पांच मई की रात पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत व चीन के सैनिकों के बीच ताजा विवाद से जुड़ी पहली हिंसक झड़प हुई तो हमारी सरकार द्वारा स्थानीय स्तर पर हुआ टकराव कहकर उसकी उपेक्षा कर दी गई। चार प्वाइंट्स पर बढ़त बनाने की उसके पीछे छिपी पड़ोसी देश की मंशा को पढ़ना बहुत कठिन नहीं था, लेकिन कह दिया गया कि चूंकि वहां एलएसी की ठीक-ठीक निशानदेही नहीं हुई है, इसलिए कई बार ऐसे टकराव हो जाते हैं और उन्हें लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है।
गैरसरकारी सूत्रों से आ रही चीनी सेना की मनमानियों की परेशानकुन खबरें सिलसिला-सा बन गईं तो भी सरकार का डिनायल मोड नहीं बदला। विपक्ष द्वारा स्थिति साफ करने और देश को विश्वास में लेने की मांगों की सर्वथा अनसुनी कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रहस्यमय ढंग से चुप्पी साधे रखी। {अब भले ही उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाई है और कहा है कि देश की संप्रभुता की हर हाल में रक्षा की जायेगी।}
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने एक न्यूजचैनल से साक्षात्कार में यह माना कि चीनी सैनिक अच्छी खासी संख्या में घुस आये हैं, तो भी बताना जरूरी नहीं समझा कि इससे जो हालात पैदा हुए हैं, उनसे सरकार किस तरह निपटने जा रही है। वे इतना भर कहकर कि भारत अपने राष्ट्रीय गौरव से कतई समझौता नहीं करेगा, ध्यान बंटाने के लिए पाक अधिकृत कश्मीर की ओर घूम जाते रहे। यह कहते हुए कि वहां मौसम बदल गया है और देखियेगा, जल्दी ही वहां से उसे भारत में लाने की मांग उठेगी।
इस बीच गृहमंत्री अमित शाह भी अपनी वर्चुअल रैली में जमीनी हकीकत का सामना करने के बजाय देश की रक्षानीति को वैश्विक स्वीकृति का राग अलापते दिखे। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस बाबत उन्हें, रक्षामंत्री और प्रधानमंत्री को निशाने पर लेते हुए ट्विटर पर कुछ कड़वे सवाल पूछ लिये तो विधि व न्यायमंत्री रविशंकर प्रसाद ने झिड़कते हुए कह दिया कि उन्हें इतनी तमीज तो होनी चाहिए कि ऐसे सवाल ट्विटर पर नहीं पूछेे जाते। इससे पहले रक्षामंत्री ने अपनी जवाबदेही से यह कहकर पल्ला झाड़ लिया था कि सीमा के हालात के बारे में उन्हें जो कुछ भी बताना होगा, संसद में ही बतायेंगे, जो फिलहाल कोरोना के कारण बन्द पड़ी है।
जहां तक सेनाध्यक्ष मनोज मुकुन्द नरवणे की बात है, सैन्य व कूटनीतिक वार्ताओं के बाद उन्होंने देश को आश्वस्त किया था कि चीन की सीमा पर हर चीज हमारे कंट्रोल में है और वहां जो भी विवाद हैं, उन्हें शांतिपूर्वक हल कर लिया जायेगा। लेकिन देश को नहीं मालूम कि जिस चीफ ऑफ डिफेंस स्टाॅफ के पद का बड़े गाजे-बाजे के साथ सृजन किया गया था, उस पर नियुक्त जनरल विपिन रावत ने संकट की इस घड़ी में अपनी कौन-सी उपयोगिता सिद्ध की। ऐसे में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने पिछले 45 सालों की सबसे बड़ी हिंसक भिडंत पर उतरकर हमारी सेना के एक अधिकारी समेत बीस जवानों को वीरगति प्राप्त करा दी तो क्या यह सोचकर खुश हुआ जा सकता है कि हमारे बहादुर जवानों ने भी चीनियों को मारने में कोई कोताही नहीं की?
उन्होंने तो 1962 के चीनी हमले के वक्त भी, जब देश का राजनीतिक नेतृत्व लगभग आज की ही तरह किकर्तव्यविमूढ़ बना हुआ था, अपने प्राणों की बाजी लगाई ही लगाई थी। इतना ही नहीं, शिकस्त के बावजूद अपना मनोबल बनाये रखा था और सिर्फ पांच साल बाद सिक्किम में हुई भिड़ंत में अपने अस्सी जांबाजों को खोकर कोई चार सौ चीनी सैनिकों को मार गिराया था। 2017 में डोकलाम में भी वे 73 दिनों तक पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सामने डटे रहे थे और उसे कदम पीछे खींचने को मजबूर कर दिया था।
अपने जवानों की बहादुरी में देश का विश्वास यकीनन, अगाध है, लेकिन इस बात का क्या किया जाये कि यह बहादुरी राजनीतिक नेतृत्व की उस चुप्पी, असमंजस और अक्षमता का विकल्प नहीं हो सकती, जिससे हम इन दिनों रोज ब रोज साक्षात्कार करने को मजबूर हैं। इसलिए जहां शेष विश्व लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर भारत व चीन की सेनाओं की हिंसक भिड़ंत को दो परमाणु संपन्न देशों के बीच के टकराव के रूप में देख और चिंतित हो रहा है, हमारे लिए बड़ी चिन्ता का विषय यह होना चाहिए कि हम ऐसी सरकार के दौर में भी रक्षा व विदेश नीतियों के मोर्चों पर उस राष्ट्रीय गौरव की रक्षा क्यों नहीं कर पा रहे, जो राष्ट्रीय सुरक्षा को ही सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर चुनी गई है और रक्षामंत्री जिससे किसी भी कीमत पर समझौता न करने की बात कर रहे हैं?
लेकिन सवाल यही एक नहीं है। क्यों कई प्रेक्षकों द्वारा गलवान घाटी में हुई झड़प में इतने जवानों को गंवाने को देश के राजनीतिक नेतृत्व द्वारा वास्तविक हालात से मुंह मोड़े रखने के दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे के तौर पर देखा जा रहा है और कुछ लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उनका गत वर्ष पांच मार्च का वह बयान याद दिला रहे हैं, जिसमें 26 फरवरी को पाकिस्तान के बालाकोट में की गई बहुप्रचारित एयरस्ट्राइक पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि हमारा सिद्धांत है कि हम घर में घुस के मारेंगे।
वे पूछ रहे हैं कि अब उसी तर्ज पर चीन ने घर में घुसकर मार दिया है तो प्रधानमंत्री अपना नया सिद्धांत क्यों नहीं बता रहे? वह सिद्धांत यह तो नहीं हो सकता कि पड़ोसी कमजोर है तो हम उसे घर में घुसकर मार देंगे और बलशाली है तो वह हमारे घर में घुसकर हमें मारे, तो भी भीगी बिल्ली बने रहेंगे?
प्रधानमंत्री भले नहीं बता रहे, चीन ने इस झड़प के बाद भी भारत पर यह तोहमत लगाकर अपनी नीयत साफ कर दी है कि वास्तव में उसके सैनिकों ने ही एकतरफा तौर पर सीमा पार कर चीनी सैनिकों पर हमला किया। उसके सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने यह चेतावनी देने से भी गुरेज नहीं किया है कि भारत को कोई गुरूर नहीं पालना चाहिए और न चीन को कमजोर समझना चाहिए। उसके एक थिंकटैंक की मानें तो वह सर्वे ऑफ इंडिया के नए नक्शे में अक्साईचिन को केंद्रशासित लद्दाख में दर्शाने और उससे पहले जम्मू-कश्मीर में किये गये बदलावों से चिढ़ा हुआ है। पाकिस्तान में चीनी दूतावास के एक अधिकारी के अनुसार उसे लगता है कि भारत ने ऐसा करके उसकी और पाकिस्तान की संप्रभुता को चुनौती दी है। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा भारतीय संसद में किये गये इस एलान को भी वह इसी चुनौती से जोड़ता है कि भारत पाक अधिकृत कश्मीर और अक्साईचिन लेकर रहेगा।
यकीनन उसका यह रवैया सर्वथा अवांछनीय है, लेकिन सवाल यह है कि हमारी सरकार ने उक्त कदम उठाये तो ऐसी प्रतिक्रियाओं का सही अंदाजा क्यों नहीं लगाया और अभी भी उनके सामने स्तंभित-सी क्यों खड़ी है? खासकर जब गलवान इलाके पर चीन पहले भी दावा करता रहा है और वह 1962 की लड़ाई के दौरान भी संघर्ष का प्रमुख केंद्र रहा था।
मामले का एक पेंच उस भारत-चीन समझौते तक भी जाता है कि दोनों देश एलएसी को मानेंगे और उसमें नये निर्माण नहीं करेंगे। चीन वहां पहले ही जरूरी सैन्य निर्माण कर चुका है लेकिन अब भारत को नहीं करने देना चाहता। इसीलिए तोहमत लगाता है कि इस तनाव की शुरुआत भारत ने की है-कोरोना की वजह से आई आर्थिक परेशानियों की ओर से अपनी जनता का ध्यान हटाने के लिए।
दुःख की बात है कि जिस मोदी सरकार पर उसे इसका जवाब देने की जिम्मेदारी है, वह न उसको जवाब दे रही है, न उसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय जनमत बनाने के प्रयत्न कर रही है, न ही देश या विपक्ष को विश्वास में ले रही है। उसके आजकल के करतब देखकर विश्वास ही नहीं होता कि उसी के नेता कभी एक के बदले दस सिर लाने की बात कहा करते थे।
कृष्ण प्रताप सिंह- लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं, फिलहाल उत्तर प्रदेश के अयोध्या में रहते हैं।