मुख्य धारा की मीडिया संस्थानों में काम करते हुये जनहित के मुद्दों पर ईमानदारी से काम न कर पाने और शासक वर्ग के हितों के संरक्षण के लिये काम करने की मजबूरी से इलेक्ट्रानिक ही नहीं प्रिन्ट मीडिया के पत्रकारों में भी एक घुटन एक हताशा महसूस की जा सकती है। व्यापक आबादी में इसी मीडिया का प्रभाव है। पत्रकारिता के तकनीकी और व्यावहारिक पक्ष की बारीकियों को जानने के लिये बहुतायत नवागंतुकों के लिये यह प्राथमिक मंच है । अत: ‘मीडिया खराब भले ही हो लेकिन इसमें कुछ गुंजाइश अभी बाकी है।’ पर नितिन ठाकुर के लेख से मैं सहमत हूं।पत्रकारिता की वर्तमान दुर्दशा के लिये मीडिया संस्थानों की कार्यप्रणाली के आड़ में पत्रकारों की भूमिका के पहलू को नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं। शहनवाज ने अपने लेख में ‘गोदी मीडिया’ के जिन पत्रकारों और उनकी प्रवृत्तियों का जिक्र किया है। उनकी मौजूदगी और प्रभाव से कौन इन्कार कर सकता है। उनका यह कहना बिलकुल ठीक है कि ‘पत्रकार के साथ अभद्रता हमेशा उनके काम के कारण नहीं होती, कई बार वह इसलिये भी दुत्कारे जाते हैं। क्योंकि पत्रकारिता के आड़ में अजेन्डा सेट कर रहे होते हैं।’ हालाकि गोदी मीडिया के अलावा वह दूसरे पहलू की चर्चा नहीं करते हैं। वह कोई उम्मीद नहीं दिखाते कोई रास्ता नहीं सूझाते।
पत्रकार बने रहना और नौकरी करना दो अलग चीजें हैं, अपने लेख में यही कहते हुये संजय कुमार सिंह हम युवाओं को सलाह दे रहे हैं कि ‘बहुत भावुक न हों। नौकरी करें। निष्पक्ष पत्रकारिता का भारी चस्का है तो जान लीजिये सम्भव नहीं।’ तो हम क्या करें संजय जी, हाथ पर हाथ धरे इस तमाशे का हिस्सा बन जायें और पत्रकारिता की दुर्दशा पर छाती पीटते रहें। आप को रास्ता भी बताना चाहिये था। सबकुछ देखकर भी चुप रहने की लिये बहुत मोटी ‘चमड़ी’ की जरूरत है और हमसे यह उम्मीद मत कीजिये।
मीडिया संस्थान में कोई पूंजीपति मुख्यत: मुनाफा कमाने के उद्देश्य से ही निवेश करता है। जहां खबरें उत्पाद होती हैं और पत्रकार खबरों का सेल्समैन। उत्पाद की समाग्री क्रय क्षमता वाले उपभोक्ता वर्ग को लक्षित कर तैयार की जाती है। विभिन्न जनसंचार माध्यमों के उपभोक्ताओं की संख्या अलग-अलग है। कहने का आशय है जिसके पास क्रय क्षमता नहीं बाजार के नियमों से बंधी मीडिया में उसके लिये स्पेस नहीं है। दुर्भाग्य से देश की बहुसंख्यक आबादी मीडिया के लिये इसी दायरे में आती है जिसके जीवन के हकीकत को सामने लाने को ‘नकारात्मक पत्रकारिता’ का तमगा दे दिया गया है। इस तरह देश की बहुसंख्यक आबादी के जीवन से मीडिया की पर्याप्त दूरी बनी रहती है।
पत्रकारिता पर चर्चा करते हुये अक्सर इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि तथाकथित चौथा स्तम्भ शासक वर्ग की नीतियों को जायज ठहराते हुये जनता के बीच उसके पक्ष में सहमति का निर्माण करता है। यह तथाकथित चौथा स्तम्भ शासक वर्ग का एक उपकरण हैं एक औजार है। यदि हम जनता के पक्ष से चीजों को देखते हैं तो इससे आगे देखना होगा। शासन की नीतियों से पैदा हुये हालात पर भी एक बार गौर कर लिया जाये। भारत में 1 फीसदी लोग 58 फीसदी सम्पत्ति के मालिक हैं। देश की सबसे बड़ी सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनी के मुख्य अधिकारी की कमाई औसत कर्मचारी से 416 गुना ज्यादा है। अपने देश में सम्पत्ति में असमानता दुनिया में सबसे अधिक है। पिछले दो दशकों में 10 फीसदी अमीर लोगों का देश की आमदनी में 15 फीसदी हिस्सा बढ़ गया है। भयंकर असमानता के अतिरिक्त भूख कुपोषण से हो रही मौतों, स्वास्थ्य-शिक्षा, बेरोजगारी, मजदूरों-किसानों के हालात की चर्चा को हम फिलहाल स्थगित करते हैं।
इस पृष्ठभूमि में निष्पक्षता की बात करना भयंकर असमानता को सहमति देना होगा। आपको पक्ष चुनना होगा। मुख्यधारा की मीडिया में नौकरी करते हुये वास्तविक मुद्दों पर काम करना होगा। नये पत्रकारों को प्रशिक्षित करना होगा और मीडिया के समानान्तर विकल्प के निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा बनना होगा। बहुत से पत्रकार इस दिशा में शुरुआत कर चुके हैं। आज बड़ी संख्या में पत्रकार सोशल मीडिया पर खुले तौर पर अपने विचार रख रहे हैं। इसे संगठित रूप देकर जनपक्षधर पत्रकारों को एक मंच पर लाने का प्रयास करना होगा।
जनहित में पत्रकारिता की वकालत करने वाले पत्रकार न तो सारा दोष संस्थानों पर मढ़ कर बच सकते हैं और ना ही गोदी मीडिया की निर्लज्जता और दुष्परिणामों की चर्चा करके। उन्हें जनपक्षधर पत्रकारिता के उदाहरण पेश करने होंगे। साथ ही ‘निष्पक्ष’ रहने की सलाह से भी बचना होगा।
सत्येंद्र सार्थक
(प्रशिक्षु पत्रकार, न्यूज फॉक्स, गोरखपुर)




















