न बहुमत में कमी आयी और न विपक्षी की ओर से ही कोई बड़ा संकट, फिर भी नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा ओली ने अगर संसद भंग करने की सिफ़ारिश कर दी तो मतलब साफ़ है कि वे पार्टी में अलग-थलग पड़ते जा रहे थे। देश भर में उनके पुतले जलाये जा रहे हैं। यही नहीं, संसद भंग करने के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा भी खटखटाया गया है। ओली विरोधियों ने इसे 2017 के जनादेश का उल्लंघन और संवैधानिक विद्रोह क़रार दिया है। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) में विभाजन का ख़तरा साफ़ दिख रहा है।
दरअसल, रविवार को अचानक पीएम ओली ने मंत्रिमंडल की बैठक के बाद राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी से संसद को भंग करने की सिफारिश कर दी थी। राष्ट्रपति ने इसे मंज़ूर कर लिया। इसी के साथ अगले साल 30 अप्रैल और 10 मई को दो चरणों में प्रतिनिधि सभा के चुनाव का ऐलान कर दिया गया।
यह नेपाल जैसे ग़रीब देश में कम्युनिस्ट आंदोलन के एक शानदार प्रयोग के बीच आया बड़ा व्यवधान है जिसने देश से राजशाही जैसी अमानवीय व्यवस्था को उखाड़ फेंका था। ऐसा लगता है कि ओली की निजी महात्वाकांक्षा ने विचारधारा की कसौटियों को रौंद दिया। गौरतलब है कि पुष्प कमल दहल प्रचंड, माधव नेपाल और झाला नाथ खनाल जैसे वरिष्ठ नेताओं ने प्रधानमंत्री के पी ओली से इस्तीफे की मांग शुरू कर दी थी। उनके मुताबिक ओली पार्टी के नेतृत्व और उसके फ़ैसलों से अलग जा रहे हैं।
पिछले चुनाव में नेपाल में के.पी.शर्मा ओली के नेतृत्व वाली नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत माले) और प्रचंड के नेतृ्तव वाली नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को शानदार सफलता मिली थी। बाद में दोनों पार्टियों का विलय हो गया और एक नयी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आयी ओली को संसदीय दल का नेता चुना गया और वे प्रधानमंत्री बने। वे चेयरमैन भी रहे पर साथ में प्रचंड को भी सहअध्यक्ष चुना गया था लेकिन इस बीच दोनों के संबंध बहुत ख़राब होने की ख़बर है।
पीएम के.पी ओली ने इस संबंध में सोमवार को देश को संबोधित करते हुए कहा कि देश और पार्टी हित में उन्होंने ये कदम उठाया है। पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड‘ और माधव कुमार नेपाल पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि पार्टी के अंदरुनी संघर्ष ने संसद को शर्मिंदा किया है। वहीं, प्रचंड ने बयान जारी कर ओली के इस फैसले को असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, निरंकुश और पीछे ले जाने वाला बताया है। दरअसल, पार्टी उस अध्यादेश को वापस लेने की मांग कर रही है जो प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष और विपक्षी नेताओं की सहमति के बिना संवैधानिक संस्थाओं में नियुक्ति का अधिकार प्रधानमंत्री को देता है।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि दोनों पार्टियों के विलय के दौरान एक गुप्त समझौता हुआ था। इसके तहत ओली और प्रचंड को ढाई–ढाई साल तक प्रधानमंत्री बने रहना था। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। पिछले साल नवंबर में पार्टी के बीच सहमति बनी कि केपी ओली पूरे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री बने रहेंगे और प्रचंड सारी संगठनात्मक सख्तियों के साथ पार्टी के सह–अध्यक्ष बने रहेंगे। लेकिन इस समझौते के बाद भी दोनों एक दूसरे पर सहयोग ना करने का आरोप मढ़ते रहे। प्रचंड का आरोप रहा कि उन्हें पार्टी चलाने के लिए कार्यकारी शक्ति नहीं मिली जबकि ओली शिकायत करते रहे कि उन्हें कभी प्रचंड से कोई मदद नहीं मिली।
अगस्त में एक और समझौता हुआ कि पार्टी का आम सम्मेलन अप्रैल 2021 में होगा। केंद्र में कैबिनेट के साथ ही राज्य सरकार में फेरबदल किया जाएगा। लेकिन इस बीच केपी ओली ने कर्णाली प्रांत में सरकार को भंग करने की कोशिश की और प्रचंड के साथ समन्वय के बिना तीन नये मंत्रियों को नियुक्त किया। इसके बाद प्रचंड ने ओली के इस्तीफे की मांग की थी। रविवार को प्रधानमंत्री ओली के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव पेश करने की तैयारी चल रही थी और तभी पीएम ने संसद को भाग कर दिया।
फिलहाल पार्टी में प्रचंड गुट की स्थिति काफी मजबूत बतायी जा रही है। पार्टी में विभाजन का खतरा बढ़ गया है।