बिना तैयारी के किये गये लॉकडाउन ने उत्तर से लेकर दक्षिण तक हाहाकार मचाया हुआ है. देश की जनता के एक हाथ में थाली और दूसरे हाथ में दिया पकड़ाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेने वाली सरकार ने देश के मज़दूरों को उनके भाग्य भरोसे छोड़ दिया है. जहां देश की एक आबादी घर में सेनिटाइजर पोतकर हाथ रगड़ रही है, वहीं दूसरी तरफ़ हमारे मज़दूरों को भोजन के लिए भी हाथ पसारना पड़ रहा है. और यह भी जैसे कम नहीं था कि इस क्रम में उन्हें हर तरह अपमान भी सहना पड़ रहा है.
रविवार को तमिलनाडु के मदुरई जिले के यगप्पा नगर के एमजीआर रोड पर दिहाड़ी मज़दूरों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया है. उनका कहना है कि उनके पास राशन खरीदने के पैसे तक नहीं हैं. लॉकडाउन के बाद से ही उनके पास काम नहीं है और अब रोज़ कमाकर, रोज़ खाने वाली यह आबादी भूख और अभाव से त्रस्त है.ख़ास बात ये है कि जहाँ ये प्रदर्शन हुआ, उसे कोरोना प्रभावित मानकर संक्रमित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। लेकिन मज़दूरों के पेट की आग कोरोना के डर पर भारी पड़ रही है।
Tamil Nadu: Daily wage labourers at MGR Street in Yagappa Nagar area in Madurai protest alleging they don't have money to buy essential commodities amid #CoronavirusLockdown. MGR Street has been declared as #COVID19 containment zone & sealed. pic.twitter.com/vyDfRzWHsv
— ANI (@ANI) April 12, 2020
दिल्ली में जलाया गया शेल्टर होम
वहीं, दिल्ली के कश्मीरी गेट के पास यमुना किनारे बने तीन शेल्टर भवनों को शनिवार आग के हवाले कर दिया गया. मामला खाने और शेल्टर होम की व्यवस्था में लगे सरकारी वालंटियरों के व्यवहार से जुड़ा हुआ है. बताया जा रहा है कि शेल्टर होम में काम कर रहे सिविल डिफेंस वालंटियरों का व्यवहार वहां रह रहे मज़दूरों के प्रति ठीक नहीं था. शुक्रवार खाना वितरण के समय मज़दूरों और वालंटियरों में बहस हुई. कहा जा रहा है कि वालंटियर्स ने डंडे बरसाये और तीन-चार मजदूर यमुना में कूद गये। शनिवार को एक लाश मिलने पर शोर हुआ कि यह वही मज़दूर है जो नदी में कूदा था जिसके बाद मज़दूर भड़क गये और उन्होंने रैन बसेरे में आग लगा दी।
Delhi: Fire breaks out in a shelter home near Kashmiri Gate. More details awaited. pic.twitter.com/VBu0MdVLID
— ANI (@ANI) April 11, 2020
दिल्ली में यमुना नदी के किनारे 5000 से ज़्यादा प्रवासी मज़दूर खुले आसमान के नीचे रहने को मज़बूर हैं. यह वह आबादी है जो किसी रैन बसेरे में भी जगह नहीं पा सकी है. साफ है कि सवाल केंद्र सरकार के अलावा केजरीवाल सरकार के दावों पर भी उठता है.
यह हाल पूरे देश का है। दो दिन पहले ही मोदीजी के गुजरात के सूरत में प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों का हाल देश ने देखा, जो अपने घर लौटना चाहते हैं. हीरा नगरी सूरत में पुलिस और मज़दूरों के बीच पत्थर चले।
Gujarat:Migrant workers in Surat resorted to violence on street allegedly fearing extension of lockdown."Workers blocked road&pelted stones.Police reached the spot&detained 60-70 people.We've come to know that they were demanding to go back home",said DCP Surat,Rakesh Barot(10.4) pic.twitter.com/q09Z7lsLwR
— ANI (@ANI) April 10, 2020
मज़दूरों का कोई देश नहीं
लॉकडाउन के बाद जब देश भर के बड़े शहरों से मज़दूर पैदल ही अपने घरों के लिए निकल गये थे, तो भरे पेट वाले कई मानुष यह मासूम सवाल कर रहे थे कि मज़दूर घर क्यों जाना चाहते हैं. उन्हें सरकारों की नीयत को थोड़ा समझना चाहिए. देश के अर्थशास्त्रियों ने सरकार को साफ़-साफ़ बताया था कि कम से कम अगले दो महीने तक देश के निचले तबके के लगभग 80 फीसदी परिवारों को 7000 रुपये प्रति माह दिया जाना चाहिए, तभी इस संकट से पार पाया जा सकता है. कुल मिलाकर इस मद में 3.66 हज़ार करोड़ का खर्च आना था, पर इसके दस प्रतिशत हिस्से से भी कम, यानी 34,000 करोड़ रुपये भर के पैकेज की घोषणा हमारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी ने की. यहां भी एक पेंच है, जिसे समझना ज़रूरी है. प्रवासी मज़दूर इस पैकेज में शामिल नहीं हैं. सरकार राशन भी तभी दे रही है, अगर उनके पास राशन कार्ड हो. सरकार को ही बताना चाहिए कि कितने ऐसे प्रवासी मज़दूर होंगे जिनके राशन कार्ड उनके काम की जगह के पते पर बने होते हैं?
कहते हैं मज़दूरों का कोई देश नहीं होता. भारत जैसे देश में यह कथन और भी बेहतर स्पष्टता के साथ चरितार्थ होता है. कोरोना नामक महामारी ने भारत के उस वर्गीय चरित्र की परतें उधेड़ दी हैं, जिसके नीचे दबी गैर-बराबरी की जीवित निशानियां अपने उरूज़ पर दिखायी देने लगी हैं. इसे समझने के लिए अर्थशास्त्रीय ज्ञान की जगह बस आंखों में थोड़ी इंसानियत की नमी लाने की ज़रूरत है.
कोरोना के बीच जब पहले से सक्षम और सुरक्षित छतों के नीचे रहने वाली आबादी की सहूलियत के हिसाब से ही सरकार सारे उपाय कर रही है, ठीक उसी वक़्त सही मायने में इस देश के बहुसंख्यक, यानी रोज़ कुंआ खोदकर पानी पीने वाली देश की मज़दूर आबादी पूरे देश में फंसी हुई है और ज़िंदा रहने को ही बुनियादी लड़ाई की तरह लड़ रही है. और इस आबादी की किसी को कोई फ़िक़्र नहीं!