टीवी चैनलों में अज्ञानता की अर्हता ने जिन लोगों के संपादक बनने का रास्ता पिछले कुछ वर्षों में आसान बनाया है, उनमें एक नाम सुमित अवस्थी का है। अवस्थी और समाचार चैनलों के बाकी प्रस्तोताओं के बीच एक बुनियादी अंतर है। वो ये, कि उनके अलावा बाकी लोग बोलने में कम से कम असहज महसूस नहीं करते। सुमित अवस्थी के मुंह खोलते ही अभिनेता जितेंद्र के तलफ्फुज़ की याद ताज़ा हो आती है। पता नहीं, बोलने में श्वसनक्रिया की कोई पैदायशी दिक्कत है या जबरन इस धंधे में धकेल दिए जाने का खौफ़, कि अवस्थी के मुंह से ‘हम तो पूछेंगे‘ सुनते ही मेरा मन कहता है- तुमसे तो न हो पाएगा।
ख़ैर, ये सब मज़ाक की बातें हैं। कुछ साल पहले तक अवस्थी पत्रकार हुआ करते थे। बनारस के उनके एक रिश्तेदार बताते थे कि वे ठीकठाक पढ़े-लिखे पत्रकार थे। उनके खानदान में भी पढ़े-लिखे लोग हैं। वे कम से कम औरों की तरह हवाबाज़ नहीं थे। बेशक पढ़ाई-लिखाई में वे औसत ही थे, तो टीवी चैनलों में औसत की अनिवार्य जरूरत के हिसाब से औसत पद पर भी बने हुए थे। फिर देश बदला। निज़ाम बदला और अवस्थी के अच्छे दिन आए। उन्हें बड़ी जिम्मेदारी दे दी गई। सबसे बड़े पूंजीपति के सबसे बदनाम चैनल में डिप्टी मैनेजिंग एडिटर का पद, जहां से पिछले कुछ साल में छंटनी के दो दौर चले हैं। सुमित अवस्थी का निजी कद हालांकि इन सब से बेदाग रहा, यह बात अलग है कि परदे पर जबरन चिल्लाने योग्य कंठ न होने के बावजूद वे ऐसा करते रहे और हर बार एकता कपूर के भर्राए हुए गले वाले जबरन युवा पिता की याद दिलाते रहे। अवस्थी का सौम्य चेहरा और उस पर चढ़ा शालीन चश्मा ‘हम तो पूछेंगे’ के ऐरोगेंस से मेल नहीं खाता है, लेकिन धंधा है कि जो न करवा दे।
अवस्थी कुछ भी हो सकते थे, लेकिन उन्हें ऐंकर नहीं होना चाहिए था। यह बात मुझे लंबे समय से महसूस होती रही है। इस श्रेणी में मनोरंजन भारती भी आते हैं, लेकिन वो तो बाबा हैं। कौन बोले। एक शाम पहले हालांकि ऐसा पहली बार अहसास हुआ कि अवस्थी दरअसल गलत जगह पर फंसे हुए हैं। उन्हें दरअसल पत्रकार ही नहीं होना था। यूनियन बैंक या सिंडिकेट बैंक के मैनेजर के पद पर वे ज्यादा शोभायमान हो सकते थे, लेकिन किस्मत का खेल देखिए कि परदे पर आने से पत्थर भी पारस बन जाता है। सो, बुधवार यानी 13 सितंबर की शाम जब अचानक दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के प्रांगण में उनका प्रवेश हुआ तो लगा कि जैसे श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा हुए दो दर्जन श्रद्धालुओं के बीच कोई महंत आ गया हो। पहले तो सबसे पीछे की कुर्सी पर उनकी विनम्र बैठाइश को श्रद्धालुओं ने स्वीकार नहीं किया। दबाव में वे आगे आकर बैठ गए। श्रद्धालुओं को यह भी रास नहीं आया, तो वे उन्हें मंच पर खींच लाए और सबसे दाहिने बैठा दिया।
संदर्भ स्पष्ट करने के लिए यह सवाल पूछना दिलचस्प हो सकता है कि मंच क्या था और आयोजन क्या था। दरअसल, कुछ दिन पहले बंगलुरु में एक पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मार के हत्या कर दी गई थी। उसके विरोध में इसी प्रेस क्लब में एक बड़ा जुटान हुआ था। उस जुटान पर सवाल उठे थे कि उसमें पत्रकारों से ज्यादा एक्टिविस्ट क्यों थे (वेदप्रताप वैदिक की गर्वोक्ति को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो एक्टिविस्ट का मतलब अपने यहां अनिवार्यत: वामपंथी प्रचारक से लगाया जाता है)। उसी जुटान के दौरान रिपब्लिक टीवी के किसी माइकवीर को जेएनयू की छात्रनेता रही शेहला राशिद ने डांट दिया था, जिसकी प्रतिक्रिया में पत्रकार बिरादरी के भीतर दो फाड़ देखने में आया। यह सब उन लोगों को नागवार गुज़रा था जो मूलत: वामपंथियों से नफ़रत करते हैं। इन लोगों की और भी पहचानें हैं: मसलन इनमें कुछ खुद को पत्रकार कहते हैं; कोई कहता है कि पत्रकार को एक्टिविस्ट नहीं होना चाहिए; किसी का मत है कि पत्रकार को विचारधारा से प्रेरित नहीं होना चाहिए; कोई कहता है कि गौरी लंकेश ही क्यों और छोटे-मोटे पत्रकारों पर भी बात होनी चाहिए; और ज्यादातर को शेहला राशिद वाला प्रकरण अप्रिय लगा था, जैसे कोई विदेशी आकर आपके वजूद पर ही सवाल उठा जाए। बावजूद इसके, इन दो दर्जन लोगों या पत्रकारों को जो एक सूत्र बांधता है, वह बुनियादी रूप से वामपंथियों से नफ़रत का सूत्र है।
तो इन्हें एक दिन अचानक लगा कि गौरी लंकेश को तो हाइजैक कर लिया गया। इन्हें लगा कि गौरी लंकेश के नाम पर मोदीविरोधी लोग राजनीति कर रहे हैं। फिर इन्होंने एक श्रद्धांजलि सभा बुलवाई और बैनर पर लिखा, ”श्रद्धांजलि शहीद पत्रकारों को”। कौन शहीद थे, उनके नाम कहीं नहीं थे। एक और वाक्य लिखा था, ”आइ एम फियरलेस” यानी ”मैं निर्भीक हूं”।
अच्छी बात है। पत्रकारों को निर्भीक होना ही चाहिए, लेकिन उसकी न्यूनतम पहचान यह है कि अपने शहीदों के नाम लेने में परहेज नहीं करना चाहिए। इतना तो कायदा बनता था कि बैनर पर गौरी लंकेश का नाम होता, लेकिन नहीं था। बुधवार को तीन बजे दिन के आसपास जब लोग प्रेस क्लब के लॉन में जुटना शुरू हुए, तो देखकर साफ़ लग रहा था कि कार्यक्रम करने के लिए कहीं ‘ऊपर’ से कहा गया है क्योंकि किसी को नहीं पता था कि किसे मंच पर बैठाना है और क्या बोलना है। दावा तो यह भी किया जा सकता है कि उन दो दर्जन में से किसी ने भी मौत से पहले गौरी लंकेश का नाम नहीं सुना होगा, लेकिन यह दावा एक्सक्लूसिव नहीं है क्योंकि लिबरलों के पूर्ववर्ती जुटान पर भी यह बात लागू हो सकती है। पिछले जुटान में भीड़ का बायस गौरी लंकेश के सरोकार और पक्ष से था जो समान विचार के लोगों को उनके अज्ञात नाम से जोड़ रहा था। यहां न साझा सरोकार था, न ही कोई पक्ष। यह अपने दुश्मन के बाप का पिंडदान करने जैसी कोई कार्रवाई जान पड़ती थी, जिस पर मोहल्लेवाले खुलकर हंस भी नहीं पाते, घाट जाना तो दूर रहा।
ऐसे में सुमित अवस्थी का अचानक घाट किनारे उपराना ताज़ी हवा के झोंके जैसा था। यह बात अब तक समझ नहीं आई है कि उस लघुजुटान में शुरुआत से ही बाईं कतार की पहली कुर्सी छेककर बैठे वरिष्ठ पत्रकार नरेंदर भंडारी को मंच पर क्यों नहीं बुलाया गया। बहरहाल, मंच सजा तो पता चला कि वहां बैठे चार लोगों में सबसे वरिष्ठ पत्रकार विजय क्रांति थे। विजय क्रांति के कई परिचय हैं। पे पत्रकार भी हैं, फोटोग्राफर भी, तिब्बत के विशेषज्ञ भी, आरएसएस के विश्व संवाद केंद्र से लेकर नारद पुरस्कार तक तमाम मंचों के सक्रिय सदस्य भी और इन सब से इतर, वे एस्सार कंपनी में प्रबंधकीय पद पर नौकरी कर चुके हैं जिसका जि़क्र फेसबुक पर उनकी प्रोफाइल में दर्ज है। विजय क्रांति ने श्रद्धांजलि देने के बजाय पिछले कार्यक्रम समेत शेहला राशिद वाले प्रकरण की आलोचना करने में पूरा अनुभव खर्च कर दिया। दरअसल, बैठक बुलाई भी इसीलिए गई थी, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं था।
संयोग नहीं है कि विजय क्रांति को इससे पहले वाले जुटान से सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि उसमें ईसाई धर्म प्रचारक संस्था कैरिटरास इंडिया के प्लेकार्ड क्यों दिख रहे थे। उन्होंने सवाल उठाया था कि प्रेस क्लब में ईसाई धर्म परिवर्तन करने वाले एजेंट क्यों मौजूद थे।
मंच पर बैठे बाकी तीन पत्रकारों को मैं नहीं जानता था। अगली बारी सुमित अवस्थी की थी।
जिज्ञासा ही थी कि वे क्या बोलेंगे। ईमानदारी की इंतेहा देखिए जब उन्होंने कह दिया कि वे बोलने से पहले गूगल पर खोज रहे थे कि इधर बीच कौन पत्रकार मारा गया है। विकीपीडिया के हवाले से उन्होंने कुछ नाम गिनवाए, जिनकी संख्या गौरी लंकेश समेत छह से आगे नहीं जा सकी। सार्वजनिक रूप से सक्रिय रहने वाला कोई भी हिंदी का पत्रकार इतने नाम अपनी उंगलियों पर लेकर चलता है, लेकिन सुमित अवस्थी को रियायत दी जा सकती है क्योंकि उनका काम केवल पूछना है, जवाब देना नहीं। धंधे की इसी आदत के चलते उन्होंने यहां भी एक सवाल उठा दिया। श्रद्धालुओं की भक्ति का आलम ये था कि वे गलत और फर्जी सवाल उठाते रहे लेकिन तालियां बजती रहीं। ये रहा उनके वक्तव्य का पूरा वीडियो:
सवाल शाहजहांपुर के मारे गए पत्रकार जगेंद्र सिंह के बारे में था और प्रेस क्लब व पत्रकारों को ही संबोधित था, ”…हम सब ने एक बार भी यहां इकट्ठा होकर कोशिश नहीं की कि जगेंद्र के लिए आवाज़ बनें और जगेंद्र के परिवार तक मदद पहुंचाएं। क्यूं? क्यूंकि वह छोटे अखबार का छोटा पत्रकार था जो फ्रीलांसिंग कर रहा था… हम गौरी लंकेश के लिए खड़े होते हैं… दिक्कत है हमारे अंदर… हम अपनी सहूलियतों को ढूंढते हैं।”
गजब का आत्मविश्वास था इस अज्ञानता में। उस वक्त प्रेस क्लब के गलियारे में खड़े जो पत्रकार यहां से मुलायम सिंह यादव के बंगले तक निकले मार्च और धरने में शामिल रहे थे, वे मंद-मंद मुस्का रहे थे। वह 20 जून 2015 की शाम थी जब प्रेस क्लब के दरवाज़े पर तमाम पत्रकार जगेंद्र सिंह की हत्या के विरोध में धरने पर बैठे थे और अंधेरा होते ही क्लब के पदाधिकारियों समेत तमाम लोग हाथ में प्लेकार्ड लिए मुलायम सिंह यादव के बंगले तक गए थे। वहां काफी देर तक भाषणबाज़ी हुई थी पत्रकारों ने उनके बंगले के भलानुमा फाटक पर प्लेकार्ड खोंस दिए थे। इसके बाद जंतर-मंतर पर पत्रकारों का एक विशाल धरना हुआ था जिसमें प्रेस क्लब के तमाम पदाधिकारी शामिल हुए थे। यही नहीं, क्लब की ओर से पत्रिका प्रकाशित की जाती है, उसमें भी जगेंद्र सिंह के मामले पर विरोध प्रदर्शन की तस्वीरें थीं। 20 और 21 जून के तमाम अखबारों में यह ख़बर चली थी।
क्या सुमित अवस्थी को माफ़ कर दिया जाए कि उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया से लेकर डीएनए तक कोई भी अख़बार 20 या 21 जून 2015 को नहीं पढ़ा? क्या उन्हें माफ़ कर दिया जाए कि जिस मसले पर वे प्रेस क्लब और अपनी पत्रकार बिरादरी को कठघरे में खउ़ा कर रहे हैं, उससे वे खुद अपडेट नहीं हैं? उन्होंने जगेंद्र सिंह का नाम लिया और कहा कि वे इस मसले पर कई शो चला चुके थे। स्टूडिया के भीतर शो चलाने और सड़क पर प्रदर्शन करने की अहमियत अपनी-अपनी है। उन्होंने जो किया वो ठीक किया, लेकिन जो नहीं किया या जिसके बारे में उन्हें नहीं पता, उस पर वे कैसे सवाल उठा सकते हैं। क्या सुमित अवस्थी इतने नादान हैं या मूर्ख या जडि़यल? क्या उनके मोबाइल का गूगल जगेंद्र सिंह प्लस प्रेस क्लब लिखने पर इस ख़बर को नहीं दिखाता?
यह समस्या उन्हीं के साथ नहीं है। हिंदी के पत्रकारों में पता नहीं कौन सी ग्रंथि काम करती है कि वे प्रेस क्लब आदि संस्थाओं की कार्यवाहियों को एक अभिजात्य ढांचे में बांधकर देखते हैं। यह समस्या आनंद वर्धन की भी है, जिन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री जैसी वेबसाइट पर 19 जून, 2017 को एक अनावश्यक किस्म का लेख लिखकर यह जताने की कोशिश की कि प्रेस क्लब के ”रोमांटिक ग्लैडिएटरों” को स्थानीय पत्रकारों की फि़क्र नहीं है। उनका उदाहरण बिहार में मारे गए पत्रकार राजदेव रंजन थे।
अपडेट रहने के लिए प्रेस क्लब आने की ज़रूरत नहीं होती। सड़क पर निकलने की, आहर झांकने की और पढ़ने-लिखने की जरूरत होती है। आनंद वर्धन और सुमित अवस्थी दोनों ही कूपमंडूकता के अप्रतिम उदाहरण हैं। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने 13 मई 2016 को बिहार के राजदेव रंजन और झारखण्ड के टीवी रिपोर्टर अखिलेश प्रताप सिंह की हत्याओं पर एक बयान जारी किया था जिसमें हत्यारों को सज़ा दिलवाने की मांग की गई थी और देश में स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए माहौल कायम करने की बात कही गई थी। यह बयान अख़बारों में छपा। आइए, उनकी सुविधा के लिए मान लेते हैं कि आनंद वर्धन और सुमित अवस्थी इंडियन एक्सप्रेस अख़बार नहीं पढ़ते।
मुझे याद नहीं पड़ता कि देश में कोई पत्रकार मारा गया हो या उस पर हमला हुआ हो या फिर वह जेल गया हो या उसे धमकाया गया हो अथवा नौकरी से जबरन निकाला गया हो, ऐसा कौन सा मामला रहा जो वर्धन के शब्दों में दिल्ली के ”रोमांटिक ग्लैडिएटरों” ने प्रेस क्लब में बीते कुछ वर्षों में नहीं उठाया हो। सुमित अवस्थी जैसे लोग आखिर कहना क्या चाहते हैं, जब वे अपने सफेद अज्ञान के बाद एक हारा हुआ वाक्य कहते हैं, ”हम सब के अंदर दम नहीं बचा है… हम सब फुंक गए हैं… हम सब कुछ करना चाहते ही नहीं हैं। हम नहीं बदलेंगे तो कुछ नहीं बदलेगा… तो पहले खुद बदलें, फिर किसी को बदलने की बात करें।” यह स्वीकारोक्ति मानी जाए? टीवी का संपादक इतना उदार तो नहीं होता!
इसी चर्चा के बीच गलियारे में खड़े पत्रकारों के बीच से आवाज़ आती है, ”पहले इससे पूछो कि कितने दिन बाद अपने स्टूडियो से बाहर निकला है।” ठहाका लगता है। इस बीच मैंने एक सुझाव भी दिया कि क्लब को आधिकारिक रूप से जाकर सुमित के झूठे आरोप का खंडन करना चाहिए, फिर मुझे लगा कि आयोजन निपटते ही सुमित अवस्थी को मैं खुद ये बात बता दूंगा ताकि वे अपडेट हो जाएं। जमावड़ा उठा, तो ऐसे उठा गोया न कोई बात हुई हो न कोई नतीजा। बस औपचारिकता निभाने का मामला रहा हो। कुल जमा आधे घंटे के इस ‘निष्कलंक’ आयोजन पर कोई भी टिप्पणी करना या किसी को भी टोकना अपना ही सिर दीवार पर दे मारने जैसा था। सो मैंने सुमित अवस्थी को छेड़ा ही नहीं। वे अपने चाहने वालों के बीच घिरे रहे।
सुमित अवस्थी के अज्ञानतापूर्ण दम्भ पर मुझे कतई गुस्सा नहीं आया, बल्कि एक किस्म का अफ़सोस हुआ। तरस आया कि ये आदमी क्या बोल रहा है, इसे पता ही नहीं है। जाहिर है, टीवी के परदे पर भी यह इसी अज्ञानता की खाता है। मालिक भी कितना उदार है कि ऐसे लोगों को रखे हुए है। दर्शक भी कितने उदार हैं तो इस आदमी को टीआरपी देते हैं। सोचिए, सुमित इस कार्यक्रम से जब लौट रहे होंगे तब मन में कितना खुश होंगे… कि आज तो मैदान मार लिया। स्टूडियो ही नहीं, सार्वजनिक मंच को भी लूट लिया। दोगुनी ऊर्जा से उन्होंने उस शाम स्क्रीन पर कहा होगा, ”हम तो पूछेंगे।”
अब क्या कहा जाए। सिवाय इसके, कि ”हे परमपिता, उन्हें माफ़ करना क्योंकि वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं” – ईसा मसीह के इस कथन का सही संदर्भ इतने साल बाद समझ में आ रहा है।