मीडिया चुप रहा, ‘समता’ का सवाल उठाकर चला गया रजनी कृश !

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विष्णु राजगढ़िया

पांच राज्यों के चुनाव परिणामों और होली के उमंग के बीच जेएनयू से एक चिंताजनक खबर आई। इतिहास में एम.फिल कर रहे छात्र रजनी कृश ने खुदकुशी कर ली। यह किसी छात्र की सामान्य आत्महत्या नहीं क्योंकि जाते-जाते उसने सवालों का ढेर रख छोड़ा है। उन सवालों का समुचित जवाब तलाशना ही देश और समाज का दायित्व है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोध छात्र रोहित वेमूला की खुदकुशी के एक साल बाद जेएनयू की यह घटना देश की शिक्षा प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े कर रही है। उच्च शिक्षा में गैरबराबरी के गंभीर सवालों को बनी प्रो. सुखदेव थोराट की रिपोर्ट पर पांच साल से धूल जमी है। लेकिन विश्वविद्यालय परिसरों में सनसनी तलाशते मीडिया को इन विषयों की परवाह नहीं।

लगभग पच्चीस वर्षीय रजनी कृश का पूरा नाम मुथुकृष्णन जीवनानथम था। वह जेएनयू के सेंटर फोर हिस्टोरिकल स्टडीज में एम.फिल कर रहा था। वह तमिलनाडु के सेलम जिले का निवासी दलित छात्र था। 13 मार्च की शाम उसने नई दिल्ली के मुनिरका विहार में एक मित्र के आवास पर फांसी लगा ली।

रजनी कृश ने आत्महत्या से पहले फेसबुक की अपनी अंतिम पोस्ट में जेएनयू की एडमिशन पॉलिसी पर गंभीर सवाल खड़े किये। नौ मार्च की रात 9.22 बजे उसने लिखा-
यानी – ‘‘एम. फिल और पीएचडी के नामांकन बराबरी के अवसर नहीं मिलते। साक्षात्कार में भी समानता का अभाव है। हर मामले में समान अवसरों से वंचित किया जाता है। प्रो. सुखदेव थोराट की अनुशंसा को भी लागू नहीं किया गया। प्रशासनिक भवन पर विद्यार्थियों को विरोध-प्रदर्शन की अनुमति नहीं। हाशिये पर छूटे लोगों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। जब समानता ही नहीं, तो कुछ भी नहीं।‘‘

उल्लेखनीय है कि देश की उच्च शिक्षण संस्थाओं में कमजोर एवं अल्पसंख्यक वर्गों के विद्यार्थियों एवं शिक्षकों के साथ भेदभाव खत्म करने के उपाय तलाशने के लिए केंद्र की यूपीए सरकार ने प्रो. सुखदेव थोराट कमिटी बनाई थी। कमेटी ने वर्ष 2011 में ही अपनी रिपोर्ट दे दी थी। इसमें कमेटी ने उच्च शिक्षा में जाति आधारित भेदभाव खत्म करने के संबंध में महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे।

लेकिन यूपीए सरकार ने उसे लागू करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद भी उसकी सिफारिशों को नजरअंदाज किया जाता रहा। उल्टे, हाल के दिनों में कई ऐसे कदम उठाए गये, जिनके कारण कमजोर एवं अल्पसंख्यक वर्ग के साथ भेदभाव बढ़ने के आरोप लगे। इन चीजों को लेकर जेएनयू में लगातार आंदोलन चल रहा है।

हाल ही में जेएनयू के विद्यार्थियों ने एम. फिल और पीएचडी में नामांकन में भेदभाव और मनमानी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। इनमें नामांकन के लिए मौखिक परीक्षा में तीस नंबर रखे गये हैं जिसके कारण बड़े पैमाने पर भेदभाव की गुंजाइश बनती है। विद्यार्थियों का आरोप है कि प्रवेश हेतु साक्षात्कार में पिछड़े, दलित एवं अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के साथ बड़े पैमाने पर भेदभाव करके अवसरों से वंचित कर दिया जाता है। इस मनमानी के खिलाफ आंदोलन करने वाले विद्यार्थियों को प्रशासनिक भवन के पास आने से रोक लगा दी गई। इन चीजों को लेकर विद्यार्थियों में गुस्सा है।

बहरहाल, ऐसे सवाल उठाकर रजनी कृश का अचानक चला जाना दुखद है। साथ ही, यह भी चिंता की बात है कि जेएनयू या रामजस कॉलेज के मामलों में सनसनीखेज रिपोर्ट करके टीआरपी वसूलने के चक्कर में व्यस्त मीडिया ने कभी देश की उच्च शिक्षण संस्थाओं में नामांकन संबंधी नीतियों तथा अन्य मामलों में भेदभाव को खबर बनाने की जरूरत नहीं समझी।

हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि हमारे देश के संविधान में समानता के अवसरों को प्रमुख स्थान दिया गया है। कोई भी नीति, जो शिक्षा, रोजगार या अन्य अवसरों में किसी गैर-बराबरी का कारण बनती हो, वह संविधान-सम्मत नहीं। मीडिया के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए, देश के लिए भी। अगर मीडिया इसे लेकर चिंतित नहीं, तक देश और नागरिकां को दोहरी चिंता करनी होगी। रोहित वेमूला और रजनी कृश ने जो रास्ता अपनाया, वह अनुचित है। लेकिन दोनों ने जो सवाल उठाए हैं, उनका जवाब तो ढूंढ़ना ही होगा। यही सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी।
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पुनश्च –
क्या किसी की मौत के बाद उसे फेसबुक फ्रेंडशिप की रिक्वेस्ट भेजी जा सकती है?
जेएनयू के शोधछात्र रजनी कृश की ख़ुदकुशी की दुखद खबर के बाद मैं उसकी फेसबुक वाल पर गया। देखा कि मैं उसकी मित्र सूची में नहीं हूँ। मैंने उसकी अंतिम पोस्ट पढ़ी जिसमें उसने हर तरफ गैरबराबरी पर चिंता जताई है। इसे पढ़ने के बाद मैंने सचेतन अवस्था में उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी। मालूम है कि अब इसका कोई जवाब नहीं मिलना। मैंने उसके कमेंट बॉक्स में यह भी पूछ लिया. ‘व्हाई डीड यू लेफ्ट?’

याद आए कवि गोरख पाण्डेय। वह भी जेएनयू में शोध ही कर रहे थे जब ख़ुदकुशी की थी। अब रजनी कृश जैसे नौजवानों का यूं निराश होना आखिर कहाँ ले जा रहा है हमें?

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं )


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