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आज सभी अखबारों की लीड अलग है और एक खबर दो अखबारों में लीड नहीं है। ऐसे मौके पर कुछ दिलचस्प खबरें निकल आती हैं। और ऐसी ही खबरों में एक खबर है, “बंगाल की राजनीति ने पूरा एक चक्कर लगा लिया।“ इसमें बताया गया है कि चुनाव से पहले अगर तृणमूल के लोग भाजपा में शामिल हो रहे थे तो अब तृणमूल की तरफ दौड़ जारी है। भाजपा अपने लोगों को साथ रखने की कोशिश में संघर्ष कर रही है। जाहिर है यह खबर किसी और अखबार में पहले पन्ने पर नहीं है। इससे लगता है कि देर–सबेर सब पहले जैसा हो जाएगा पर जो नुकसान हो चुका है वह कम नहीं है। इनमें सबसे बड़ी खबर है, कोरोना से मरने वालों की संख्या 2,99,266 हो गई है। यानी तीन लाख का निशान छूने वाला है। अब तक हम आगे निकल चुके होंगे। मुझे लगता है कि मरने वालों की संख्या दो लाख से तीन लाख होने में बहुत कम समय लगा। आज कोई खबर नहीं थी तो इसपर खबर होनी चाहिए थी। पर यह खबर जनसत्ता में ही दिखी। अखबार जब सत्ता विरोधी होते थे तो ऐसे मौके (तीन लाख मौतें तो बहुत ज्यादा हैं) पर खिंचाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती थी। लेकिन अब देखिए।
एक महामारी ढेरों त्रासदियांँ
खबरों के आधार पर सरकार के काम–काज का विश्लेषण भी अखबारों और उनके संपादकों का ही काम है। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम यह काम बखूबी कर रहे हैं। अपने नियमित साप्ताहिक कॉलम में आज उन्होंने उदाहरण देकर बताया है कि इस सरकार की कार्यशैली से ऐसी स्थितियां बन गई हैं कि बंगाल में किसी केंद्रीय मंत्री को गिरफ्तार कर लिया जाए तब भी कहा जा सकेगा कि कानून अपना काम कर रहा है पर वह संघवाद की त्रासदी होगी। न्यूजीलैंड और अमेरिका के साथ ब्रिटेन और यूरोपीय देशों का उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है, इन सभी उदाहरणों में जो सबसे बड़ी समानता देखने को मिलती है, वह नेतृत्त्व की है। बाकी दूसरी खूबियां भी हैं जैसे– नम्रता, पारदर्शिता, दक्षता और करुणा। भारत में ये पांचों नदारद हैं। कोविड के अलावा हम दूसरी त्रासदियां भी झेल रहे हैं। गुजरात में मौतों की सरकारी संख्या और मृत्यु प्रमाणपत्र की संख्या का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा है कि इस मामले में सच्चाई मारी गई। सेंट्रल विस्टा पर केंद्र सरकार की जिद्द के मद्देनजर उन्होंने कहा है कि यह करुणा की त्रासदी है। टीके की कमी और अन्य विवाद को उन्होंने कहा है कि यह साख की त्रासदी है। बीवी श्रीनिवास से पूछताछ को उन्होंने कानून के शासन की त्रासदी कहा है और अंत में तृणमूल के मंत्रियों की गिरफ्तारी को संघवाद की त्रासदी कहा है। नेतृत्व की कहानी तो आप जानते ही हैं।
ऐसे में अखबार जो कर रहे हैं और पत्रकारिता के नाम पर जो वह रहा है वह पत्रकारिता की त्रासदी है। द हिन्दू में अगर तृणमूल की तरफ झुकते भाजपाइयों की खबर है तो इंडियन एक्सप्रेस में इसका और गंभीर या इसके आगे की स्थिति का वर्णन है। इस खबर के अनुसार जनता की नाराजगी का सामना कर रही भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा है, जुड़िए, बाहर निकलिए और कल्याण पर फोकस कीजिए। कहने की जरूरत नहीं है कि महामारी के कारण तो जो हुआ वह हुआ ही है, ज्यादा नुकसान भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के कारण है। और इसका पता इंडियन एक्सप्रेस की ही दूसरी खबर से लगता है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरन ने कहा है, कोविड-19 एक राष्ट्रीय समस्या है पर राज्यों को खुद जूझने के लिए छोड़ दिया गया है। इस बीच केरल में विधानसभा चुनाव से पहले हाईवे पर 3.5 करोड़ रुपए की लूट का एक मामला है। पुलिस इसमें भाजपा नेताओं से पूछताछ कर रही है। सत्तारूढ़ वाम मोर्चे ने आरोप लगाया है कि यह स्थानीय भाजपा नेताओं का नाटक है चुनाव फंड के पैसों की बंदरबांट का मामला है। मैं नहीं जानता इसमें कितनी सच्चाई है पर यह अलग चाल चरित्र और चेहरे वाली पार्टी से संबंधित ऐसी खबर है जो अमूमन अखबारों में छिट–पुट छपती है। कोई गंभीरता से इनका विश्लेषण या फॉलो अप नहीं करता।
केरल के मुख्यमंत्री ने अच्छा काम करने वाली मंत्री को इसबार मंत्री नहीं बनाया यह राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के काम और केरल में मंत्री नहीं बनाई गई पूर्व मंत्री के काम या कार्यशैली की कोई तुलना नहीं है। किसी एक अखबार ने कहीं किया हो सकता है लेकिन यह तुलना वैसे चर्चा में नहीं हैं जैसे मंत्री नहीं बनाने की चर्चा रही। प्रचार को खबर मान लेने के इस दौर में टीकोत्सव तो शुरुआत में ही मना लिया गया और अब जब टीका खत्म है, टीका केंद्र बंद करने पड़ रहे हैं, दिल्ली के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को एसओएस भेज रहे हैं तो यह आज की सबसे बड़ी खबर सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया में है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने पूर्वी तट पर आने वाले तूफान की खबर को लीड बनाया है। इंडियन एक्सप्रेस ने टीके से संबंधित भ्रम और दूसरी खुराक की जरूरत से संबंधित स्पष्टीकरण को लीड बनाया है और ब्रिटिश सरकार के हवाले से कहा है कि भारत में बेहतर सुरक्षा के लिए दो खुराक जरूरी है। आप कह सकते हैं कि यह खबर भी जरूरी है लेकिन टीके की कमी पर दिल्ली के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को एसओएस भेजा – यह दिल्ली के अखबार में पहले पन्ने पर नहीं है।
कहने की जरूरत नहीं है कि इसी के बदले केरल भाजपा और भाजपा अध्यक्ष की खबर पहले पन्ने पर है और सारी खबरें पहले पन्ने पर हो नहीं सकतीं। लेकिन चयन भी कुछ होता है। और इसी चयन में एक और खबर है, मांग अभी भी ज्यादा है पर ऑक्सीजन संकट कम होने का पहला संकेत है। निश्चित रूप से यह सकारात्मक खबरों की श्रृंखला में बहुत बड़ी खबर है। हालांकि एक जैसी खबरें एक साथ छापने के सिद्धांत के अनुसार टीके की दो खुराक वाली खबर के साथ यहां छपना चाहिए था कि भारत में तो अभी पहली ही खुराक के लाले पड़े हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी खबरों से निराशा फैल सकती है लेकिन सरकार पर दबाव भी पड़ता है और जब लोग मर रहे हैं तो सैकड़ों लोगों के मरने और महीने भर बाद यह बताना अब ऑक्सीजन की कमी है क्या मतलब रखता है। आखिर यह संकट कितने दिन चलना चाहिए था? अस्पतालों में जगह नहीं, ऑक्सीजन की कमी, दवाइयों की कमी, टीके की कमी, नौकरी नहीं, सरकारी सहायता नहीं और स्वास्थ्य बीमा योजना पर कान फाड़ू चुप्पी।
द हिन्दू में लीड है, टीपीआर (टेस्टपॉजिटिविटी रेट) कम होकर 14.2 प्रतिशत रह गया है। यानी 100 जांच में सिर्फ 14 लोग संक्रमित पाए जा रहे हैं। यह अच्छी और पॉजिटिव खबर है। लेकिन यह भी सभी अखबारों में नहीं है। वैसे यह जरूरी नहीं है कि कोई खबर सभी अखबार में हो पर अमूमन बड़ी खबरें सभी अखबारों में समान प्रमुखता पाती हैं। लेकिन कोरोना से संबंधित खबरें जो सरकार की छवि के खिलाफ हों रह जाती हैं। आज खबर नहीं है तो किन खबरों को महत्व दिया गया है वही बताना चाह रहा हूं। हिन्दू में दूसरी खबर है, आठ लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूरों ने दिल्ली छोड़ी। और वे सरकारी बसों से गए इसलिए उनकी गिनती हो पाई। और सरकारी बसों से गए तो व्यवस्था अच्छी थी ही। ऐसा नहीं है कि द हिन्दू हमेशा सरकारी खबरें ही छापता है पर आज की बात अलग है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।