एक खबर, भिन्न शीर्षक का मजा देखिए और गोदी मीडिया का खेल समझिए
खबर एक ही है प्रस्तुति देखिए। पुलवामा का मामला सबको पता है। उतना बड़ा हमला कैसे हो गया आज तक पता नहीं चला। किसी जिम्मेदार की शिनाख्त हुई कि नहीं, राम जाने। किसी की लापरवाही, जिम्मेदारी से चूके बिना ऐसा हो गया यह भी नहीं बताया गया। पाकिस्तान के एक मंत्री ने अपना सीना ठोंका (पता नहीं प्रयोग है या संयोग या मिलीभगत) तो प्रधानमंत्री ने चुनाव के मौके पर उसे भुना लिया। एक चुनाव के मौके पर पुलवामा हुआ, दूसरे चुनाव के मौके पर पाकिस्तानी मंत्री जी ने दावा किया। पर यह संयोग ही होगा, साजिश कहने वाला राष्ट्रद्रोही हो सकता है। ऐसे में मौका भुनाने का है और भुनाया जा रहा है। मीडिया का काम इसे बताने का है। पर मीडिया संस्थान में जब शिक्षक ही भक्तों को बनाया जाएगा तो वे बेचारे सीखेंगे कैसे?
ऐसे ही एक मीडिया संस्थान में दाखिले के लिए मेरा चुनाव हो गया तो मैंने प्रभाष जी से अनुमति मांगी कि मुझे वह पाठ्यक्रम कर लेने दिया जाए। पर अनुमति नहीं मिली। इस तरह मैं नौकरी करने वाली पत्रकारिता सीखने या पढ़ने से रह गया। अव्वल तो मैं इस खबर को लीड किसी सूरत में नहीं बनाता और बनाता तो शीर्षक वही होता जो टाइम्स ऑफ इंडिया ने बनाया है। या हिन्दू में है। अगर नौकरी प्यारी होती और टाइम्स ऑफ इंडिया जैसा शीर्षक लगाने की हिम्मत नहीं होती तो लीड नहीं बना देता। कोई और खबर ढूंढ़ता।
टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रकारिता मुझे पसंद नहीं है और मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ना तब छोड़ दिया था जब दिल्ली में सांसद, फूलन देवी की हत्या हुई और खबर पहले पन्ने पर नहीं थी। हालांकि, उस दिन सौंदर्य प्रतियोगिता का परिणाम छपा था। वर्षों मैंने टाइम्स नहीं खरीदा। यहां तक कि सामने रखा होता था तो भी नहीं उठाता था। लेकिन इस भक्ति काल में हिन्दी के अखबारों का जो हाल है उसमें मैंने हिन्दी अखबार पढ़ना छोड़ दिया है। आज पी चिदंबरम के कॉलम के लिए जनसत्ता देखा तो यह खबर लीड देखकर शर्म आई। और टाइम्स ऑफ इंडिया में यह शीर्षक देखकर मजा आ गया।
जनसत्ता में एक खबर छपी थी तो मैंने लिखा था, मरा हाथी भी सवा लाख का लेकिन आज यह शीर्षक लीड के लिहाज से शर्मनाक है। निश्चित रूप से टाइम्स जैसा शीर्षक कोई प्रशिक्षु उपसंपादक नही लगा सकता है पर नाम तो अखबार का ही होता है खराब हो या अच्छा। जनसत्ता का नाम बदनाम करने से बेहतर है उसे बंद कर दिया जाए। अगर एक्सप्रेस की एक्सक्लूसिव खबरें भी छपती रहें तो हिन्दी का एक अच्छा अखबार बना रह सकता है (घटिया और फटीचर अनुवाद के बावजूद) पर ऐसी खबरों से तो यह एक्सप्रेस के सरकार विरोधी खबरों की भरपाई करता लगता है।
जो अंग्रेजी नहीं जानते उनके लिए टाइम्स का शीर्षक हिन्दी में कुछ यूं होता, “प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के मंत्री के पुलवामा दावे का उपयोग देश में अपने आलोचकों की मरम्मत करने के लिए किया”। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर टॉप पर ही है और शीर्षक है, “पाकिस्तान ने पुलवामा स्वीकार किया …. समय आ गया है कि आतंक, इसके समर्थकों को खत्म करने के लिए दुनिया एक हो : प्रधानमंत्री”। बेशक, प्रधानमंत्री ने कहा है तो यह शीर्षक हो सकता है पर मुद्दा यही है कि पाकिस्तान अगर पुलवामा स्वीकार कर रहा है तो घुसकर मारने का क्या हुआ? क्या ऐसी बातें चुनावी भाषणों के लिए ही होती हैं या फिर एक औपचारिक चिट्ठी लिखकर देश को बताना भी होता है। पर गलती उनकी भी नहीं है। चिट्ठी लिखने को वे लव लेटर लिखना कहते थे और देश ने इसीलिए चुना है।
हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर, खबरों के पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर है और शीर्षक वही है जो प्रचारक प्रधानमंत्री ने कहा है। हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, “विपक्ष ने पुलवामा हमले का उपयोग अपने लाभ के लिए करने की कोशिश की : प्रधानमंत्री”। संभव है, विपक्ष ने ऐसा किया हो। पर अब क्या प्रधानमंत्री खुद वही नहीं कर रहे हैं। इस आरोप के बावजूद कि पुलवामा हमला साजिश थी जिसकी जांच नहीं हुई, झूठ साबित करने की कोशिश नहीं हुई और फिर पाकिस्तान के मंत्री ने ऐसा दावा कर दिया जिसे भाजपा के प्रधानसेवक या प्रधानचौकीदार अपने चुनावी फायदे के लिए उपयोग कर रहे हैं। यह मिलीभगत नहीं है, इसे साबित करना भी सरकार का ही काम है।
द हिन्दू में भी यह खबर लीड है। पर बिल्कुल सूचना के रूप में और यह भी खबर देने का तरीका है। कायदे से पत्रकारों से अपेक्षित निष्पक्षता यही है। अखबार ने शीर्षक लगाया है, “प्रधानमंत्री ने पुलवामा पर ‘राजनीति’ की निन्दा की”। इसमें राजनीति इनवर्टेड कॉमा में है। उपशीर्षक से बात और स्पष्ट हो जाती है। मोदी ने आतंकवादी हमले में इस्लामाबाद की भूमिका बताने के पाकिस्तानी मंत्री के भाषण का जिक्र किया। द टेलीग्राफ ने इस खबर को छापा ही नहीं है। मतलब दिखी नहीं, कहीं छोटी सी हो तो महत्वपूर्ण नहीं है।
इस संबंध में 29 अक्तूबर को एनडीटीवी डॉट कॉम की खबर का शीर्षक था, “घुस के मारा: पाकिस्तान के मंत्री ने पुलवामा हमले पर किया दावा फिर बयान से पलटे”। तब भी इसका उपशीर्षक था, “पाक के मंत्री का यह सनसनीखेज कबूलनामा ऐसे वक्त आय़ा जब विपक्ष के नेता ने विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी और सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के बीच एक तनावपूर्ण बैठक का खुलासा किया था”। पाकिस्तान के मंत्री फवाद चौधरी ने संसद में कहा था, ” हमने हिन्दुस्तान को घुसके मारा, पुलवामा इमरान खान की अगुआई में हमारी अवाम की कामयाबी थी। हम सब आप इस कामयाबी में शरीक थे।” बयान पर बवाल होते ही मंत्री अपना बचाव करने की कोशिश करते नजर आए. चौधरी ने सुधार कर कहा, ” पुलवामा के वाकये के बाद जब हमने इंडिया को घुस के मारा।”
इतना लिख चुकने के बाद हिन्दी अखबारों के शीर्षक के बिना बात पूरी नहीं होगी। लिहाजा हिन्दी के आज के अखबार मंगाए और अब पढ़िए हिन्दी अखबारों के शीर्षक और उसपर मेरी टिप्पणी अंत में। 1. पुलवामा हमले पर पाकिस्तान की स्वीकारोक्ति के बाद मोदी का विपक्ष पर हमला, बोले सबूत मांगने वालों को तमाचा (राष्ट्रीय सहारा, पांच लॉलम लीड)। 2. पुलवामा हमले (में) पाकिस्तान की स्वीकारोक्ति के बाद प्रधानमंत्री का विरोधियों पर निशाना, बलिदान पर सवाल उठाने वालों की सच्चाई सामने आई (पायोनियर, छह कॉलम लीड) 3. पुलवामा पर कबूलनामा मोदी बोले – पाकिस्तान का असली चेहरा सामने आया, भारत में मुंहतोड़ जवाब देने की ताकत, अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने की अपील, (दैनिक ट्रिब्यून, पांच कॉलम लीड) 4. पड़ोसी के कुबूलनामे से पुलवामा पर भद्दी राजनीति करने वालों के चेहरे बेनकाब : मोदी, (अमर उजाला, पांच कॉलम लीड) 5. पुलवामा के सच से कई चेहरे बेनकाब : मोदी (हिन्दुस्तान, चार कॉलम फोटो के साथ टॉप पर) 6. पाक संसद में सामने आया पुलवामा का सच (दैनिक जागरण छह कॉलम, लीड, दूसरे पहले पन्ने पर) 7. पुलवामा पर पाकिस्तानी कबूलनामे को लेकर विपक्ष को घेरा, वीरों के जाने पर जब देश दुखी था तो कुछ दुख में शामिल नहीं थे (नवभारत टाइम्स पांच कॉलम लीड)।
नवभारत टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया की प्रस्तुति के अंतर से कहा जा सकता है कि मामला संस्थानों या मालिकों की भक्ति का काम पत्रकारिता में कार्यकर्ताओं के घुस आने का मामला ज्यादा है। उसपर फिर कभी। फिलहाल यह कम दिलचस्प नहीं है कि हिन्दी के कुछ साधारण और कम बिकने या पढ़े जाने वाले अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। चूंकि उनसे भक्ति की अपेक्षा ही नहीं होगी इसलिए उन्हें भक्ति का पर्याप्त इनाम भी नहीं मिलता होगा। संभव है, इसलिए वहां पत्रकारिता सही होती हो। चूंकि मैंने हिन्दी के अखबार मंगाए थे तो लाने वाला ऐसे अखबार भी ले आया जिनका नाम मैंने भी नहीं सुना था। और मैंने उन अखबारों की बात की है।