टीके पर सरकार की नीति नाकाम रही। अखबार खुल कर तो नहीं बता रहे लेकिन छिपा भी नहीं पा रहे हैं। यह एक दिलचस्प स्थिति है। जनहित की बात नहीं करने वाले अब अपना हित भी नहीं पूरा कर पा रहे हैं। जब कहा जा रहा था कि सरकार को चिकित्सा सुविधा दुरुस्त करना चाहिए तो नहीं सुनने वाले लोग अब अपनी और अपनों की चिकित्सा के लिए परेशान हैं। मर भी रहे हैं। उस पर फिर कभी। अभी तो पहला पन्ना ही। शुक्रवार को मैंने यहीं लिखा था, आज फिर लीड है कि टीके शायद नहीं लग पाएंगे। राज्य सरकारें फैसला नहीं कर पा रही हैं। बिना कहे यह कहने की कोशिश की जा रही है कि राज्य सरकारें भी भाजपा की होती तो ….। इंडियन एक्सप्रेस का 20 अप्रैल का पहला पन्ना देखिए।
इसमें एक प्रचारात्मक खबर को इतना महत्व दिया गया है और यह खबर 10 दिन बाद ही व्यर्थ साबित हो गई। मुख्य शीर्षक से ऊपर लाल रंग में लिखा (फ्लैग शीर्षक) है, प्रधानमंत्री की बैठक के बाद निर्णय। और निर्णय यही था कि इस मामले में राज्य निर्णय ले सकते हैं। राज्यों के लिए टीके की कीमत, धन की उपलब्धता के साथ टीके के स्टॉक का पता नहीं था लेकिन फैसला सुना दिया गया था। 30 अप्रैल को ही मैंने यह भी लिखा था, आज इंडियन एक्सप्रेस में उसी खबर का ‘खंडन’ लीड के रूप में छपा है। पहले पन्ने पर जो कुछ लिखा है उसमें प्रधानमंत्री या नरेन्द्र मोदी का नाम कहीं नहीं है। केंद्र यानी सेंटर शब्द जरूर आया है।
स्पष्ट है एक मई से सबको टीका लगाने के बहुप्रचारित तीसरे चरण की शुरुआत नई हो पाई। यह घोषणा बगैर किसी तैयारी के थी और फ्लॉप रही। कोरोना से जो हालत है वह तो है ही। इसके बावजूद, टीकाकरण पर कोई खबर नहीं है। दूसरी ओर, अदालतों में डांट पड़ रही है। सरकार के पास जवाब नहीं है। ऐसे में आज जब कोई सर्व सम्मत लीड नहीं है तो ज्यादातर लीड अदालतों की टिप्पणियां हैं। अकेले द हिन्दू ने आज तीसरे चरण का टीकाकरण टाल दिए जाने की खबर को लीड बनाया है। द टेलीग्राफ रोज की तरह अलग है। टीकाकरण से संबंधित खबरों पर कल बात हो चुकी है। आज सुप्रीम कोर्ट आदेशों से संबंधित शीर्षक इस प्रकार हैं :
- हिन्दुस्तान टाइम्स – हम भी रोना सुनते हैं सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कोविड प्लान को ओवरहॉल करने के लिए कहा।
- टाइम्स ऑफ इंडिया – सोशल मीडिया पर सहायता मांगने वालों के खिलाफ मामले दर्ज न हों सुप्रीम कोर्ट पुलिस से
- इंडियन एक्सप्रेस – टीके की दो दर क्यों …. आदि आदि
द टेलीग्राफ – रायटर की एक फोटो सात कॉलम में छपी है। इसका शीर्षक है, “नहीं, सरकार नाकाम हुई है। हम सब नाकाम रहे हैं : दिल्ली हाईकोर्ट“। कैप्शन के अनुसार दिल्ली के एक श्मशान में कोविड से मार गए अपने किसी रिश्तेदार का शव देखकर यह महिला बेहोश हो गई। इसके साथ खबर यह है कि दिल्ली हाईकोर्ट में एक परिवार तीन दिन से आईसीयू बेड दिलाने की अपील कर रहा था और कार्यवाही चल रही थी तभी तभी खंडपीठ को यह सूचना दी गई कि मरीज नहीं रहा। अदालत यह टिप्पणी उसी मौके पर की और दर्ज भी किया। अखबार ने इसे टॉप पर छापा है।
आज टेलीग्राफ की लीड सरकार की लाचारी बताने वाली है। इसका शीर्षक है, मोदी को क्यों सुनना सीखना चाहिए। इसका फ्लैग शीर्षक है, तिरस्कार से देश का मूल्यवान समय नष्ट होता है। इसमें बताया गया है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 18 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर कहा था कि टीकों के लिए सरकार को क्या करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने इसका जवाब खुद तो नहीं दिया और ऐसा भी नहीं है कि इसे नजरअंदाज किया बल्कि अपने एक अरेक्षाकृत कनिष्ठ मंत्री से जवाब लिखवाया और प्रचारित किया। इसमें मनमोहन सिंह की सलाह पर कोई वाजिब प्रतिक्रिया नहीं थी।
30 अप्रैल को यानी कल ही, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से वही सवाल पूछ लिया जिसकी सलाह मनमोहन सिंह ने दी थी और केंद्र सरकार ने मजाक बना दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है, क्या केंद्र सरकार ने 1970 के पेटेंट्स कानून की धारा 92 के तहत अपने अधिकारों के उपयोग पर विचार किया है जो हेल्थ इमरजेंसी की स्थिति में सरकार को कंपलसरी लाइसेंसिंग जारी करने के योग्य बना देता है। मनमोहन सिंह ने यह सलाह दी तो जवाब नहीं अब सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है तो 10 मई की तारीख पड़ी है लेकिन आज दूसरे अखबारों में यह खबर प्रमुखता से नहीं दिखी। कुल मिलाकर टीकों पर सरकार का लचर रवैया अब सबको समझ में आ रहा है और इसपर निर्णय लेने में देरी का नुकसान सबको हो रहा है। अब अखबार ना बता पा रहे हैं और ना छिपा पा रहे हैं।
देश को टीकाकरण की इस स्थिति में पहुंचाने के लिए पूरी तरह प्रधानमंत्री का बचाव ही नहीं किया जा रहा है उनकी घटिया, कमाऊ और प्रचार पाने वाली जनविरोधी, अव्यावहारिक नीति का विरोध भी नहीं किया जा रहा है। प्रचार पाने की लालसा में टीकाकरण के प्रमाणपत्र पर नरेन्द्र मोदी की फोटो लगी हुई है। टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा है कि अगर ऐसा है तो मृत्यु प्रमाणपत्र पर भी प्रधानमंत्री की तस्वीर होना चाहिए। दूसरी ओर, 74 साल के एक रिटायर प्रोफेसर चमनलाल ने प्रमाणपत्र पर नरेन्द्र मोदी की फोटो होने तक टीका लगवाने से मना कर दिया है। और विपक्षी मुख्यमंत्रियों से अपील की है कि प्रमाणपत्र जारी करने से पहले प्रधानमंत्री की तस्वीर हटा दी जाए। फोटो हटे या नहीं, हटाने की मांग की गई यही खबर है। आपने सुनी?
ऐसी खबरों के बीच हिन्दुस्तान टाइम्स ने आज एक और दिलचस्प खबर छापी है। शीर्षक है, मद्रास हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग का आग्रह नहीं माना कि मीडिया को अदालतों की राय प्रकाशित करने से रोका जाए। चुनाव आयोग ने इस याचिका के जरिए मांग की थी कि देश में बढ़ते कोरोना के मामले के पीछे आयोग को दोषी ठहराने वाली कोर्ट की मौखिक टिप्पणियों को मीडिया में छपने से रोका जाए। इससे पहले, सोमवार को मद्रास हाईकोर्ट ने राजनीतिक पार्टियों की ओर से की जा रही है रैलियों पर रोक ना लगाने पर चुनाव आयोग को फटकारा था और कहा था कि चुनाव आयोग के अधिकारियों पर हत्या का केस दर्ज होना चाहिए।
आप जानते हैं कि चुनाव आयोग यानी उसके अधिकारी केंद्र सरकार की सेवा में काम कर रहे हैं और बदले में फल पा रहे हैं या पाने की उम्मीद में हैं। केंद्र सरकार सरकारी पद के रूप में पार्टी का काम करवा रही है और इसमें जो वाजिब बदनामी हो रही है उससे बचाव के लिए चुनाव आयोग सरकारी संसाधनों, धन का उपयोग कर रहा है और बदनामी से बचने के लिए भी सरकारी धन। वैसे तो सेवा कर मेवा लेना भ्रष्टाचार है और मेवा लेने वाला हर अधिकारी जानता है। उसका परिवार उसके बच्चे सब जानते हैं लेकिन बदनामी से बचने की सरकारी अधिकारियों की यह चाहत और सरकारी धन की यह बर्बादी भी खबर नहीं है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।