भारत की सन 2011 की पिछली दशकीय जनगणना के अनुसार बिहार में कुल सात करोड़ वोटर थे. कोई पूछ सकता है बीते दस बरस में राज्य में 18 बरस की उम्र पूरी कर कितने नये वोटर बने हैं? ये कोई भारी गणित नहीं है. इसके आंकडे निकालने का एक तरीका ये भी है कि जनसंख्या में औसत सालाना वृद्धि की राष्ट्रीय और प्रदेश दर को 2011 की आबादी में जोड़-घटा कर मोटा हिसाब निकाल लिया जाये. सांख़्यिकी के उस्ताद चुट्की बजाकर ये हिसाब निकाल सकते हैं. वैसे, निर्वाचन आयोग ने नई विधानसभा के लिये चुनाव कराने की 25 सितम्बर को घोषणा करने के साथ ही कुछ डेटा दिये. आयोग का दिया डेटा यह भी है कि इस वर्ष सात फरवरी को जारी ड्राफ्ट वोटर लिस्ट में 15.35 लाख नये वोटर जोड़े गये हैं. ये वो मतदाता हैं जो 2019 के लोकसभा चुनाव के वोटर लिस्ट की तैयारी के बाद मताधिकार हासिल करने की उम्र के हुए और उनका नाम इस लिस्ट में पंजीकृत किया जा सका है. सम्भव है इसमें कुछ नाम डालने छूट गये हो और कुछ वोटिंग तक ये उम्र पूरी कर लें. इसीलिये ये फाइनल नहीं ड्राफ्ट लिस्ट ही है जिसमें और नये मतदाता के नाम निर्धारित प्रक्रिया के जरिये जोडे जा सकते हैं.
निर्वाचन आयोग ने सभी मतदाताओं का जातिगत ब्योरा नहीं दिया है क्योकि इसकी आधिकारिक जानकारी है ही नहीं. सांख़्यिकी के उस्ताद भी भारी से भारी और नये कम्प्यूटर आदि की मदद से वोटरो की जातिवार गणना नहीं कर सकते. क्योकि भारत में 1931 से ही दशकीय जनगणना में जातियो की गिनती बंद कर दी गई है.
अलबत्ता, दशकीय जनगणना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गिनती की जाती है. संसद द्वारा बनाये अधिनियम के तहत निर्वाचन क्षेत्रों का समय-समय पर नया भौगोलिक परिसीमन होता है और अनुसूचित जातियो और जनजातियो के लिए नये सिरे से सीटें आरक्षित की जाती हैं। भारत में 1872 से दशकीय जनगनणा की जा रही है. ब्रिटिश हुक्मरानी के राज में सन 1931 तक की दशकीय जनगणना में लोगो की जातिवार गिनती भी की जाती थी.
स्वतंत्र भारत में जातिवार गणना
स्वतंत्र भारत में अब तक सिर्फ एक बार जातिवार गणना की गई है. ये गणना केरल में 1968 में ईएमएस नम्बूदरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार ने विभिन्न ‘ निम्न ‘ जातियों के सामाजिक आर्थिक पिछ्डापन के आकलन के लिये कराई थी. उसे केरल के गजट में 1971 में प्रकाशित किया गया. सम्भव है कि हाल में बिहार समेत कुछ और राज्य की सरकार ने खास तरीके से जातिवार गणना की हो. लेकिन उनके गजट में प्रकाशन की खबर नहीं है.
समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास की ‘थ्योरी ऑफ़ सांस्कृताइजेशन’ के अनुसार भारत की ब्राह्मणवादी जातीय व्यवस्था के दबाव में गैर- द्विज जातिया अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने के लिये अपना जातिसूचक उपनाम द्विज की तरह रखने लगे. जैसे मिश्र, सिंह, ठाकुर आदि जो उपनाम आम तौर पर द्विज के होते हैं उन्हे गैर द्विज जातियो ने धारण करने शुरु कर दिये. ये प्रक्रिया केंद में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल आयोग की सिफारिश के अनुरूप अन्य पिछ्डे वर्ग की जातियो के लिये सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था लागू कर देने के बाद थम गई. लोग सरकारी नौकरी के लिये अपनी जाति को डिमोट करने लगे.
गौरतलब है कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और भारत सरकार के 1980 में बने ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’ के अध्यक्ष रहे दिवंगत बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल के पिता और 1911 में बनी ‘गोप जातीय महासभा’ (बाद में यादव महासभा ) के संस्थापक रासबिहारी लाल मंडल ने यादवों के ‘जनेऊ धारण आन्दोलन’ का नेतृत्व किया था
मंडल आयोग की 1980 की रिपोर्ट में देश की कुल आबादी में अन्य पिछड़े वर्ग की जातियो का अनुपात 52 प्रतिशत बताया गया था. लेकिन केंद्र सरकार के मातहत नेश्नल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन की 2006 की रिपोर्ट में यह 41 प्रतिशत ही बताया गया हैं.
अटकल थी कि अन्य पिछडे वर्ग की जातियों की वास्तविक गिनती के लिये 2011 की दशकीय जनगनणा में जातिवार गिनती फिर शुरु कर दी जायेगी. 3 जुलाई 2015 को तत्कालीन वित्त मंत्री ( अब दिवंगत) अरुण जेटली ने कहा था कि देश में सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के लिये जातिवार गणना की मांग स्वीकार कर ली गई है. उनकी घोषणा के बाद क्या कदम उठाये गये हैं इसका पता 2021 में निर्धारित अगले सेंसस में ही चल पायेगा.
फिलहाल तो हम ये निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बिहार के चुनाव में मतदाताओ की पिछड़ी, सवर्ण आदि जातियों के बारे मे मीडिया में जो आकडे दिये जा रहे हैं वे बिल्कुल विश्वसनीय नहीं हैं.
वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा का मंगलवारी साप्ताहिक स्तम्भ ‘चुनाव चर्चा’ लगभग साल भर पहले, लोकसभा चुनाव के बाद स्थगित हो गया था। कुछ हफ़्ते पहले यह फिर शुरू हो गया। मीडिया हल्कों में सीपी के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं। सी.पी. आजकल बिहार में अपने गांव में हैं और बिहार में बढ़ती चुनावी आहट और राजनीतिक सरगर्मियों को हम तक पहुँचाने के लिए उनसे बेहतर कौन हो सकता था।