बिहार के चुनाव में इस बार तीनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ विपक्षी महागठबंधन का हिस्सा हैं। उनके हिस्से 29 सीटें आयी हैं। 19 पर सीपीआईएमएल, छह पर सीपीआई और चार पर सीपीएम के प्रत्याशी महागठबंधन का झंडा उठाये हुए हैं। इस झंडे में काँग्रेस और आरजेडी का भरपूर रंग है जिनके ख़िलाफ़ वह लंबा संघर्ष करते आयी है। लेकिन अब बीजेपी की ओर से पेश ‘फ़ासीवादी’ ख़तरे के तर्क ने पुराने सभी मामले पीछे कर दिये हैं।
भाकपा- माले
सीपीआईएमएल महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य (डीबी) ने इस बार के बिहार चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की अगुवाई के महागठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टियों के भी शामिल होने के निर्णय का बचाव करते हुए कहा है कि यह बिहार को उत्तर प्रदेश की तरह के ‘महाजंगल राज ‘ से बचाने के लिए जरुरी था। डीबी ने इंडियन एक्सप्रेस में छपे इंटरव्यू में कहा कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार और भी बडा खतरा है। उन्होंने राजद नेता तेजस्वी यादव को नई सरकार के मुख्यमंत्री पद के लिये महागठबंधन का दावेदार घोषित करने का भी बचाव किया। लेकिन इस इंटरव्यू में महागठबंधन की सरकार में कम्युनिस्ट पार्टियों के शामिल होने या ना होने के बारे में कोई सवाल नहीं था।
डीबी ने पटना में प्रेस कान्फ्रेंस मे अपनी पार्टी पोलित ब्यूरो की सदस्य कविता कृष्णन आदि के साथ सीपीआईएमएल का अलग चुनाव घोषणापत्र जारी कर हर साल 10 लाख लोगो को रोजगार देने और किसानों के कर्ज माफ करने आदि के वादे पर जोर दिया।
माले अरसे से राजद से चुनावी सम्बंध नहीं रखने की लाइन पर चल रहा था। लेकिन उसने 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले ही पुरानी लाइन छोड़ बिहार में राजद और झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो ) से चुनावी सम्बंध के लिए राजी होने के साफ संकेत दे दिए थे। डीबी ने पिछले लोकसभा चुनाव के पहले राजद नेता लालू प्रसाद यादव और झामुमो नेता ( अब मुख्यमंत्री ) हेमंत सोरेन से भेंट की थी। कारण जो हो उस लोकसभा चुनाव में बिहार और झारखंड में भाकपा, माकपा और भाकपा-माले से लेकर मार्क्सिस्ट कोऑर्डिनेशन कमेटी (एमसीसी) तक सभी संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों की राजद, झामुमो और काँग्रेस की मोर्चाबंदी नहीं बन सकी।
माले का बिहार में अच्छा ख़ासा असर माना जाता है। बीजेपी के अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने पिछले दिनों बयान दिया था कि आरजेडी पर ‘उग्र वामपंथी’ माले का क़ब्ज़ा हो गया है तो वे माले के प्रतिरोध से परेशान रहे बिहार की सामंती ताक़तों को सचेत ही कर रहे थे।
माकपा
निर्वाचन आयोग के कागज में ‘भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी’ के औपचारिक नाम से दर्ज सीपीएम ( हिंदी में माकपा ) ने इस विधान सभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में किसानों का सभी फसली कर्ज माफ करने का वादा किया है। ये घोषणापत्र पार्टी के प्रांतीय नेताओं ने पटना में बुलाई प्रेस कान्फ्रेंस में जारी किया। माकपा घोषणापत्र में युवा बेरोजगारों को प्रतिमाह 5 हजार रुपए सरकारी भत्ता देने, वृद्धावस्था पेंशन प्रतिमाह 3800 रुपए करने, आंगनबाड़ी सेविका, आशा, उषा आदि सरकारी स्कीम की महिलाकर्मी को प्रतिमाह न्यूनतम 18 हजार रुपए वेतन देने और भूमि सुधार के लिए डी. बंद्योपाध्याय आयोग की रिपोर्ट लागू करने का भी वादा किया गया है।
सीपीएम ने गरीबों, किसानों, मजदूरों, युवाओं, महिलाओं के हितों के लिए आवश्यक प्रावधान करने, पंचायत और नगर निकाय शिक्षकों को पुराने शिक्षकों की तरह वेतनमान देने, सभी परिवार के बच्चों को 12 वीं कक्षा तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने, मुफ्त स्वास्थ्य जांच के साथ दवा भी मुफ्त देने की पंचायत स्तर पर स्वास्थ्य सुविधा सुदृढ़ करने , खेतों की सिंचाई की बेहतर करने और किसानों के अनाज की खरीद लाभकारी मूल्य पर करने का भी वादा किया है। ये घोषणापत्र पार्टी के राज्य सचिव अवधेश कुमार ने जारी किया।
ये स्पष्ट नहीं किया गया है कि क्या सीपीएम ने किसी ऐसी सरकार में शामिल नहीं होने की अपनी पुरानी लाइन छोड़ दी है जिसमें उसका दखल न हो!
भाकपा
भाकपा की लाइन गठबंधन को लेकर कुछ हट कर रही है। उसके महासचिव डी. राजा साफ कहते हैं कांग्रेस के साथ चुनावी सम्बंध के बगैर भाजपा–विरोधी मतदाताओं में भरोसा पैदा करना संभव नहीं है और इसलिये कांग्रेस से कम्युनिस्ट पार्टियों को चुनावी सम्बंध कायम करना ही चाहिए। उनके अनुसार गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस ही प्रमुख विपक्षी ताकत है। उससे वाम दलों और अन्य लोकतांत्रिक ताकतों को भी आपसी समझ कायम करनी ही चाहिए।
2019 के आम चुनव में भाजपा-विरोधी वृहत्तर महागठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टियों के शामिल नहीं होने का एक कारण बिहार की बेगूसराय लोकसभा सीट पर भाकपा की ओर से कन्हैया कुमार को खड़ा करने पर राजद का विरोध भी था। कहा जा रहा था कि कन्हैया की लोकप्रियता तेजस्वी की राह में बाधा है इसलिए राजद के रणनीतिकार कन्हैया को मौक़ा देने के पक्ष में नहीं थे। बहरहाल, अब दोनों एक ही मंच पर हैं। सीपीआई को छह सीटें गठबंधन में मिली हैं।
इसमें शक़ नहीं कि कन्हैया कुमार ने बिहार में ठंडी पड़ी सीपीआई में नया जोश फूँका है। बहुत दिनों बाद सीपीआई के पास एक ऐसा चेहरा हुआ है जिसकी अखिल भारतीय पहचान बनी है। कन्हैया का पूरा परिवार सीपीआई से जुड़ा रहा है। कभी बेगूसराय को भारत का लेनिनग्राद कहा जाता था जहाँ कन्हैया का घर है। जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष बतौर कन्हैया को पुलिस और सरकार ने जिस तरह उत्पीड़ित किया उसने कन्हैया के पक्ष में सहानुभूति भी पैदा की थी। कन्हैया के भाषण सोशल मीडिया में वायरल होते रहे हैं। देखना है कि कन्हैया के भाषणों का जादू बिहार चुनाव में कितना चलता है।
इसमें शक़ नहीं कि बिहार में वामपंथी दलों के पास अब भी कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है। इसके पीछे बिहार में वामपंथी आंदोलन का इतिहास है। ऐसे में महागठबंधन के साथ वामदलों का जुड़ना उसे काफ़ी ताक़त देगा और आरएसएस की मशीनरी का जवाब देने के लिहाज से भी यह अहम होगा। फिर भी यह सवाल तो बनता ही है कि अगर महागठबंधन की सरकार बन गयी तो बिना सरकार में शामिल हुए कम्युनिस्ट पार्टियाँ किस तरह से चुनावी वादे पूरी कर पायेंगी। या फिर उनकी मुद्रा बाहर से समर्थन देते हुए दबाव बनाए रखने की ही होगी। बीजेपी को रोकने की रणनीति के तहत उन्होंने महागठंबधन की गाड़ी में ‘लाल तेल’ डालने का फ़ैसला किया है, लेकिन इस प्रक्रिया में उनका कितना तेल निकलेगा या बचेगा, यह वक़्त बतायेगा।
मीडिया हल्कों में सीपी के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं। सी.पी. आजकल बिहार में अपने गांव में हैं और बिहार में बढ़ती चुनावी आहट और राजनीतिक सरगर्मियों को हम तक पहुँचाने के लिए उनसे बेहतर कौन हो सकता था।