पहला पन्ना: सरकार के पास पैसे नहीं,अख़बारों के पास सवाल नहीं, ख़बर है-वसूली बढ़ी! 


अगर सरकार की कमाई कम हुई है तो इसका कारण नोटबंदी और फिर जीएसटी के कारण रोजगार और काम धंधे बंद होना भी होगा ही। यही नहीं सरकार हजारों एनजीओ, ट्रस्ट और कंपनियां बंद करवा चुकी है। ऐसे में राजस्व कम होना स्वभाविक है। विदेश से चंदा लेना भी मुश्किल हो गया है ऐसे में आर्थिक संकट की यह स्थिति सरकार की ही बनाई हुई है और धन बांटने वाली योजनाएं भी चल रही हैं। लेकिन सरकार का अपना अंदाज है और उसपर टीका-टिप्पणी न करके अपना अस्तित्व बचाए रखने का अखबारों का भी अलग अंदाज है।


संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


आज इंडियन एक्सप्रेस को छोड़कर बाकी अखबारों में एक खबर प्रमुखता से है जो बताती है कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि कोविड-19 से मरने वालों के लिए बड़े पैमाने पर एक्सग्रेशिया धनराशि के वितरण से देश की आर्थिक स्थिति प्रभावित होगी। मुझे लगता है कि इसमें कुछ नया नहीं है और देश की आर्थिक स्थिति कई अन्य कारणों से प्रभावित हुई है लेकिन उसपर ध्यान नहीं दिया गया है और उससे संबंधित सलाह भी नहीं मानी जा रही है। देश में जनता की चुनी हुई सरकार मनमानी करने के लिए नहीं, जनता की सेवा करने के लिए होती है। और जनता की सेवा के मामले में यह सरकार सीधे कह रही है वह ऐसा नहीं करेगी या नहीं कर सकती है (इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार खबर नहीं छापें या अंदर के पन्ने पर छापें वह अलग बात है) पर यह पूछने वाला कोई नहीं है कि वह क्या कर सकती है। जनता, कॉरपोरेट और विदेशी दानदाताओं के पैसे पीएम केयर्स में रखने और उसमें पारदर्शिता नहीं होने के बावजूद सरकार से कोई पूछ नहीं रहा है कि आखिर वे पैसे किसलिए हैं और खर्च क्यों नहीं किए जा रहे हैं या कब किए जाएंगे। घोषित योजनाओं से संबंधित जो विवरण मांगे गए वे दिए गए या नहीं।  

खबर यह नहीं है कि सरकार के पास पैसे नहीं हैं और सरकार से स्वीकार कर रही है। कह रही है कि महामारी नहीं रोक पाने, इलाज की व्यवस्था नहीं कर पाने, ऑक्सीजन की कमी या ऐसी कई लापरवाहियों या व्यवस्थाओं के कारण मर जाने वालों और उनके परिवार के प्रति वह अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं मानती या पूरी नहीं कर सकती है। खबर यह है कि एक अखबार अगर यह खबर नहीं छापकर सरकार का बचाव कर रहा है (या महत्वपूर्ण नहीं मानता है) तो दूसरा कोई सवाल नहीं उठा रहा है और सूचना को नुकसानदेह तथ्यों से बचाकर परोस दे रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के पास पैसे नहीं हैं क्योंकि उसने  कमाने पर ध्यान दिया,  बचाने पर और नाजनता के कमाने की व्यवस्था की। नाली के गै से चूल्हा जल जाएगा या पकौड़े बेचना भी रोजगार है, कहने भर से लोगों को काम नहीं मिल जाता है। पर सरकार ने इससे ऊपर या अलग जो किया है उसका कोई फायदा दिख नहीं रहा है और ना सरकार बता रही है। जाहिर है उसकी व्यवस्था फेल है। उसकी प्राथमिकताएं गलत हैं। पर कोई अखबार (या टेलीविजन चैनल) इसकी चर्चा नहीं कर रहे हैं। जनता अगर नहीं समझ रही है तो उसे समझाना किसका काम है?   

अव्वल तो इस तरह की सहायता या कृपा पूर्वक किया जाने वाला भुगतान बिना मांगे ही किया जाना चाहिए और पहले ऐसे भुगतान किए जाते रहे हैं। सरकार रेल दुर्घटनाओं और सड़क हादसों में मरने वालों को भी एक्सग्रेशिया धन राशि देती रही है। बाद में रेल यात्रियों का बीमा कराया जाने लगा और सरकार इस काम से मुक्त हो गई तथा बीमा कंपनियों की कमाई हुई क्योंकि भुगतान नहीं के बराबर करना पड़ा। बीमा कराने वाली इस सरकार ने बहुप्रचारित जन धन खाते खुलवाए और खाता धारकों की बीमा करने की भी व्यवस्था की। कहने की जरूरत नहीं है कि मरने वालों में वैसे बहुत सारे लोग होंगे। उनके भुगतान की क्या व्यवस्था है? इस बारे में आपने कभी कहीं कुछ सुना? किसी को भुगतान मिलने की जानकारी है? मैंने तो नहीं सुना जबकि इस योजना का प्रचार मुझे याद है। सरकार अगर हर मरने वालों को एक्सग्रेशिया नहीं दे सकती है तो बीमा से मिलने वाली राशि दिलवाने की व्यवस्था तो करनी ही चाहिए। पर ऐसी किसी विशेष योजना की जानकारी मुझे नहीं है। सरकार को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता, समर्थकों के नाराज होने का डर होता तो सीधेसीधे किसी को भी एक्सग्रेशिया देने से इनकार करने की बजाय यह बताती कि इन लोगों को बीमा के पैसे दिलाए जा रहे हैं और ऐसे लोगों से कितने प्रतिशत मरने वाले कवर हो जाएंगे। पर ना सरकार को ऐसी कोई चिन्ता है और ना ही प्रचारक ऐसी कोई योजना बता रहे हैं। भुगतान वगैरह तो बहुत बाद की बात है।  

आप जानते हैं कि कोविड से मरने वालों में बहुत सारे लोग नौकरी पर थे यानी अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए उनकी मौत हुई। इसीलिए उन्हें योद्धा कहा गया था। उनके लिए फूल बरसाए गए थे। पर मरने वालों के लिए कोई सहायता नहीं। अगर सरकार कहे कि अस्पताल के कर्मचारियों को तो यह जोखिम रहता ही है और वे किसी एक्सग्रेशिया के हकदार नहीं है तो बहुत सारे लोग कोविड से संबंधित दूसरे काम करतेकरवाते हुए और इसमें चुनाव भी शामिल है, मरे हैं। उनके लिए भी सरकार कुछ नहीं कर रही है। यह वही सरकार है जो कह रही थी कि विदेश में भारतीयों का इतना काला धन है कि वापस लाया जाए तो हर किसी को 15 लाख मिलेंगे। ठीक है कि चुनाव जीतने की खुशी में उसे भुला दिया गया लेकिन अब जरूरत है तो उस बारे में भी सोचा जाना चाहिए। पर ना कोई पूछने वाला है ना बताने वाला। उल्टे खबर आई कि विदेश में रखा काला धन और बढ़ गया है। सरकार जवाब देने की बजाय उसे गलत बताने वाली खबर छपवाने में व्यस्त है। किसी घटना का वीडियो बनाने के लिए  तो मुकदमा हो सकता है पर विदेश में जमा काला धन बढ़ गयाऐसी गलत खबर देने वालों के खिलाफ किसी कार्रवाई की खबर नहीं है। पर सरकार यह जरूर कह रही है खबर गलत है। सवाल कोई नहीं है। 

अकेले, टेलीग्राफ ने (पहले पन्ने पर) खबर और फोटो छाप कर बताया है कि मुफ्त में लगने वाले टीकाकरण के लिए मनती देवी को किस हाल में, बगैर किसी साधन के नदी पार कर टीका साथ लेकर जाना और लगाना है। इस तरह, सरकार खुद तो जनता की सेवा कर नहीं पा रही है सरकारी कर्मचारियों की जान मुसीबत में डाल रही है और उनके लिए भी मुआवजे की व्यवस्था नहीं है। ज्यादातर अखबारों में लोगों की पीड़ा नहीं है। कोविड से मरने वालों को चार लाख रुपए का एक्सग्रेशिया देने की मांग करने वाली याचिका पर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है उसकी खबर देते हुए टेलीग्राफ ने लिखा है, “यह भी नोट किया जाना चाहिए कि एक्सग्रेशिया शब्द खुद ही कहता है वह कोई कानूनी हक नहीं है।” प जीने और इलाज का हक तो कानूनी है, उसकी भरपाई कहां हुई और एक्सग्रेशिया का भुगतान शायद इसीलिए होता रहा है परपीएम केयर्सके नाम पर सरकारी खजाने के समानांतर खजाना बटोरने वालों में देखभाल और सुविधा देने की मानसिकता कहां से आएगी?   

खबर के अनुसार, शपथ पत्र में कहा गया है कि राज्य और केंद्र सरकार की वित्तीय हालत बहुत तनाव में है क्योंकि कर राजस्व में कटौती हो गई है और स्वास्थ्य खर्चों में वृद्धि हुई है। मुझे नहीं पता यह खर्च कितना ज्यादा है पर तथ्य यह भी है कि पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स 50 प्रतिशत से ज्यादा है और जीएसटी या आयकर से राजस्व वसूली बढ़ रही हैऐसी खबरें छपती रहती हैं। अगर सरकार की कमाई कम हुई है तो इसका कारण नोटबंदी और फिर जीएसटी के कारण रोजगार और काम धंधे बंद होना भी होगा ही। यही नहीं सरकार हजारों एनजीओ, ट्रस्ट और कंपनियां बंद करवा चुकी है। ऐसे में राजस्व कम होना स्वभाविक है। विदेश से चंदा लेना भी मुश्किल हो गया है ऐसे में आर्थिक संकट की यह स्थिति सरकार की ही बनाई हुई है और धन बांटने वाली योजनाएं भी चल रही हैं। लेकिन सरकार का अपना अंदाज है और उसपर टीकाटिप्पणी करके अपना अस्तित्व बचाए रखने का अखबारों का भी अलग अंदाज है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।