लोकतंत्र में जनता विधायक या सांसद के तौर पर अपने प्रतिनिधि इसलिए चुनती है कि वो उसके सवालों और मुद्दों को संसद-विधानसभा में ऐसे उठाए कि उनका समाधान हो और लोकतंत्र ऐसे ही क्रियात्मक होता है। लेकिन हमको-आपको फिक्रमंद होना चाहिए कि विधानसभाओं की कार्यवाही, अब दिनों की जगह चंद घंटों में सिमट जाती है। लेकिन इस कार्यवाही पर होने वाला करोड़ों का खर्च भी हमारी ही जेब से जाता है। ये पिछले कुछ सालों में लगातार बढ़ा है लेकिन सत्तापक्ष इसको लेकर हमेशा विपक्ष पर अंगुली उठाता रहा है। ख़ासकर 2014 के बाद से हमने लगातार देखा है कि कैसे संसद के सदन ठप रहते हैं और केवल सरकार ही नहीं, मुख्यधारा का मीडिया भी सिर्फ और सिर्फ विपक्ष पर इसका दोष मढ़ देता है। ज़्यादा गंभीर बात ये है कि अब विधानसभाओं की स्थिति भी यही होती जा रही है।
पिछले दो सालों में कोरोना के कारण इस विधानसभा के सत्र बेहद कम अवधि के होने लगे हैं। हम बात कर रहे हैं, मध्य प्रदेश विधानसभा की। यहां पर कोविड प्रोटोकॉल का बहाना दिया जाएगा, कहा जाएगा कि सत्र कैसे करवाया जाए…कोविड फैलेगा तो किसकी ज़िम्मेदारी होगी और इस वजह से सत्र की अवधि? आप घंटों में गिन सकते हैं। आइए एक बार ये आंकड़े देख लेते हैं, जो कि लोकतंत्र में हमारे प्रतिनिधियों के यक़ीन को सामने नंगा कर के रख देते हैं;
2021 में मध्य प्रदेश विधानसभा का मानसून सत्र 4 दिनों के लिये बुलाया गया था, दो दिन बाद ही अनिश्चितकाल के लिये स्थगित कर दिया गया. दो दिनों में सदन में बमुश्किल 2 घंटे की कार्रवाई में छह विधेयक और अनुपूरक बजट शोर शराबे के बीच पारित हो गया. इसमें मध्यप्रदेश आबकारी (संशोधन) बिल भी था, जिसमें जहरीली शराब के सेवन से होने वाली मौतों से संबंधित मामलों में मृत्युदंड और आजीवन कारावास का प्रावधान है.
कब, और कितना लंबा सत्र?
जुलाई 2020 में शुरू हुआ सत्र, केवल 5 दिन चलता है
सितम्बर 2020 जब बिहार में चुनाव हो रहा था, 3 दिन का सत्र हुआ – जो 21 सितम्बर 2020 से 23 सितम्बर 2020 का था
दिसम्बर में शीतकालीन सत्र भी 3 दिन का ही रहा – 28 दिसम्बर 2020 से 30 दिसम्बर 2020 तक
बजट सत्र 22 फरवरी 2021 से 26 मार्च 2021 – यह भी समयावधि से पहले, 3 दिन में खत्म
09 अगस्त 2021 से 12 अगस्त 2021 – सिर्फ 2 दिन में खत्म
20 दिसम्बर 2021 से 24 दिसम्बर 2021 यहां भी चर्चा नहीं हुई – 5 दिन में समाप्त
बजट सत्र 7 मार्च 2022 से 25 मार्च 2022 – अभी चल रहा है
ऐसे में कई बार इस नाम भर की रह गई लोकतांत्रिक व्यवस्था में बगैर चर्चा के कानून बन रहे हैं। कानून बनाने का अधिकार विधायिका के पास है, लेकिन जब विधानसभा की कार्यवाही चंद घंटों में सिमट जाती है तो उस पर ठीक से चर्चा कैसे होती होगी? ऐसे में विधानसभा का औचित्य क्या रह जाएगा? पिछले कुछ सालों से मध्य प्रदेश विधानसभा में बनने वाले कानून इसलिए चिंता का विषय हो गए हैं कि इन्हें बनाने से पहले, सदन में कोई सार्थक चर्चा ही नहीं हो रही है.
आपका पैसा, नेता जी पर खर्च
विधानसभा की कार्रवाई पर हर घंटे 40 लाख रुपये होता है, और इसके अंदर बैठने वाले विधायकों को हर माह 1.10 लाख रुपये की सैलरी मिलती है। ये सब कुछ आपके टैक्स के पैसों से होता है। लेकिन इन विधायकों काम में की कोई रुचि नहीं, क्योंकि मध्य प्रदेश विधानसभा में तो कोविड काल से पहले से ही, यानी कि 2017 से कोई सत्र पूरा नहीं चला. 14वीं विधानसभा के दौरान सदन की कार्यवाही मध्य प्रदेश के संसदीय इतिहास में सबसे कम 130 दिन ही चली, इसमें भी 50 दिन हंगामे की भेंट चढ़ गए.
‘मध्य प्रदेश विधानसभा का सालाना बजट लगभग सौ करोड़ रुपये हैं. 15 करोड़ रुपये अलग-अलग अनुदानों के भी मान लें तो 85 करोड़ रुपये विधायकों के वेतन-भत्ते, सचिवालय के अधिकारियों-कर्मचारियों के वेतनभत्ते, बिजली बिल, पानी, साफ-सफाई पर खर्च होते हैं. पिछले 2 सालों की विधानसभा सत्र अवधि पर नजर डाले तो;
16 मार्च से प्रस्तावित सत्र सरकार बदलने के चलते सत्र 2 दिन का हो गया. 23-24 मार्च 2020 जिसमें इस सरकार ने शपथ ली और लॉकडाउन लग गया और काम समाप्त हो गया. इस दौरान आप कोरोना के नाम पर भी टैक्स देते गए लेकिन सरकार में बैठे लोग आपना मुख्य काम भूल गए. कोविड के कारण विधानसभा का सत्र न होना एक तार्किक कारण हो तो सकता था लेकिन इस बीच बहुत कुछ ऐसा हुआ कि सवाल तो उठने ही चाहिए;
- मध्य प्रदेश की ये ही सरकार, जिस वक्त अविश्वास प्रस्ताव के बाद सत्ता में आई – उसी दौरान कोविड प्रोटोकॉल्स के उल्लंघन को लेकर सवाल उठे लेकिन सारे प्रोटोकॉल ताक पर रख कर, विधानसभा में विधायकों का जमावड़ा हुआ, तस्वीरें ख़िंचाई गई और तब कोविड प्रोटोकॉल्स का कोई ख़्याल नहीं रखा गया.
- इसके बाद 27 सीटों पर उपचुनाव हुए, उनके लिए प्रचार हुआ और सारे कोविड प्रोटोकॉल्स की धज्जियां उड़ाकर ये सबकुछ हुआ.
- नई सरकार आने के बाद, सरकार के मंत्री और मुख्यमंत्री सभी तमाम ईवेंट्स में दिखाई दिए, वो भी कोविड काल के दौरान ही.
क्या विधानसभा की कार्यवाही, ऑनलाइन नहीं हो सकती?
कोविड काल ने दुनिया में एक आमूलचूल परिवर्तन किया. तमाम काम-मुलाक़ात-बैठकें, ऑनलाइन हुए. लेकिन हमारे प्रतिनिधियों और ख़ासकर सरकारों को प्रचार से लेकर राजनीतिक काम याद रहे, ऑनलाइन प्रचार भी हुआ, मीटिंग भी और रैलियां भी, उद्घाटन भी और एलान भी. लेकिन जनता ने जिस काम के लिए चुन कर भेजा, आख़िर वो काम ऑनलाइन क्यों नहीं हो सकता? इस बारे में अब गंभीर विचार की ज़रूरत है कि आख़िर संसद या विधानसभाओं का कार्रवाई – आपात स्थितियों में ऑनलाइन क्यों नहीं हो सकती है? आख़िर क्यों दो साल से अधिक समय तक सत्र टाले जाएंगे, जनता के सवाल अनसुने रह जाएंगे और सरकार मनमाने तरीके से काम करेगी? और ऐसे में लोकतंत्र का अर्थ क्या रह जाता है? वो भी मध्य प्रदेश की वो सरकार, जो कोरोना के सारे प्रोटोकॉल तोड़कर सत्ता पर आई थी…यानी कि सत्ता हासिल करने और उसके बाद ज़िम्मेदारी निभाने के बीच का फ़र्क साफ़ है!!
(सौरभ जैन, मध्य प्रदेश के युवा पत्रकार हैं और फिलहाल दिल्ली में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं)