आख़िरकार वही हुआ जिसका डर था। झारखंड के प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़ादर स्टेन स्वामी की मौत हो गयी । 84 साल के फ़ादर स्टेन स्वामी को पिछले साल 8 अक्टूबर को राँची स्थिति उनके आवास से पुलिस ने उठा लिया था। उन्हें भीमा कोरेगाँव केस में आरोपी बनाया गया था। बाद में कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया जहाँ उनकी स्थिति लगातार बिगड़ती गयी। उनके अच्छे इलााज के लिए की जाने वाली अपनीलें लगातार ख़ारिज की गयीं। फ़ादर स्टेन स्वामी ने जेल में अनशन भी किया था।
हाल ही में बहुत ज़्यादा तबीयत ख़राब होने की वजह से 30 मई को उन्हें हाईकोर्ट के आदेश पर मुंबई के होली फ़ैमिली अस्पताल में भर्ती कराया गया था। रविवार को स्थिति बेहद नाज़ुक हो गयी तो उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया, लेकिन सोमवार को बाम्बे हाईकोर्ट को जानकारी दी गयी कि उनका निधन हो गया।
फ़ादर स्टेन स्वामी की उम्र और बीमारी को देखते हुए देश भर के तमाम मानवाधिकारवादी और सामजिक कार्यकर्ता उन्हें रिहा करने की माँग कर रहे थे, लेकिन सरकार पर कोई असर नहीं हुआ।
देश भर में फ़ादर की मौत को लेकर राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में दुख की लहर है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गाँधी ने भी ट्विटर पर शोक जताया है।
Heartfelt condolences on the passing of Father Stan Swamy.
He deserved justice and humaneness.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) July 5, 2021
वहीं सीपीआईएमएल के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने स्टेन स्वामी के निधन को सांस्थानिक हत्या क़रार दिया है।
An ailing octogenarian human rights activist arrested on false charges under UAPA, his bail applications denied repeatedly, passes away in jail. Is the court now going to grant him posthumous bail? Let India rise in unison to condemn the brazen institutional murder of #StanSwamy. pic.twitter.com/hxvUTf3Zba
— Dipankar (@Dipankar_cpiml) July 5, 2021
अपनी गिरफ्तारी से दो दिन पहले फादर स्टेन स्वामी ने अपना बयान अपने साथियों को दिया था। यह बयान देश के हालात पर एक मार्मिक टिप्पणी है –
जीवन और मृत्यु एक है,
जैसे नदी और समुन्दर एक है
(कवि खलील जिब्रान)
क्या अपराध किया है मैंने?
पिछले तीन दशकों से मैंने आदिवासियों और उनके आत्मा-सम्मान और सम्मानपूर्वक जीवन के अधिकार के संघर्ष के साथ अपने आप को जोड़ने और उनका साथ देने का कोशिश की है। एक लेखक के रूप में मैने उनके विभिन्न मुद्दों का आकलन करने का कोशिश की है। इस दौरान मैंने केंद्र व राज्य सरकारों की कई आदिवासी-विरोधी और जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध अपनी असहमति लोकतान्त्रिक रूप से जाहिर की है। मैंने सरकार और सत्तारूढ़ी व्यवस्था के ऐसे अनेक नीतियों के नैतिक होने, औचित्य व क़ानूनी वैधता पर सवाल किया है।
- मैंने संविधान के पांचवी अनुसूची के गैर-कार्यान्वयन पर सवाल किया है। यह अनुसूची [अनुच्छेद 244(क), भारतीय संविधान] स्पष्ट कहता है कि राज्य में एक ‘आदिवासी सलाहकार परिषद’ का गठन होना है जिसमें केवल आदिवासी रहेंगे एवं समिति राज्यपाल को आदिवासियों के विकास एवं संरक्षण सम्बंधित सलाह देगी।
- मैंने पूछा है कि क्यों पेसा कानून को पूर्ण रूप से दरकिनार कर दिया गया है। 1996 में बने पेसा कानून ने पहली बार इस बात को माना कि देश के आदिवासी समुदायों का ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन का अपनी संपन्न सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास है।
- सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के समता निर्णय पर सरकार की चुप्पी पर मैंने अपनी निराशा लगातार जताई है। इस निर्णय [Civil Appeal Nos : 4601-2 of 1997] का उद्देश्य था आदिवासियों को उनकी ज़मीन पर हो रहे खनन पर नियंत्रण का अधिकार देना एवं उनकी आर्थिक विकास में सहयोग करना।
- 2006 में बने वन अधिकार कानून को लागू करने में सरकार के उदासीन रवैये पर मैंने लगातार अपना दुःख व्यक्त किया है। इस कानून का उदेश्य है आदिवासियों और वन-आधारित समुदायों के साथ सदियों से हो रहे अन्याय को सुधारना।
- मैंने पूछा है कि क्यों सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले- जिसकी ज़मीन, उसका खनिज- को लागू करने में इच्छुक नहीं है [SC: Civil Appeal No 4549 of 2000] एवं लगातार, बिना ज़मीन मालिकों के हिस्से के विषय में सोचे, कोयला ब्लाक का नीलामी कर कंपनियों को दे रही है।
- भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में झारखंड सरकार के 2017 के संशोधन के औचित्य पर मैंने सवाल किया है। यह संशोधन आदिवासी समुदायों के लिए विनाश का हथियार है। इस संशोधन के माध्यम से सरकार ने ‘सामाजिक प्रभाव आकलन’ की अनिवार्यता समाप्त कर दी एवं कृषि व बहुफसलिया भूमि का गैर-कृषि इस्तेमाल के लिए दरवाज़ा खोल दिया।
- सरकार द्वारा लैंड बैंक स्थापित करने का मैंने कड़े शब्दों में विरोध किया है। लैंड बैंक आदिवासियों को समाप्त करने की एक और कोशिश है क्योंकि इसके अनुसार गाँव की गैर-मजरुआ (सामुदायिक भूमि) ज़मीन सरकार की है न कि ग्राम सभा की। एवं सरकार अपनी इच्छा अनुसार यह ज़मीन किसी को भी (मूलतः कंपनियों को) को दे सकती है।
- हज़ारों आदिवासी-मूलवासियों, जो भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के अन्याय के विरुद्ध सवाल करते हैं, को ‘नक्सल’ होने के आरोप में गिरफ्तार करने का मैंने विरोध किया है। मैंने उच्च न्यायालय में झारखंड राज्य के विरुद्ध PIL दर्ज कर मांग की है कि 1) सभी विचाराधीन कैदियों को निजी बांड पर बेल पर रिहा किया जाए, 2) अदालती मुकदमा में तीव्रता लायी जाए क्योंकि अधिकांश विचाराधीन कैदी इस फ़र्ज़ी आरोप से बरी हो जाएंगे, 3) इस मामले में लम्बे समय से अदालतीमुक़दमे की प्रक्रिया को लंबित रखने के कारणों की जाँच के लिए न्यायिक आयोग का गठन हो, 4)पुलिस विचाराधीन कैदियों के विषय में मांगी गयी पूरी जानकारी PIL के याचिकाकर्ता को दे। इस मामले को दायर किए हुए दो साल से भी ज्यादा हो गया है लेकिन अभी तक पुलिस ने विचाराधीन कैदियों के विषय में पूरी जानकारी नहीं दी है। मैं मानता हूँ कि यही कारण है कि शोषण व्यवस्था मुझे रास्ते से हटाना चाहती है। और हटाने का सबसे आसान तरीका है कि मुझे फ़र्ज़ी मामलों में गंभीर आरोपों में फंसा दिया जाए और साथ ही, बेकसूर आदिवासियों को न्याय मिलने के न्यायिक प्रक्रिया को रोक दिया जाए।
मुझसे NIA ने पांच दिनों (27-30 जुलाई व 6 अगस्त) में कुल 15 घंटे पूछताछ की। मेरे समक्ष उन्होंने मेरा बायोडेटा और कुछ तथ्यात्मक जानकारी के अलावा अनेक दस्तावेज़ व जानकारी रखी जो कथित तौर पर मेरे कंप्यूटर से मिली एवं कथित तौर पर माओवादियों के साथ मेरे जुड़ाव का खुलासा करते हैं। मैंने उन्हें स्पष्ट कहा कि ये छलरचना है एवं ऐसी दस्तावेज़ और जानकारी चोरी से मेरे कंप्यूटर में डाले गए हैं और इन्हें मैं अस्वीकृत करता हूँ।
NIA की वर्तमान अनुसन्धान का भीमा-कोरेगांव मामले, जिसमें मुझे ‘संदिग्ध आरोपी’ बोला गया है और मेरे निवास पर दो बार छापा (28 अगस्त 2018 व 12 जून 2019) मारा गया था, से कुछ लेना देना नहीं है। लेकिन अनुसन्धान का मूल उद्देश्य है निम्न बातों को स्थापित करना – 1) मैं व्यक्तिगत रूप से माओवादी संगठनों से जुड़ा हुआ हूँ एवं 2) मेरे माध्यम से बगईचा भी माओवादियों के साथ जुड़ा हुआ है। मैंने स्पष्ट रूप से इन दोनों आरोपों का खंडन किया।
छः सप्ताह चुप्पी के बाद, NIA ने मुझे उनके मुंबई कार्यालय में हाजिर होने को बोला है। मैंने उन्हें सूचित किया है कि 1) मेरे समझ के परे है कि 15 घंटे पूछताछ करने के बाद भी मुझसे और पूछताछ करने की क्या आवश्यकता है , 2) मेरी उम्र (83 वर्ष) व देश में कोरोना महामारी को देखते मेरे लिए इतनी लम्बी यात्रा संभव नहीं है। झारखंड सरकार के कोरोना सम्बंधित अधिसूचना अनुसार 60 वर्ष से अधिक उम्र के बुज़ुर्ग व्यक्तियों को लॉकडाउन के दौरान नहीं निकलना चाहिए, एवं 3) अगर NIA मुझसे और पूछताछ करना चाहती है, तो वो विडियो कांफ्रेंस के माध्यम से हो सकता है।
अगर NIA मेरे निवेदन को मानने से इंकार करे और मुझे मुंबई जाने के लिए ज़ोर दें, तो मैं उन्हें कहूँगा कि उक्त कारणों से मेरे लिए जाना संभव नहीं है। आशा है कि उनमें मानवीय बोध हो। अगर नहीं, तो मुझे व हम सबको इसका नतीज़ा भुगतने के लिए तैयार रहना है।
मैं सिर्फ इतना और कहूँगा कि जो आज मेरे साथ हो रहा है, ऐसा अभी अनेकों के साथ हो रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, लेखक, पत्रकार, छात्र नेता, कवि, बुद्धिजीवी और अन्य अनेक जो आदिवासियों, दलितों और वंचितों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं और देश के वर्तमान सत्तारूढ़ी ताकतों की विचारधाराओं से असहमति व्यक्त करते हैं, उन्हें विभिन्न तरीकों से परेशान किया जा रहा है।
इतने सालों से जो संघर्ष में मेरे साथ खड़े रहे हैं, मैं उनका आभारी हूँ।
स्टेन स्वामी
भीमा कोरेगांव केस: मुंबई के तालोजा जेल भेजे गए फ़ादर स्टेन स्वामी