15 नवंबर को सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर से पूरे झारखंड में धूम-धाम से ‘धरती आबा’ यानी ‘धरती पिता’ बिरसा मुंडा की 145वीं जयंती मनाई गई। साथ ही झारखंड का 20वां स्थापना दिवस भी मनाया गया। पिछले 19 साल की तरह इस साल भी पक्ष-विपक्ष के नेताओं द्वारा लंबे-लंबे भाषण दिए गए, दिल को छूने वाले भावनात्मक जुमले दोहराए गए, बिरसा के सपनों को साकार करने के संकल्प दोहराए गए। जो शायद सुनने और बोलने वालों के जेहन से 20 वर्षों के विकास की तरह गुम हो जाएंगे।
बताते चलें कि अलग राज्य की अवधारणा 20 के दशक में आदिवासी बहुल क्षेत्रों को लेकर बनी थी। 1912 में जब बंगाल से बिहार को अलग किया गया, तब उसके कुछ वर्षों बाद 1920 में बिहार के पठारी इलाकों के आदिवासियों द्वारा आदिवासी समुहों को मिलाकर ‘‘छोटानागपुर उन्नति समाज’’ का गठन किया गया। बंदी उरांव एवं यूएल लकड़ा के नेतृत्व में गठित उक्त संगठन के बहाने आदिवासी जमातों की एक अलग पहचान कायम करने के निमित अलग राज्य की परिकल्पना की गई। 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने संताल परगना के आदिवासियों को जोड़ते हुये ‘‘आदिवासी महासभा’’ का गठन किया। इस सामाजिक संगठन के माध्यम से अलग राज्य की परिकल्पना को राजनीतिक जामा 1950 में जयपाल सिंह मुंडा ने ‘‘झारखंड पार्टी’’ के रूप में पहनाया। यहीं से शुरू हुई आदिवासी समाज में अपनी राजनीतिक भागीदारी की लड़ाई। 1951 में देश में जब वयस्क मतदान पर आधारित लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ तो बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में झारखंड पार्टी एक सबल राजनीतिक पार्टी के रूप विकसित हुई। 1952 के पहला आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं, अत: सभी 32 सीटों पर झारखंड पार्टी का ही कब्जा रहा।
बिहार में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में झारखंड पार्टी उभरी तो दिल्ली में कांग्रेस की चिन्ता बढ़ गई। तब शुरू हुआ आदिवासियों के बीच राजनीतिक दखलअंदाजी का खेल। जिसका नतिजा 1957 के आम चुनाव में साफ देखने को मिला। झारखंड पार्टी ने चार सीटें गवां दी। क्योंकि 1955 में राज्य पुर्नगठन आयोग के सामने झारखंड अलग राज्य की मांग रखी गई थी। 1962 के आम चुनाव में पार्टी 20 सीटों पर सिमट कर रह गई। 1963 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा ने एक सौदेबाजी के तहत झारखंड पार्टी के सुप्रीमो जयपाल सिंह मुंडा को उनकी पार्टी के तमाम विधायकों सहित कांग्रेस में मिला लिया। एक तरह से झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। शायद पहली बार राजनीतिक ताकत की खरीद-फरोख्त की संस्कृति आदिवासी नेताओं में प्रवेश हुई। झारखंड अलग राज्य का आंदोलन यहीं पर दम तोड़ दिया।
1966 में अलग राज्य की अवधारणा पुनः जागृत हुई। ‘‘अखिल भारतीय अदिवासी विकास परिषद’’ तथा ‘‘सिद्धू-कान्हू बैसी’’ का गठन किया गया। 1967 के आम चुनाव में ‘‘अखिल भारतीय झारखंड पार्टी’’ का गठन हुआ। मगर चुनाव में कोई सफलता हाथ नहीं लगी। 1968 में ‘‘हुल झारखंड पार्टी’’ का गठन हुआ। इन तमाम गतिविधियों में अलग राज्य का सपना समाहित था। जिसे तत्कालीन शासन तंत्र ने कुचलने के कई तरकीब आजमाए। 1969 में ‘बिहार अनुसूचित क्षेत्र अधिनियम 1969’ बना। 1970 में ईएन होरो द्वारा पुनः झारखंड पार्टी का गठन किया गया। 1971 में जयराम हेम्ब्रम द्वारा सोनोत संथाल समाज का गठन किया गया। 1972 में आदिवासियों के लिये आरक्षित 32 सीटों को घटाकर 28 कर दिया गया। इस राजनीति का सबसे दुखद पहलू यह है कि झारखंड अलग राज्य गठन के बाद भी आदिवासियों के लिये आरक्षित सीट की संख्या आज भी वही 28 की 28 ही रह गई।
इसी बीच शिबू सोरेन आदिवासियों के बीच एक मसीहा के रूप में उभरे। महाजनी प्रथा के खिलाफ उभरा आन्दोलन तत्कालीन सरकार को हिला कर रख दिया। शिबू आदिवासियों के भगवान बन गये। शिबू की आदिवासियों के बीच बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए वामपंथी चिंतक और मार्क्सवादी समन्वय समिति के संस्थापक कामरेड एके राय और झारखंड अलग राज्य के प्रबल समर्थक बिनोद बिहारी महतो द्वारा 4 फरवरी 1973 को झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ और मोर्चा का कमान शिबू सोरेन को थमा दी गयी। महाजनी प्रथा के खिलाफ आंदोलन अब झारखंड अलग राज्य की मांग में परिणत हो गया। 1977 में शिबू लोकसभा का चुनाव जीत कर दिल्ली पहुंच गये। पार्टी के क्रिया कलापों एवं वैचारिक मतभेदों को लेकर पार्टी के भीतर अंतर्कलह बढ़ता घटता रहा। पार्टी कई बार बंटी मगर शिबू की अहमियत बरकरार रही। उनकी ताकत व कीमत में बराबर इजाफा होता रहा। उन्हें दिल्ली रास आ गयी। सौदेबाजी में भी गुरू जी यानी शिबू सोरेन प्रवीण होते गये।
अलग राज्य की मांग पर सरकार के नकारात्मक रवैये को देखते 1985 में कतिपय बुद्धिजीवियों ने केन्द्र शासित राज्य की मांग रखी। झामुमो द्वारा अलग राज्य के आंदोलन में बढ़ते बिखराव को देखते हुए 1986 में ”आल झारखंड स्टूडेंटस् यूनियन” (आजसू) का तथा 1987 में ”झारखंड समन्वय समिति” का गठन हुआ। इन संगठनों के बैनर तले इतना जोरदार आंदोलन चला कि एक बारगी लगा कि मंजिल काफी नजदीक है। मगर ऐसा नहीं था। शासन तंत्र ने इन आंदोलनों को किसी प्रकार की तबज्जो नहीं दी।
भाजपा ने भी 1988 में वनांचल अलग राज्य की मांग रखी। 1994 में तत्कालीन लालू सरकार में ”झारखंड क्षेत्र स्वायत परिषद विधेयक” पारित किया गया। जिसके अध्यक्ष शिबू सोरेन को बनाया गया। 1998 में केन्द्र की भाजपा सरकार ने वनांचल अलग राज्य की घोषणा की। झारखंड अलग राज्य आंदोलन के पक्षकारों के बीच झारखंड और वनांचल शब्द को लेकर एक नया विवाद शुरू हो गया। भाजपा पर यह आरोप लगाया जाने लगा कि वह झारखंड की पौराणिक संस्कृति पर संघ परिवार की संस्कृति थोप रही है। शब्द को लेकर एक नया आंदोलन शुरू हो गया। अंततः वाजपेई सरकार में 2 अगस्त 2000 को लोकसभा में झारखंड अलग राज्य का बिल पारित हो गया। 15 नवम्बर 2000 को देश के और दो राज्यों छत्तीसगढ़ व उत्तरांचल अब उत्तराखंड सहित झारखंड अलग राज्य का गठन हो गया। तब से लेकर अब तक झारखंड में 11 मुख्य मंत्री हुये और एक रघुबर दास को छोड़कर सभी के सभी आदिवासी समुदाय से हुये हैं।
सामाजिक चिंतक व सामाजिक कार्यकर्ता ठाकुर प्रसाद कहते हैं कि झारखंड का शासन तंत्र इन बीस वर्षों में राज्य के विकास का कोई ब्ल्यू प्रिंट तैयार नहीं कर सका है, तो इसका कारण है इनमें मौलिक दृष्टिकोण का अभाव। वे आगे कहते हैं कि दुनिया में खनिज संपदाओं के संसाधनों में अमेरिका का 40 प्रतिशत पर है और भारत के खनिज संपदाओं के संसाधनों में झारखंड अकेले 40 प्रतिशत पर है, बावजूद हमारे यहां के लोग दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए पलायन करते हैं, जो हमारे राजनीतिक दृष्टिकोण के अभाव के कारण है।
सामाजिक कार्यकर्ता अनुप महतो कहते हैं कि यह सही है कि 2000 में अस्तित्व में आया झारखंड राज्य कई चरणबद्ध आंदोलन की देन है, मगर जिस राजनीतिक नीयत के तहत झारखंड अलग राज्य बनाया गया, वह संघ प्रायोजित था, जिसका खामियाजा झारखंड की जनता को आजतक उठाना पड़ रहा है। इन 20 सालों में कई राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आईं और गईं किंतु आज तक झारखंडियों का सही ढंग से विकास नहीं हो पाया है और ना ही उनके अधिकार मिल पाये हैं। झारखंड में जितना विस्थापन हुआ है देश में कहीं नहीं हुआ। उदाहरण स्वरूप हम चांडिल बांध के विस्थापन को देख सकते हैं। आज तक विस्थापितों को पूर्ण रूप से मुआवजा नहीं दिया गया और ना ही पुनर्वास उपलब्ध कराया गया है। अनगिनत सरकारी योजनाओं के बाद भी वहां आदिवासियों को सरकारी योजनाओं का न तो आज तक कोई लाभ मिला है न ही कोई अन्य सुविधा मिली है। असल में देखा जाए तो झारखंडी जिस लिए अलग झारखंड राज्य की मांग कर रहे थे, जिसके लिए उनके पूर्वज शहीद हुए, वह कहीं से भी साकार नहीं हुआ दिखता है।
सामाजिक कार्यकर्त्ता जेम्स हेरेंज एक तस्वीर पेश करते हुए बताते हैं कि लातेहार जिला के महुआडांड़ प्रखंड मुख्यालय से महज 1 कि0 मी0 की परिधि में अम्बाकोना गांव का गुड़गूटोली है। जहां विधवा आदिवासी महिला कुन्ती नगेसिया अपने 13 वर्षीय बेटे के साथ किसी दूसरे परिवार के एक कमरे में रहती है। लगभग 6 वर्ष पहले उनके पति की मृत्यु हो गई थी। तब उनकी बड़ी बेटी रीना नगेसिया की उम्र लगभग 11 साल की रही होगी। कुन्ती नगेसिया शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद कमजोर हैं। पिछले वर्ष अप्रैल में टी0 बी0 की बीमारी ने जकड़ लिया था। 8 माह तक सरकारी हस्तक्षेप से रांची (इटकी) में इलाज कराने के बाद घर आकर रह रही है। वर्तमान में वह किसी न किसी की दया पर आश्रित हैं। उनका अपना एक आशियाना था, वह भी जर्जर होकर खंडहर में तब्दील हो चुका है। उनकी बेटी को 12 वर्षों पहले पहले गांव का ही कोई बैंककर्मी घरेलू काम के लिए ले गया था, सो आज तक नगेसिया ने अपनी बेटी का चेहरा नहीं देखा। गरीबी में उनके दोनों बेटे-बेटियां स्कूल की दहलीज तक कभी नहीं पहुंच पाए हैं। यह कोई काल्पनिक कथा नहीं बल्कि 20 वर्ष के युवा झारखण्ड के आदिवासी और हाशिये पर रह रहे परिवारों की यथार्थ की तस्वीर है।
वे आगे कहते हैं अक्सर ऐसे अभाव में जीवन यापन कर रहे हजारों परिवारों से सामना होता रहा है। ऐसा कहा जा सकता है कि पूंजीवाद के चश्मे से गढ़े जा रहे विनाशकारी विकास माडल ने झारखण्ड को जकड लिया है। एक अध्ययन के अनुसार सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के 50 फीसदी परिवार अपने बच्चों को आर्थिक दशा ख़राब होने की वजह से स्कूल नहीं भेजते हैं। ठीक इसी तरह सुदूर क्षेत्रों के 58 प्रतिशत बच्चे आंगनबाड़ी केन्द्रों से मिलने वाले सुविधाओं से वंचित हैं। यही कारण है कि राज्य में 47.8 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें से 47.8 फीसद बच्चे गंभीर कुपोषित हैं। जिनमें मौत का खतरा नौ से बीस गुना अधिक रहता है। ऐसे बच्चों की संख्या 5.8 लाख है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक राज्य की किशोरियों समेत 13 से 49 आयु वर्ग की महिलाओं की 66 फीसद आबादी एनीमिया की चपेट में है।
वैश्विक त्रासदी कोविड 19 के दौरान जिस भयावहता से अप्रवासी मजदूरों का हुजूम मेट्रो शहरों से झारखण्ड की ओर निकल पड़ा था। उसकी तस्वीरें आज भी लोगों के जेहन में कौंध रही हैं। सरकार ने जो आंकड़े इकट्ठे किये वो ग्यारह लाख के आस-पास है। लेकिन इसमें उन लड़कियों और महिलाओं की संख्या शामिल नहीं है जो विभिन्न महानगरों में घरेलू कार्यों के लिए पलायन की हुई हैं। इसके साथ ही ईंट भट्ठों और मौसमी पलायन करने वाले श्रमिकों की संख्या भी शामिल नहीं है, जो लाख पार है। आज भी राज्य के अन्दर राजधानी रांची सहित अधिकांश शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिक रोजाना काम की तलाश में चौक चौराहों में पहुंचते हैं। यह परिस्थिति आदिवासी समाज और श्रमिक सम्मान के बिल्कुल विपरीत है। यह शर्मनाक स्थिति 20 साल तक शासन चलाने वाले राजनीति दलों, नीति निर्धारकों और सभ्य समाज के लोगों पर एक करारा तमाचा है।
वहीं दूसरी तरफ जेम्स हेरेंज कहते हैं कि राज्य में ऐसी परिस्थितियों के बाद भी उम्मीद की किरणें राज्य वासियों में आज भी जिंदा हैं। झारखंड की जनता मजबूत इरादों वाली है। ऐसा भी नहीं है कि विगत 20 वर्षो में यहां के गरीबों के लिए कोई कार्य नहीं हुए हैं। आज से 20 साल पहले लोग पी0 डी0 एस0 डीलर से सवाल तक पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। डीलर साल में 6 महीने का राशन कार्डधारी को देता था और बाकी के राशन कालाबाजारी कर देता था। आज राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून ने हक़धारकों के अधिकारों को क़ानूनी सुरक्षा कवच प्रदान किया है। अब जन वितरण प्रणाली से दिया जाने वाला खाद्यान्न, स्कूलों में दिया जाने वाला दोपहर का भोजन, आंगनबाड़ी में दिया जानेवाला पोषाहार और मातृत्व लाभ लोगों के लिए सरकारी भीख नहीं, जनता का अधिकार है। अपने राज्य झारखण्ड में मिड डे मिल की शुरुआत भी राज्य गठन के 4 बाद हुई थी। जहां आज 33 लाख से अधिक बच्चे और 79591 रसोइये योजना का लाभ ले रहे हैं।
इसी तरह राज्य में 5676324 कार्डधारी जनवितरण प्रणाली से मिलने वाली सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं। राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (पेंशन योजना) के अंतर्गत 2040534 परिवार आच्छादित हैं, जिन्हें 1000 रूपये मासिक पेंशन राशि मिलती है। जिसमें आदिम जनजाति समुदाय के परिवारों में से एक वरिष्ठ महिला सदस्य को अनिवार्य रूप से पेंशन का लाभ तथा मुफ्त खाद्यान्न कराने का निर्णय झारखण्ड बनने के 10 वर्षों बाद ही संभव हुआ है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून एक केन्द्रीय कानून अवश्य है। लेकिन इसके माध्यम से भी साढ़े 28 लाख मजदूरों के सामाजिक सुरक्षा की आंशिक गारंटी हो रही है। इस वर्ष जिस दूरदर्शी विजन के साथ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरकार ने नरेगा केन्द्रित योजनाओं पर कार्य प्रारंभ किया है, जैसे नीलाम्बर पीताम्बर जल समृद्दी योजना, बिरसा आम बागवानी योजना, शहीद पोटो हो खेल मैदान निर्माण योजना, दीदी बाड़ी योजना।
बताते चलें कि अलग राज्य बनने के बाद कुछ खास तबकों में दलाली की प्रवृति और लूटतंत्र का विकास हुआ, वहीं कुछ लोगों की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी, जो लोग बिहार विधानसभा में पिछली सीट पर ही संतुष्ट हो जाया करते थे, वे झारखंड सरकार में मंत्री पद को सुशोभित करने लगे, जबकि आम जनता की अलग राज्य बनने के बाद की अपेक्षाएं जस की तस रह गईं।
आजादी के 73 वर्षों बाद भी झारखंड के आदिवासियों के विकास में कोई बेहतर प्रयास नहीं किये गये। उल्टा नक्सल-उन्मूलन के नाम पर आदिवासियों को उनके जंगल-जमीन से बेदखल करने का प्रयास होता रहा है। आए दिन उनकी हत्यायें हो रहीं हैं। विकास के नाम पर कारपोरेट घरानों का झारखंड पर कब्जे की तैयारी चल रही है। मजे की बात तो यह है कि जिन लोगों ने सत्ता के इस मंशा को पर्दाफाश करने की कोशिश की उन्हें माओवादी करार देकर उनपर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए। तो दूसरी तरफ जिस अवधारणा के तहत झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ वह हाशिए पर पड़ा है।
बताना जरूरी होगा कि 1911 की जनगणना में केवल जमशेदपुर की आबादी केवल 5672 थी। जो 1921 में 57,000, 1931 में 84,000 और आजादी के बाद 1951 में यह जनसंख्या 2 लाख से अधिक हो गई। अब झारखंड अलग राज्य होने के बाद 2011 की जनगणना में यहां की आबादी 13,37,000 हो गई। यह संख्या आदिवासियों की नहीं है, बल्कि दूसरे राज्यों से आकर बसे गैरआदिवासियों की है, जो टाटा कंपनी के औद्यागिक विकास के बाद आए हैं। बता दें कि टाटा कंपनी की स्थापना 1907 को हुई और 1911 में उसका प्रोडक्शन शुरू हो गया। चूंकि यहां के आदिवासी स्किल्ड नहीं थे सो बाहर के राज्यों के स्किल्ड मजदूर व कर्मचारी-अधिकारी यहां आते गए व बसते गए। यहां के आदिवासी एक बड़ी संख्या में असम और अंडमान निकोबार में पलायन कर चुकी है। सूत्रों पर भरोसा करें तो लगभग 50 लाख संताल आदिवासी असम में बस गए हैं जबकि एक लाख से अधिक अंडमान निकोबार में हैं।
अलग राज्य की अवधारणा में आदिवासी विकास को लेकर एक बात और चौकाती है, वह यह है कि आजादी के बाद 1952 के पहला आम चुनाव में छोटानागपुर व संताल परगना को मिलाकर 32 सीटें आदिवासियों के लिये आरक्षित की गईं थीं। उन सभी 32 सीटों पर आदिवासी जनप्रतिनिधियों की भागीदारी रही, जिसे 1972 में घटाकर 28 कर दिया गया। वहीं 9 सीटें दलितों के लिए आरक्षित की गईं। अलग राज्य की अवधारणा में आदिवासियों के साथ इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है कि झारखंड अलग राज्य गठन के बाद भी आरक्षित सीटों की संख्या ज्यों की त्यों रह गई हैं।
राज्य गठन के 20 वर्षों में राजनीतिक उठापठक
बता दें कि अलग राज्य गठन के 20 वर्षों में झारखंड, 11 मुख्यमंत्रियों सहित तीन बार राष्ट्रपति शासन को झेला है, जो शायद भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में किसी राज्य की यह पहली घटना है। मजे की बात तो यह है कि इन 11 मुख्यमंत्रियों में रघुबर दास को छोड़कर दस मुख्यमंत्री आदिवासी समुदाय के रहे हैं, बावजूद राज्य के आम आदिवासियों के जीवन से जुड़े, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर कोई विशेष बदलाव नहीं आ पाया है। कहना ना होगा कि झारखंड अलग राज्य की अवधारणा केवल भाषणों और किताबों तक सिमट कर रह गया है।
कारण साफ है, जिन्हें भी सत्ता मिली, वे केवल अपनी कुर्सी बचाने के ही फिराक में लगे रहे। उनमें झारखंड के विकास के प्रति संवेदना का घोर अभाव रहा। इनमें सत्ता लोलूपता की पिपासा इतनी रही कि वे भूल गये कि राज्य को इनके किस कदम से नुकसान होगा, किस कदम से फायदा, इसका इन्हें जरा भी एहसास नहीं रहा।
बताना जरूरी होगा कि राज्य गठन के बाद 2010 में राजनीति ने ऐसी करवट ली कि विरोधाभाषी चरित्र के बावजूद झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा में 28-28 माह के सत्ता हस्तांतरण के समझौते के बाद अर्जुन मुंडा को 11 सितंबर 2010 को झामुमो के समर्थन से मुख्यमंत्री बनाया गया। परन्तु यह समझौता बीच में इसलिए टूट गया कि भाजपा, झामुमो को सत्ता सौपने को तैयार नहीं हुई। अत: 18 जनवरी 2013 को झामुमो ने अपना समर्थन वापस ले लिया और अल्पमत में आने के बाद अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री पद से अपना इस्तीफा दे दिया। काफी जोड़ घटाव के बाद जब किसी की सरकार नहीं बनी, तो 18 जनवरी 2013 को राष्ट्रपति शासन लागू हुआ जो 12 जुलाई 2013 तक रहा। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन पर हेमंत सोरेन 13 जुलाई 2013 को मुख्यमंत्री बनाए गए, जिनका कार्यकाल 23 दिसंबर 2014 तक रहा।
दिसंबर 2014 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के चुनाव जीत कर आए आठ विधायकों में से छ: विधायकों को तोड़ कर अपनी ओर मिला लिया और सरकार बना ली। रघुवर दास 10वें मुख्यमंत्री के रूप में 28 दिसंबर 2014 शपथ ली, जो राज्य के पहले गैरआदिवासी मुख्यमंत्री बने, जो दिसंबर 2019 के चुनाव में अपनी भी सीट नहीं बचा पाए और 29 दिसंबर 2019 को हेमंत सोरेन की गठबंधन की सरकार बनी।
झारखंड के अबतक के मुख्यमंत्री और उनका कार्यकाल
- बाबूलाल मरांडी 15 नवंबर 2000 17 मार्च 2003
- अर्जुन मुंडा 18 मार्च 2003 2 मार्च 2005
- शिबू सोरेन 2 मार्च 2005 12 मार्च 2005
- अर्जुन मुंडा 12 मार्च 2005 14 सितंबर 2006
- मधु कोड़ा 14 सितंबर 2006 23 अगस्त 2008
- शिबू सोरेन 27 अगस्त 2008 18 जनवरी 2009
- राष्ट्रपति शासन 19 जनवरी 2009 29 दिसंबर 2009
- शिबू सोरेन 30 दिसंबर 2009 31 मई 2010
- राष्ट्रपति शासन 1 जनवरी 2010 11 सितंबर 2010
- अर्जुन मुंडा 11 सितंबर 2010 18 जनवरी 2013
- राष्ट्रपति शासन 18 जनवरी 2013 12 जुलाई 2013
- हेमंत सोरेन 13 जुलाई 2013 23 दिसंबर 2014
- रघुवर दास 28 दिसंबर 2014 28 दिसंबर 2014
- हेमंत सोरेन 29 दिसंबर 2019 अब तक