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फैसले के बाद इमरजेंसी बड़ी खबर थी, अघोषित इमरजेंसी के बाद भी फैसला बड़ी खबर!
आज के अखबारों में प्रमुख खबर है, सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट देने के एसआईटी के फैसले के खिलाफ दायर जकिया जाफरी की अपील को खारिज कर दिया है। आप जानते हैं कि 2002 के दंगों से संबंधित इस मामले में फैसला 2022 में आया है। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ अपील को खारिज कर दिया है बल्कि प्रक्रिया के दुरुपयोग का आरोप भी लगाया। इस मामले में आज के अखबारों के शीर्षक से पता चलेगा कि मामला क्या था और किस अखबार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कैसे पेश किया है। पेश है, कुछ ई-पेपर के शीर्षक। पहले हिन्दी अखबारों के और फिर अंग्रेजी अखबारों के और अंत में द टेलीग्राफ का शीर्षक। आज इस खबर का मुख्य या सबसे आम शीर्षक है, “जकिया जाफरी को सुप्रीम कोर्ट से भी झटका, मोदी को क्लीन चिट देने के खिलाफ याचिका खारिज।”
आगे मैं इस शीर्षक को नहीं लिखूंगा, इसके अलावा कुछ उपशीर्षक भी हुआ तो उसका उल्लेख किए बिना बात करूंगा। मकसद फैसले की खास बातें बताने के साथ शीर्षक लगाने वालों की मानसिकता को पढ़ने समझने की कोशिश करना है। उदाहरण के लिए, इस शीर्षक में ‘भी’ की कोई जरूरत नहीं थी। सुप्रीम कोर्ट आदमी तभी आता है जब उसकी बात निचली अदालतों में नहीं मानी या सुनी जाती है। इसलिए शीर्षक में ‘भी’ बेमतलब है और जबरन लगाने से लगता है जैसे पता था कि झटका लगेगा या पहले भी झटका लगा था और इसबार भी लगना तय था। अगर झटका लगना पता होता तो कोई अदालत हारने के लिए नहीं जाता है। वैसे भी, मामला अदालत में सुनवाई या विचार के लिए स्वीकार किया गया है इसका मतलब है कि पहली नजर में उसमें दम था। इसलिए अगर यही कहना है तो फैसले में यह बात भी है। अदालत ने कहा है और कुछ अखबारों ने उसे भी शीर्षक में रखा है। अगर शीर्षक में सुप्रीम कोर्ट की बात रखी जाती तो इससे अखबार या शीर्षक लगाने वाले का अपना पूर्व ग्रह नहीं पता चलता।
मेरा मानना है कि मामला इतना आसान और सीधा था तो यह फैसला उसी समय आ गया होता। इतना समय क्यों लगता। तब फैसला निश्चित रूप से आसान होता और उसे पचाना भी। अब अखबार उसे पचाने योग्य बनाने की कोशिश कर रहे लगते हैं। ऐसा कहने का आधार यह है कि एक पूर्वग्रह यह भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री के खिलाफ फैसला आ ही नहीं सकता। एक बार आया था तो इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी थी। संयोग से आज ही उसकी सालगिरह है और देश की पूरी राजनीति में उथल-पुथल मच गया था। इसलिए मुझे तो लगता था कि फैसला ऐसा ही कुछ आएगा। निश्चित रूप से यह मेरा पूर्वग्रह है और शीर्षक में यदि मैं यह जोड़ देता कि फैसला वही जिसकी उम्मीद थी तो वह मेरा पूर्वग्रह को होता ही फैसले की अवमानना भी होती। आखिर किसी को फैसले का पता कैसे हो सकता है? खासकर तब जब उसने अदालती कार्रवाई नहीं देखी।
अगर यह (पूर्वग्रह) अखबारों की खबरों पर आधारित है तो क्या खबरें भी पूर्वग्रह से प्रेरित होती हैं? आज के शीर्षक से मैं यही समझने की कोशिश कर रहा हूं। आप भी देखिए, अगर समझ सकें।
- ‘कड़ाही खौलाते रहने की कोशिश; जाहिर है, इसके पीछे इरादे गलत’, ‘झूठे दावों पर साजिश का ढांचा ताश के पत्तों की तरह ढहा’ (राजस्थान पत्रिका)
- गुजरात दंगे: नरेन्द्र मोदी को मिली क्लीन चिट पर सुप्रीम मोहर। मुख्य शीर्षक है, अधिकारियों की निष्क्रियता व नाकामी अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश नहीं। शीर्ष अदालत ने कहा, दंगे पूर्व नियोजित नहीं, गवाहियां झूठ से भरीं, जिनका मकसद सनसनी फैलाना और मुद्दे का राजनीतिकरण करना। (अमर उजाला)
- गुजरात दंगों में मोदी को क्लीनचिट पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर (मुख्य शीर्षक है, सात कॉलम में) उपशीर्षक है, फैसला: जकिया जाफरी की याचिका को शीर्ष अदालत ने आधारहीन कहते हुए खारिज किया। (दैनिक जागरण)
- एसआईटी की जांच पर संदेह नहीं: शीर्ष अदालत (जनसत्ता)
- गुजरात दंगों में मोदी को एसआईटी की क्लीन चिट बरकरार, एससी ने कहा- साजिश नहीं, बीजेपी ने कहा – यह सत्य की जीत है। (नवभारत टाइम्स)
- गुजरात का दंगा पूर्व नियोजित साजिश नहीं: सुप्रीम कोर्ट (हिन्दुस्तान)
- गुजरात दंगों से मोदी का नाम हटा (नवोदय टाइम्स)
- सुप्रीम कोर्ट ने जकिया की अपील खारिज की: कोई बृहत्तर साजिश नहीं थी, प्रक्रिया का दुरुपयोग किया गया ताकि मामले को गर्म रखा जा सके (इंडियन एक्सप्रेस)
- दंगे की ‘साजिश’ पर सुप्रीम कोर्ट ने जकिया की अपील खारिज की (हिन्दुस्तान टाइम्स)
- गुजरात दंगे: सुप्रीम कोर्ट ने मोदी को एसआईटी की क्लीन चिट को कायम रखा, आगे की जांच के लिए जकिया जाफरी की अपील को खारिज किया (टाइम्स ऑफ इंडिया)
- सुप्रीम कोर्ट ने मोदी, 60 अधिकारियों के खिलाफ जकिया के आरोपों को खारिज किया (द हिन्दू)
- क्या ये हाथ साफ हैं? सुप्रीम कोर्ट ने कहा, हां। (द टेलीग्राफ)
कहने की जरूरत नहीं है कि ऊपर प्रकाशित 11 अखबारों के शीर्षक आमतौर पर एक जैसे हैं और ऐसा लग रहा है जैसे बहुत बड़ा फैसला है जबकि बहुत देर से आया है। आप इसे जितना भी बड़ा मानें, सच यही है कि फैसला प्रधानमंत्री के खिलाफ होता तो ज्यादा महत्वपूर्ण या गंभीर होता। दैनिक जागरण ने तो आज की खबर को ही सात कॉलम में छापा है। सवाल उठता है कि इतने पुराने मामले में यह फैसला प्रधानमंत्री के खिलाफ होता तो अखबार क्या करता? क्या वह खबर इससे ज्यादा गंभीर नहीं होती और होती तो अखबार उस गंभीरता को दिखाने के लिए क्या करता या जो करता वह वाजिब होता। बेशक, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना करना ना अखबार का काम है ना मेरा। ना अखबार इसके योग्य हैं और ना ही मेरी ऐसी कोई योग्यता है। मेरी टिप्पणी खबरों पर और खबरों से मिली जानकारी के आधार पर है।
आज की खबरों से बहुत से सवाल उठते हैं जिनका जवाब 11 अखबार के शीर्षक से नहीं मिलता है। थोडा अलग शीर्षक द हिन्दू का है जो बताता है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ 60 अधिकारियों पर भी आरोप थे और उसे भी खारिज कर दिया गया है। इससे यह सवाल उठता है कि सैकड़ों लोग मारे गए, राज्य सरकार के मुखिया के रूप में नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार नहीं हैं, 60 अधिकारी भी नही हैं तो क्या कोई जिम्मेदार नहीं है। हो सकता है फैसले को पढ़ने से इसका जवाब मिले। पर अखबारों के शीर्षक में इसका जवाब क्यों नहीं होना चाहिए। दूसरी ओर, पुरानी खबरों के आधार पर अगर मेरी याददाश्त सही है तो एक आईपीएस अधिकारी ने प्रधानमंत्री पर आरोप लगाया था। उन्हें परेशान किया गया, अभी भी जेल में हैं। क्या फैसले में इससे संबंधित कुछ है। अगर 11 अखबार देखने के बाद भी मुझे फैसले की प्रति देखनी पड़े तो आप समझ सकते हैं कि अखबार क्या कर रहे हैं।
ठीक है कि प्रधानमंत्री और 60 अफसर दोषी नहीं पाए गए या बरी हो गए पर इसके साथ सच यह भी है कि सैकड़ों लोगों की मौत से संबंधित साजिश का पर्दाफाश नहीं हुआ। एसआईटी की जांच में दोषी नहीं मिले। यह फैसला उसी समय आ गया होता तो अलग बात थी अब तो पुस्तक, ‘गुजरात फाइल्स’ भी है। और कश्मीर से हिन्दुओं के पलायन पर राय ‘कश्मीर फाइल्स’ देखकर बनाने की सलाह भी मिल चुकी है। अखबारों में कुछ इस बारे में भी हो सकता था या शीर्षक इसपर आधारित हो सकता था जैसा द टेलीग्राफ में है। अखबारों की खबरों से या तथ्यों से दंगे के बाद जो हुआ उससे जकिया जाफरी की याचिका में लगाया गया आरोप तो सही साबित होता है। लेकिन अदालत में साबित नहीं हुआ। बेशक अदालत में साबित होने के लिए सबूत चाहिए पर साजिश जिस मकसद से की गई होगी वह तो पूरा हुआ है।
इसे परिस्थितिजन्य साक्ष्य कहा जाता है और इसपर फैसले में क्या कुछ है, है भी कि नहीं यह सब कैसे पता चलेगा और क्या पाठक यह सब नहीं जानना चाहता है जो बताया ही नहीं गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि अखबरबहुत निराश करते हैं। किसी भी पाठक की इच्छा होगी कि अदालत में यह सब कैसे हुआ और दंगे साजिश क्या सबूत दमि नहीं मिला, साजिश का पता नहीं सैकड़ों लोगों की मौत के लिए कोई जिम्मेदार नहीं मुझे लगता है कि पुराना संदर्भ भी बताना चाहिए। और जैसा मैंने पहले कहा है अखबारों ने इसे बहुत आम फैसले की तरह छापा है जबकि इतना साधारण और आसान मामला था तो इतना समय क्यों लगा?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।