रेप पर विवेकशील बात करने की हालत में हमारा समाज नहीं है. हर रेप पर हाय-हाय करने वाले ख़ुद रेप -संस्कृति का हिस्सा हैं. तमाम सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक,धार्मिक, पारिवारिक ढांचों में, आपकी भाषा, कला और सांस्कृतिक ढांचों में रेप की जगह मौजूद है और सबसे बढ़कर इस समय के अन्धराष्ट्रवाद यानि राष्ट्र में रेप एक सहज स्वाभाविक बात है. इसे बनाए रखने में सबका हाथ है. आप अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ खींचकर अटारी पर बैठकर रेपिस्ट के लिये सज़ा की मांग करते हैं. कुछ लोग फांसी-फांसी चिल्लाने लगते हैं.
स्त्रियों को कमतर समझने, उनके प्रति संरक्षणवादी रुख़ अपनाने हवाई उदारतावादी लफ्फ़ाज़ी में अधिकांश समाज हिस्सा लेता है. वास्तविक सक्रिय रेप -विरोध का रुख़ अपनाने की मंज़िल अभी न केवल दूर है बल्कि हमारा समाज उस दिशा में पीठ किये खड़ा है. सबसे पहले तो औरतों के बारे में सम्मानजनक ढंग से बात करना सीखिये. सामाजिक समस्या पर बात करते हुए मां, बहन, बहू, बेटी, बिटिया इन शब्दों का इस्तेमाल बन्द कीजिये. सम्बन्धों की ये सभी श्रेणियां स्त्री का अवमूल्यन करती हैं. हमारे समाज में इन सभी सम्बन्धों में स्त्रियां हिंसा, उत्पीड़न, और निरन्तर दैनिक शोषण की शिकार होती हैं. पिता के मुकाबले मां, बहन के मुकाबले भाई, बहू के मुकाबले बेटा और पत्नी के मुकाबले पति, ये सब सामाजिक सत्ता और अन्य सत्ताओं के मेल से पुरुष सत्ता का झंडा गाड़ने वाली श्रेणियां हैं. स्त्रियों से जुड़े मां बहन, बहू ,बेटी जैसे सम्बोधन पुरुष अधीन ,उससे कमतर मानी जाने वाली श्रेणियां हैं .
स्त्री को स्वतंत्र श्रेणी के रूप में स्वीकार न करने का हठ छोड़कर उन्हें महिलाओं ,स्त्रियों, युवा महिलाओं, छात्राओं, किसान औरतों, मज़दूर औरतों आदि के रूप में चिन्हित करें और सम्बोधित करें. चूंकि समाज स्त्री आधीनता का हिमायती है इसलिए हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों में रेपिस्ट, स्त्रियों पर हिंसा करने वाले बड़ी संख्या में मौजूद हैं. हमारे सुप्रीम कोर्ट के जज यौन उत्पीड़न का आरोप लगने पर ख़ुद ही मामले की सुनवाई करके अपने को क्लीन चिट दे देते हैं. इसी तरह सामाजिक सत्ता सम्पन्न सामान्य पुरुष भी हर दिन स्त्रियों के सन्दर्भ में अपने को क्लीन चिट देते हैं और सफेदपोश बने रहते हैं. स्त्रियों में भी रेप का समर्थन मौजूद है.आशाराम की भगतिनों से लेकर आसिफ़ा केस के सन्दर्भ मे निकले राष्ट्रवादी जुलूस याद कीजिये.
हमारे DGP अपनी पत्नी से मारपीट करते हुए कह रहे हैं “मेरी लाईफ़ है.” हरियाणा के DGP जिनकी वजह से 14 साल की रुचिका ने आत्महत्या की, शायद किसी को वो केस याद हो. कोई रठौर, जो क्लीन चिट लेकर घूम रहा है. ब्राह्मण सभा, राजपूत सभा जैसी जातिवादी सभाओं का बलात्कारियों के पक्ष में मोबलाइजेशन मैं 80के दशक से देख रही हूं. महिला आन्दोलन की संगठनकर्ता के तौर पर सक्रिय भी रही. हमारे स्कूल एक बच्ची को इसलिये स्कूल से निकाल देते हैं कि उसके साथ रेप हुआ.
आज के दौर की तो क्या कहें .बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा लेकर जुलूस निकलते है, सार्वजनिक सभाओं में रेप का आह्वान किया जाता है. स्वयंभू पंचायतें रेपिस्टों को बचाती हैं. पंचायत में फैसला लेकर सामूहिक रेप किया जाता है. उच्च शिक्षा में ऊंचे मानदंड कायम करने वाली लड़कियों से रेप होता है.
उन्नाव रेप केस में सरकार, प्रशासन के रुख़ के बाद रेप क्यों नहीं बढ़ेंगे? लखीमपुर खीरी में नाबालिग बच्चियों के साथ रेप की तीन घटनाएं अभी घटित हुईं हैं. हमारे यहां कस्टडी रेप के खि़लाफ मथुरा केस यानि 70 के दशक से संघर्ष चल रहे हैं. रेपिस्ट को राजनीतिक ढांचे, परिवार, पंचायत, धार्मिक मठ , न्याय का ढांचा सब मिलकर बचाते हैं. लड़कियों, छात्राओं का मनोबल तोडने वाली सभी ताक़तें बलात्कार को समान्य बनाती हैं.
शिक्षण संस्थाओं में छात्राओं के आन्दोलनों को कुचलना भी बलात्कार, यौन हिंसा और लड़कियों के उत्पीड़न को सामान्य सहज परिघटना की तरह स्थापित करता है. नताशा नरवाल ,देवांगना कलिता, गुलफ़िशा फा़तिमा, इशरतजहां जैसी युवा लड़कियों को जेल मे डालना उन पर अंट-शंट मुकदमे बनाना, यहां तक कि पढ़ने वाली लड़कियों पर राजद्रोह और आतंकवाद के केस बनाना, छात्र आन्दोलन को कुचलना. ये सब रेप संस्कृति के निर्माण की दिशा में उठाये गये कदम हैं और रेप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का हिस्सा है.
तो मेरे समाज के इज़्ज़तदार सज्जन लोगो, रेप होने पर आपकी हाय-हाय क्षणिक भावाकुलता तो दिखाती है, साथ ही स्त्रियों के सम्मान के सन्दर्भ में आपके बनावटी सरोकारों की पोल भी खोलती है. चुप्पी और हाय-हाय को छोड़कर इस समस्या पर विचार करने का मन बनाइये.
शुभा हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री हैं।