समय दिया गया था इसलिए दोषी पहले की सरकार है जबकि तथ्य यह था कि नोटबंदी और दूसरे कारणों से अर्थव्यवस्था इतनी खराब हो गई है कि कारोबार मुश्किल हो गया है। पर मीडिया को बताना नहीं है और प्रचारक कहानी को घुमाने के विशेषज्ञ हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।