अभिषेक श्रीवास्तव
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”मैं बहुत छोटा सा आदमी हूं, बीच में सर बहुत बड़ा है। मैं वहां आ जाऊं?” यह पहला वाक्य था जिससे अपनी दाहिनी ओर बैठे झारखण्ड के प्रो. दिवाकर मिंज को ‘बहुत बड़ा’ कहते हुए बस्तर के विवादास्पद पूर्व पुलिस महानिरीक्षक एसआरपी कल्लूरी सत्र-संचालक राजीव रंजन प्रसाद के बगल में आकर बैठ गए। ज़ाहिर है, चार मंचस्थ व्यक्तियों में किसी केंद्र का होना संभव नहीं था, लेकिन संचालक के ठीक बाद पहले स्थान पर बैठना बिलकुल मुमकिन था। कल्लूरी ने वही किया। उस वक्त उनके पैरों पर मेरी निगाह गई। काफी मोटे तल्ले का वुडलैंड-सा दिखने वाला जूता उन्होंने पहन रखा था। करीब डेढ़ इंच ऊंचा रहा होगा। उनकी शख्सियत बेहद साधारण थी, लेकिन उसमें एक अजीब किस्म की असामान्यता ज़ाहिर हो रही थी।
दरअसल, हम लोग इंसानों को दूर से देखने के आदी हैं। सामने पड़ने पर भी हम लोगों को वैसे ही देखते रहते हैं जैसा पहले से देखते आए हैं। इसीलिए हमारा देखना कभी पूरा नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ के पत्रकारों ने कल्लूरी को देखा होगा, बात भी की होगी, लेकिन मेरे लिए और दिल्ली के तमाम पत्रकारों के लिए यह उनके साथ पहला साक्षात्कार था। जिसके बारे में आप बरसों से सुनते आए हों और एक निश्चित धारणा बना चुके हों, उसे अचानक एक दिन देख लेना और सुन लेना एक विशिष्ट परिघटना है। उस दिन एक साधारण सी पैंट और शर्ट के साथ काले रंग का कोट पहने कल्लूरी पुलिस कम, वकील ज्यादा लग रहे थे। अख़बारों और वेबसाइटों पर उनकी जैसी तस्वीरें हम देखते आए हैं, उसके मुकाबले थोड़ा ज्यादा सौम्य और कुछ कम आक्रामक भी। उनकी देह-भंगिमा सहज नहीं थी, सतर्क थी। दोनों पैरों को उन्होंने ”क्रिसक्रॉस” कर रखा था और माइक भी दोनों हाथों से पकड़ रखा था। आम तौर से सेमिनार आदि में हम एक हाथ से माइक पकड़ कर बोलते हुए लोगों को देखते हैं।
कुल मिलाकर उनके बैठने में ग़ज़ब की सिमेट्री थी। पीठ पीछे की ओर हलका-सा झुकी हुई लेकिन सीधी, दोनों हाथ माइक को पकड़े हुए अंग्रेज़ी का वी अक्षर उलटा बना रहे थे और दोनों पैर एक-दूसरे को काटते हुए सीधे वी अक्षर सा आभास दे रहे थे। उनकी आंखें बोलते हुए पूरे सभागार पर नज़र रखे हुए थीं। ऐसा लगा कि दो-तीन बार उन्होंने मेरी ओर देखा। वे तकरीबन ऐसी स्थिति में थे कि सबको एक साथ देख सकते थे और किसी को भी अहसास करा सकते थे कि वे उसे ही देख रहे हैं। उनकी आंखों में एक किस्म की निस्पृहता थी। भावशून्य आंखें। एक वेंकैया नायडू हैं जो दक्षिण भारतीय लहजे वाली हिंदी में जब मज़ाक करते हैं तो उन्हें देखकर ही हंसी आ जाती है, चुटकुला बाद में समझ आता है। दूसरे कल्लूरी थे जिनके लतीफ़ों का उनकी शारीरिक मुद्राओं से, चेहरे की झुर्रियों के हिलने से या खुद की संतुलित हंसी से कोई ताल्लुक नहीं था। पौन घंटे के भाषण में कई बार कल्लूरी ने जो लतीफ़े सुनाए, वे अकसर एक बेहद गंभीर बात से ठीक पहले कहे गए। इस तकनीक का एक लाभ यह होता है कि टेक पर यानी सबसे गंभीर वाक्य पर आते ही श्रोता उससे पहले वाले प्रसंग के साथ वाक्य का रिश्ता जोड़ कर सहज ही हंस देता है। इस तरह दो काम बन जाते हैं- गंभीरतम बातों पर तर्क की गुंजाइश हंसी के ठहाकों में तिरोहित हो जाती है, साथ ही जघन्यतम बातों को पुष्ट करने में लतीफ़ों की बर्बरता भी सामने आ जाती है। हंसने वाले को ये दोनों बातें पता नहीं चलती हैं- यह वक्ता की तीसरी और सबसे अहम उपलब्धि होती है। कल्लूरी अपने पूरे भाषण के दौरान इन तीनों बातों में कामयाब रहे।
कल्लूरी 26 मई, 1994 में पहली बार दिल्ली आए थे यूपीएससी का इंटरव्यू देने। उनका साक्षात्कार अंत में था। अपनी बारी के इंतज़ार में बैठे-बैठे उन्हें जो तनाव उस दिन महसूस हुआ था, बिलकुल वैसा ही तनाव 23 साल बाद उन्हें पहली बार शनिवार को आइआइएमसी में हुआ। उन्हें बताया गया था कि भीड़ बहुत ‘होस्टाइल’ है। कोई जूता मारेगा, कोई पत्थर मार सकता है, कोई इंक फेंक सकता है। इतना बताने के बाद वे बोले, ”आप लोग तो बहुत प्यारे बच्चे हैं। आप लोगों को देख के मेरा टेंशन दूर हुआ।” यह भाषण का पहला प्रसंग है जो दो मिनट पांच सेकंड पर खत्म हुआ। और इसी वाक्य के साथ कल्लूरी ने खुद को आश्वस्त कर लिया कि सबसे अहम बात अब हो चुकी और आगे सब कुछ ठीक ही रहेगा। उनके ”प्यारे बच्चे” ने स्मृति ईरानी के ”बच्चों” की याद दिला दी, जब वे संसद में रोहित वेमुला कांड पर बोल रही थीं। आइआइएमसी के सभागार में अगर कल्लूरी को सुनने के लिए उस वक्त सौ श्रोता रहे होंगे, तो उनकी न्यूनतम अवस्था आइआइएमसी से पास होने वाली उम्र यानी 21 साल रही होगी और ऐसे छात्रों की संख्या दर्जन भर से ज्यादा नहीं थी। बाकी के 80 फीसदी श्रोताओं की औसत उम्र 35 से 40 के बीच कुछ भी मानी जा सकती है।
भाषण आगे निर्विघ्न जारी रहने की ठोस आत्म-आश्वस्ति के बाद कल्लूरी ने अपने बारे में बोलना शुरू किया। ”कल्लूरी मतलब कोई छह फुट रावण के जैसा, बड़ी-ब़ड़ी मूंछ, बाहुबली टाइप ऐसा लोग सोचते हैं… यही है कल्लूरी… कुछ नहीं। परसेप्शन चेंज करना पड़ता है।” जिस दौर में फेसबुक की प्रोफाइल फोटो के सहारे से दो अनजान लोग इतनी बड़ी दुनिया में एक-दूसरे को पहचान लेते हों, वहां कोई जीवित मनुष्य जो एक छोटी-मोटी किंवदंती-सा बन चुका हो, अपनी शारीरिक लक्षणाओं के बारे में दूसरों के द्वारा कल्पना कर लेने की बात कह रहा हो, तो यह मामूली बात नहीं है। यह रीयल नहीं है। जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, ”सर्रीयल” है यानी अवास्तविक। यह एक स्वप्निल दुनिया में जीने जैसी बात है। व्यक्ति अपने बारे में एक झूठी कल्पना करता है, या कल्पना करने की चाह रखता है, और फिर उससे बनी छवि को दूसरे के ऊपर थोप देता है। अपनी शारीरिक बनावट के संबंध में ”बहुत छोटा सा आदमी” के प्रयोग को आप ”छह फुट के रावण”, ”बड़ी-बड़ी मूंछ” और ”बाहुबली” के साथ रख कर देखिए। आप समझ पाएंगे कि भावशून्य आंखों के ठीक ऊपर जो दिमाग काम कर रहा है, वह कैसे सोचता है।
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कल्लूरी को सुनना एक डार्क फिल्म से गुज़रने जैसा है। डार्क फिल्में अनुराग कश्यप भी बनाते हैं, लेकिन डार्क छवियां गढ़ने में अपने उस्ताद से काफी पीछे हैं। उस्ताद यानी रामगोपाल वर्मा, जिन्हें दो किरदारों के बीच का संवाद सुनाना हो तो कैमरे का फोकस कमरे में दोनों के ठीक बीच रखी एक बुलडॉग की मूर्ति पर होता है। जब दो प्रेमी बात कर रहे होते हैं तो कैमरा प्रेमिका की बेचैन उंगलियों को दिखाता है। रामू के किरदार कहते कुछ हैं, रामू दिखाते कुछ और हैं। इसीलिए बिलकुल फेस वैल्यू पर लिए जा सकने वाली सहज बात को भी दर्शक पूरी भव्यता और आक्रामकता में ग्रहण करता है। इस तरह बनता है हकीकत का एक परसेप्शन।
”परसेप्शन”… इसी शब्द से एसआरपी कल्लूरी ने ‘काम की बात’ शुरू की। ”छोटा सा आदमी” कैसे अपने ”बाहुबली” होने का परसेप्शन गढ़ता है, कल्लूरी का भाषण इस कला का अप्रतिम नमूना है। उनका भाषण रामू का कैमरा है। आपको कान खुले रखते हुए कैमरे से भीतर देखना होगा। कायदे से शुरुआती दो मिनट ही इस पौन घंटे के भाषण का सार हैं, लेकिन परसेप्शन क्रिएशन यानी धारणा-निर्माण की प्रक्रिया में उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को समझने के लिए आगे बात करना ज़रूरी है। वे कहते हैं कि वे तीन अलग-अलग धारणाओं को महसूस करते हैं- एक बस्तर, दूसरा रायपुर और तीसरा दिल्ली। हकीकत एक है, लेकिन उसे लेकर तीनों जगहों की धारणाओं में फ़र्क है। बस्तर को दिल्ली या रायपुर में रह कर नहीं समझा जा सकता है। इसलिए उनका सारा काम इन तीनों धारणाओं के बीच की दूरी को पाटना है। सवाल उठता है कि वे जिस परसेप्शन की बात कर रहे हैं वह क्या है?
उनका कहना है कि दिल्ली में बैठे चंद लोग बस्तर के बारे में परसेप्शन बनाने का काम कर रहे हैं। ”उस नैरेटिव को, उस स्क्रिप्ट को चेंज करने का समय आ चुका है”- यानी धारणाओं के फ़र्क को पाटने का मतलब हुआ अपनी धारणा को तीनों जगह बराबरी से लागू करना। आप अपनी धारणा को लागू कैसे करेंगे? बहुत सीधा-सा जवाब है- ”मैं बस्तर के चालीस लाख लोगों के बिहाफ पर बोल सकता हूं।” यह मोडस ऑपरेंडी ध्यान से समझिए- आपने पहले मान लिया कि आप जनता के प्रतिनिधि हैं, उसके बाद इस जनता के ‘बिहाफ’ पर आपने तय किया कि कौन सा नैरेटिव प्राथमिक होना चाहिए, इस आधार पर आपने दूसरे नैरेटिव को समाप्त करने की योजना बना ली क्योंकि वह ‘चंद लोगों’ का गढ़ा हुआ है। आगे बढ़ते हैं।
कल्लूरी एक लतीफ़ा सुनाते हैं। कायदे से इसे लतीफ़ा नहीं कहा जाना चाहिए, लेकिन श्रोताओं की हंसी उसे लतीफ़े में तब्दील कर देती है। वे बताते हैं कि वे पत्नी पीडि़त संघ के संस्थापक सदस्य हैं। उनके संघ में विवाह को इस तरीके से परिभाषित किया जाता है कि दो लोग साथ आकर एक ऐसी समस्या को सुलझाने में जिंदगी बिता देते हैं जो समस्या कभी थी ही नहीं। सभागार में बैठे नब्बे फीसदी पुरुषों को यह चुटकुला भाता है और जब तक वे इसके प्रमाद से बाहर निकलते, कल्लूरी इसकी तुलना आंध्र प्रदेश से बस्तर में आए नक्सलवादियों से कर डालते हैं कि जो आदिवासी पहले से बहुत खुश थे, उन पर नक्सलवाद को थोप दिया गया जबकि उन्हें उसकी ज़रूरत नहीं थी। यहीं से समस्या पैदा हो गई। आदिवासियों को नक्सलवाद की ज़रूरत नहीं थी, यह बात समझी जा सकती है लेकिन विवाह से उसकी तुलना? स्त्री-पुरुष को तो एक-दूसरे की ज़रूरत होती है। यह एक जैविक ज़रूरत है। क्या कल्लूरी प्रकारांतर से कहना चाह रहे थे कि इस ज़रूरत को बिना विवाह के पूरा किया जा सकता है? क्योंकि विवाह तो समस्या पैदा करता है? नक्सलवादियों के बस्तर आने को उन्होंने ”ज्यॉग्राफिकल एक्सिडेंट” यानी भौगोलिक हादसे का नाम दिया। क्या विवाह एक भौगोलिक हादसा है?
अपने भाषण में पहली बार ‘पत्नी’ का उपहास करते हुए वे आगे बढ़ते हैं और उस तार्किक परिणति तक पहुंच जाते हैं जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यूपी चुनाव प्रचार के दौरान पहुंच गए थे। फ़कीर- मोदी के बाद यह शब्द हाल के राजनीतिक डिसकोर्स में दूसरी बार सुनाई दिया 20 मई को जब अगला किस्सा सुनाने से पहले कल्लूरी बोले, ”एक फ़कीर, मेरे टाइप…”। उन्होंने श्रोताओं में कुछ लोगों के ऊंघने पर चुटकी लेते हुए किस्सा शुरू किया, ”एक फ़कीर मेरे टाइप एक राजा के पास जाता है और एक गाना गाता है। राजा बोलता है वाह, बहुत बढि़या गाना गाए हो, तुमको मैं चांदी का आभरण दूंगा…।” फ़कीर और गाता है, राजा उसे और देता जाता है और इस तरह राजा उसे अपना आधा राज्य दे देता है। फ़कीर खुश होकर घर आ जाता है। अपनी पत्नी को पूरी कहानी सुनाता है। फिर दंपत्ति ईनाम का इंतज़ार करता है, लेकिन महीने दो महीने के बाद उसकी पत्नी पूछती है कि कोई नहीं आया। वे कहते हैं, ”पत्नी बोलती है, राजा के पास जाओ। पत्नी का आदेश हो तो जाना ही पड़ता है। शादीशुदा लोग समझ सकते हैं।” फ़कीर राजा के पास जाता है। पूछता है। राजा कहता है कि तुम तो वैसे भी फ़कीर हो। राजा बोला, ”तुम कुछ गा रहे थे जो मेरे कान को अच्छा लगा। मैंने कुछ तुमसे कहा तो तुम्हारे कान को अच्छा लगा। हो गया।”
जनता ठहाके लगाती है। इसी बीच बिलकुल अगला वाक्य एजेंडे पर:
”नक्सलाइट आदिवासियों के साथ यही कर रहा है। तुम्हारा राज आएगा, अपना सरकार है। क्या सरकार है? आदिवासी परेशान है। क्या सरकार? ये कोई रामगोपाल वर्मा का सरकार वन टू थ्री है क्या? केंद्र सरकार आदमी समझता है, राज्य सरकार समझता है, जनताना सरकार? ये क्या? एक समाज में कितने सरकार होंगे? भारत देश में जनताना सरकार क्या है? एक समाज में एक आर्मी होता है। पीएलजीए क्या? पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी।”
अभी रामगोपाल वर्मा के जि़क्र पर हंसी रुकी नहीं थी लेकिन कल्लूरी का स्वर पूरी तरह गंभीर हो चुका था। उन्होंने शब्दों को चबाते हुए पहले व आखिरी शब्द पर ज़ोर देकर कहा: ”सच्च फोर्सेज़ शुड बी क्रश्श्श्ड”…। श्रोता इसे समझे, उससे पहले ही इसे आत्मसात करा देने वाला दूसरा वाक्य: ”देयर इज़ नो ऑप्शन…” (ऐसी ताकतों को कुचल देना चाहिए। कोई और विकल्प नहीं है)।
परसेप्शन बदलने की ज़रूरत से बात शुरू कर के उसे पैदा करने वालों की पहचान और फिर उन्हें कुचल देने का निर्विकल्प तर्क- इसे ग़ौर से समझिए। अगर जंग परसेप्शन की है और उद्देश्य परसेप्शन के फ़र्क को पाटना है (जैसा कि शुरू में उन्होंने कहा), तो क्रिया भी परसेप्शन के स्तर पर ही होनी चाहिए थी- मतलब परसेप्शन बनाने वाले औज़ारों के इस्तेमाल से की जा सकने वाली क्रिया। लेकिन यहां तो परसेप्शन को नहीं, उसे बनाने वालों को खत्म करने की बात की जा रही है। इसका मतलब यह है कि परसेप्शन की लड़ाई का हवाला भी एक ‘परसेप्शन निर्माण’ का ही अंग है जिसमें आपको भरोसा तो यह दिलाया जा रहा है, लेकिन हो कुछ और रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि परसेप्शन एक आड़ है जिसके पीछे विरोधी परसेप्शन बनाने वालों को खत्म किया जाना असल उद्देश्य है। इसे इकलौता विकल्प भी बताया जा रहा है। आखिर इस थियरी तक कैसे एक पुलिसवाला पहुंचता है?
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सरकार-3 में अमिताभ बच्चन (सुभाष नागरे) का आखिरी डायलॉग सबसे मारक है: ”राजनीति को समझने के लिए सबसे पहले परिवार के भीतर की राजनीति को समझने की ज़रूरत है। अंग्रेज़ी में जिसे पैलेस पॉलिटिक्स कहते हैं।” कल्लूरी कहते हैं कि सरकार एक ही होनी चाहिए, रामू की सीक्वेल की तरह वन, टू, थ्री नहीं। उन्हें रामू की ‘सरकार’ यानी सुभाष नागरे से परहेज़ नहीं है। बस, वे इतना चाहते हैं कि एक झटके में सरकार का राज कायम हो। बार-बार उसके लिए फिल्म न बनानी पड़े। इसकी प्रेरणा वे अपने परिवार से लेते हैं। वे बार-बार पत्नी का जि़क्र करते हैं। पति-पत्नी के रिश्ते की राजनीति के माध्यम से वे बताते हैं कि परिवार की विडंबना क्या है और इस विडंबना का अंत कर के परिवार में एकछत्र राज कैसे कायम किया जाए।
कल्लूरी के मुताबिक बस्तर की विडंबना है कि आदिवासी दोनों तरफ से पिस रहा है- नक्सल से भी और पुलिस से भी। कैसे? पत्नी और फ़कीर के किस्सों से अब तक धारणा निर्माण का जो खेल चल रहा था, वह एक बार फिर से निजी अनुभव की ओर मुड़ता है। वे 2004 की एक घटना बताते हैं जिसमें एक सरपंच पति (तीसरी बार पति-पत्नी का हवाला जिसमें वे बताते हैं कि वहां सरपंच पति खुद को ‘एसपी’ कहता है) के घर पर खाना खाने के बाद नक्सलियों ने उसकी बेटी, बहु और पत्नी के साथ अत्याचार व दुष्कर्म किया, फिर नक्सलियों को खाना खिलाने के जुर्म में पुलिस उसे थाने पकड़ लाई और उस से मारपीट की। कल्लूरी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने मामले को अपने हाथ में ले लिया। देखिए उनके शब्द, कि आगे क्या हुआ:
”जब उस व्यक्ति ने मुझे ये समझाया तो मुझे बहुत खराब लगा। बाद में उस व्यक्ति की मदद से वहां पर हम लोग बहुत अच्छा एनकाउंटर किए और जो दुष्कर्म किया, वो लोग अभी यहां नहीं है… चले गए कहीं… ऊपर।” ऐसी कई घटनाओं के आधार पर उनके भीतर यह ‘परसेप्शन’ पैदा हुआ कि आदिवासी दरअसल नक्सलियों से परेशान हैं। इसीलिए उन्होंने नक्सल फील्ड में अपना हाथ डाला।
”बहुत अच्छा एनकाउंटर”- शब्दों का यह प्रयोग दुर्लभतम है। ”चले गए कहीं… ऊपर” में एक निष्काम भाव है। उनके ”ऊपर” जाने के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। आइए, इसे ज़रा समझें। स्लावोज़ जिज़ेक ने अपनी एक पुस्तक में बोधिसत्व की अवस्था की असंभव तुलना नाजि़यों और जापानियों द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध में की गई हत्याओं के साथ की है। बौद्ध धर्म की अपनी आलोचना के लिए जिज़ेक डीटी सुजुकी और वर्नान टर्नर के उद्धरणों का इस्तेमाल स्रोत के तौर पर करते हैं। वे कहते हैं कि बौद्ध दर्शन के अनुसार जो व्यक्ति निर्वाण की अवस्था को प्राप्त हो जाता है, वह हत्या, उत्पीड़न, अत्याचार आदि बिना यह सोचे अबाध ढंग से कर सकता है कि उसके कर्म का कोई फल नहीं होगा। न तो अच्छा, न ही बुरा। फल ही नहीं होगा क्योंकि फल उसके कर्म का होता है जो सांसारिक हो। निर्वाण को प्राप्त व्यक्ति अपने कर्मों की छाप इस जगत में नहीं छोड़ता, बल्कि उससे दो कदम आगे जाकर वह दूसरे को पाप से बचाने के लिए खुद पाप करता है। चीन के खिलाफ युद्ध में जिज़ेक उन जापानी बौद्धों का हवाला देते हैं जिन्होंने वहां जापानी और नाज़ी सिपाहियों द्वारा की गई हत्याओं को इस दलील से जायज़ ठहराया था कि वह जंग चीन को ज्यादा सुखी और संपन्न बनाने के लिए थी।
एसआरपी कल्लूरी के शब्दों में वही कनविक्शन है। वे आदिवासियों को नक्सलियों से बचा रहे हैं क्योंकि उन्हें कुछ घटनाओं से ‘बुरा लगा’ था। उनके भीतर एक धारणा बनी। इस धारणा ने उन्हें ‘प्रेरित’ किया कि उन्हें केवल एनकाउंटर नहीं, ”बहुत अच्छा एनकाउंटर” करना होगा और आदिवासियों के दुश्मनों को ”ऊपर” पहुंचाना होगा। उन्हें इस बात का मलाल नहीं है कि उनके हाथों हत्या हुई है क्योंकि वे एक धारणा से बंधे हैं कि यह हत्या अच्छे उद्देश्य के लिए हुई है। वे उसे हत्या भी नहीं मानते। बस, ”चले गए… ऊपर”। यह एक सामान्य पुलिसवाले का बयान नहीं हो सकता। यह हत्या में निर्वाण की तलाश कर रहे व्यक्ति का आत्मकथ्य है। यह निर्वाण निजी नहीं है। बस्तर के ‘चालीस लाख’ लोगों का सामूहिक निर्वाण है। गोया कल्लूरी ‘चालीस लाख’ लोगों की सलीब अपने कंधे पर ढो रहे हैं। इसके लिए ”धर्मयुद्ध” से बेहतर शब्द नहीं हो सकता। ज़ाहिर है, ऐसे धर्मयुद्ध ‘बाहुबली’ ही लड़ा करते हैं।
यह संयोग नहीं है कि कल्लूरी रामगोपाल वर्मा का नाम लेते हैं। सुनहरे परदे पर हमारे समय के सबसे ‘अच्छे’ खलनायकों का निर्माण रामू ने किया है। वास्तव में, खलनायकों को नायक बनाने की शुरुआत रामगोपाल वर्मा की फैक्ट्री से ही हुई थी। बीस साल पहले आई ‘सत्या’ में सत्या का किरदार निभाने वाले चक्रवर्ती को याद करिए। बेहद ठंडा किरदार है। उसके इश्क़ में भी ठंडक है और उसकी हत्याओं में भी। वह मज़ाक भी ठंडा करता है। उसके चेहरे से आप उसके भीतर चल रहे भाव नहीं पढ़ पाएंगे। उसकी आंखों में आपको कुछ नहीं दिखेगा। उसका कनविक्शन, संकल्प ही उसकी गवाही है। रामू ने बाद में ऐसे कई किरदार गढ़े, लेकिन सत्या अमर हो गया। और भी कल्लूरी होंगे देश में, लेकिन एसआरपी कल्लूरी केवल एक है। हमारा साक्षात्कार एक ऐसे पात्र से हो रहा था जिसे इतिहास में अमर होना है। कल्लूरी का जीवन सामान्य जीवन नहीं, अमरता का एक प्रोजेक्ट है। इस प्रोजेक्ट के आगे बाकी सब मर्त्य है।
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कल्लूरी हालांकि किसी गल्प कथा का पात्र नहीं हैं। वे लोकतंत्र में जी रहे एक नागरिक हैं। नागरिकों के पहरेदार भी हैं। क्या संविधान से बंधे एक लोकतंत्र में ऐसी अमरता की छूट संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति को दी जा सकती है? यह सवाल कल्लूरी पर लागू नहीं होता है। वे कहते हैं कि बचपन में सिखाया गया था कि सवाल कोई भी हो, परीक्षा में जवाब वही दो जो तुमको आता है। एक सवाल पूछा गया उनसे कि क्या बस्तर में संविधान लागू है? उन्होंने जवाब दिया कि ”मैं तो वही बोलूंगा जो मैंने किया है।” वे कहते हैं कि एनएचआरसी आदि तमाम एजेंसियों के नोटिस से वे बिलकुल भी नहीं घबराते और धड़ल्ले से अपना काम करते हैं। बस्तर में संविधान का नहीं पता, लेकिन वे खुद दरअसल ‘बोधिसत्व’ की उस अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं जो सांसारिक दायरों से मुक्त है। वे ‘फ़कीर’ हैं। उनका अपना एक सत्य है। वे उस सत्य के लिए काम कर रहे हैं। इस सत्य के लिए वे बाकी सत्य-साधकों का ‘वध’ कर रहे हैं। उनके मुताबिक ऐसे सत्य-साधकों की संख्या चालीस लाख में पांच है।
पत्रकार विश्वदीपक कुछ पीडि़त पत्रकारों के नाम लेकर उनसे पूछते हैं कि ”कमल शुक्ला, संतोष यादव जैसे बहुत सारे पत्रकारों ने लिखा है कि आप उन्हें डराते-धमकाते हैं, आखिर आपकी पत्रकारों से क्या दुश्मनी है”। कल्लूरी उनसे संख्या गिनवाने को कहते हैं। पत्रकार दो से तीन तक आता है तो कल्लूरी कहते हैं, ”बहुत सारे लोग बताओ… सुनो, नहीं बता पाओगे। नहीं बता पाओगे। यहां से आगे नहीं बढ़ पाओगे।” दरअसल, उन्हें सवालों से थोड़ी दिक्कत लग रही थी। संचालक राजीव रंजन प्रसाद ने जब सवालों की परची बढ़ाई तो वे बोले थे, ”क्या सवाल पूछेंगे यार… यूपीएससी टाइप? चलो…।” और उन्होंने सारे सवालों को बड़ी आसानी से हवा में उड़ा दिया।
कल्लूरी को पता है कि कौन उनका अपना है और कौन नहीं। इसीलिए वे नाम गिनवाने को कहते हैं। वे कई बार ऐसे लोगों को ‘चंद’ कहते हैं लेकिन एक बात ज़रूर कहते हैं कि ये ‘चंद’ लोग बहुत मुखर हैं, ‘वोकल’ हैं। इन थोड़े से लोगों ने एक परसेप्शन बना दिया है। कल्लूरी परसेप्शन से शुरू करते हैं और कार्रवाई पर बात को खत्म करते हैं। वे यह भी बताना नहीं भूलते कि उन्हें बस्तर से तो हटा दिया लेकिन वे दिल्ली पहुंच चुके हैं। यह एक घोषणा है। उनसे जब सवाल पूछा गया था कि जो सामाजिक कार्यकर्ता माओवादियों को समर्थन देते हैं, उनके खिलाफ पुलिस की क्या योजना है तो उन्होंने साफ़ कहा, ”उनके खिलाफ़ कार्रवाई होगी। कानून का हाथ लंबा है।”
कानून का यह लंबा हाथ पांच-सूत्रीय रणनीति पर काम कर रहा है। सैन्य अभियानों से लेकर आत्मसमर्पण व पुनर्वास, धारणा निर्माण और जन जागरूकता आदि इसके अहम बिंदु हैं। वे रिकॉर्ड गिनवाते हैं कि उनके दौर में सबसे ज्यादा माओवादियों ने सरेंडर किया। और एक बार फिर सरेंडर-नीति के बहाने पत्नी के किस्सों में श्रोताओं को फंसा देते हैं। वे कहते हैं कि शादी के बाद उनके बहुत झगड़े होते थे, लेकिन जब से उन्होंने पत्नी के सामने सरेंडर किया है, शांति हो गई है। कल्लूरी के भाषण में शुरू से लेकर अंत तक ‘पत्नी’ एक ऐसे किरदार के रूप में सामने आती है जो खुद में ‘समस्या’ है। वे मानते हैं कि एक बार ”भौगोलिक हादसा” हो ही गया है तो क्या हुआ, इस समस्या से निजात पाना ज़रूरी है। निजात पाने के दो तरीके हैं- पत्नी से दूर रहो या उसका आदेश मान लो, सरेंडर कर दो। यही उनकी ‘पैलेस पॉलिटिक्स’ है। यही ‘सरकार’ का विचार है। इस विचार को वे पलट कर कथित आदिवासी-माओवादी संघर्ष पर लागू करते हैं तो पाते हैं कि यहां उन्हें खुद पत्नी के किरदार में होना चाहिए- जिससे ‘समस्या’ पैदा करने वाले ‘चंद’ लोग दूर भागें या फिर जिसके सामने चुपचाप सरेंडर कर दें।
पौन घंटे की डार्क फिल्म से गुज़रने के बाद अंत में हम पाते हैं कि बस्तर के पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी दो जटिल भूमिकाओं में एक साथ उतरे हुए हैं। एक किरदार भागे हुए पति का है- बुद्ध का- जिसके कर्म-कुकर्म के बीच नैतिकता की विभाजक रेखा मिट चुकी है क्योंकि उसका उद्देश्य महान है। यह उनकी फील्ड की भूमिका है। वे मैदान में होते हैं तो गीता का उपदेश पाए हुए अर्जुन की तरह निष्काम भाव से महाभारत करते हैं। दूसरी भूमिका में वे तब होते हैं जब मैदान से बाहर होते हैं, समाज के बीच होते हैं। यहां वे पत्नी की भूमिका में हैं- आदेश देते हुए, सामने वाले को झुकने को मजबूर करते हुए, अहिंसक लेकिन वर्चस्वशाली (पत्नी की उनकी कल्पना ऐसी ही है)। इस तरह वे किसी के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ते। यह सत्ता का तर्क है और तर्क की सुविधा है जिसके सहारे सत्ताएं अपने उत्पीड़क होने को तो स्वीकार नहीं करती हैं लेकिन अपने उत्पीडि़त पक्ष का बेशक प्रचार करती हैं।
वे कहते हैं कि सामाजिक कार्यकर्ताओं को अगर दस लोगों को मारने का मौका मिले, तो वे दस बार उन्हीं को मारेंगे। वे कहते हैं कि अगर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक अदद आदिवासी परिवार का भी भला किया हो, तो वे इस्तीफा दे देंगे। ऐसी भाषा हम बीते चार साल से लगातार सुन रहे हैं। यह नरेंद्र मोदी की भाषा है। यही कल्लूरी की भाषा है। सभागार में ताली बजाती और सभागार के बाहर कल्लूरी के साथ सेल्फी खींचती जनता इसी भाषा पर मुग्ध है। लोग धीरे-धीरे ऐसी ही भाषा बोलने लगे हैं। इस भाषा का फिलहाल कोई काउंटर समाज में मौजूद हो, मुझे ऐसा नहीं दिखता।
सुनें एसआरपी कल्लूरी का पूरा भाषण यहां