सूचना और दूरसंचार मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि वे 2 किलो ज्यादा इम्दादी अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत 80 करोड़ लाभान्वितों को देंगे. 80 करोड़ बड़ी जनसंख्या होती है. यदि यह इमदादी अनाज के योग्य हैं तो सोचिए एक महीने की बंदी का अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा! समस्याएं बहुत है और सरकार के पास खजाना नहीं है. सरकार तो नयी मुद्रा भी नहीं छाप सकती क्योंकि डॉलर बहुत महंगा हो चुका है.
भारत जैसे देश जहां पिछ्ले छह साल से बचत को लगातर हतोत्साहित किया जा रहा है, वहां कोरोना के आर्थिक दुष्प्रभाव बहुत जल्दी लोगों के सामने आएंगे. सटीक अनुमान तो मुश्किल है फिर भी आंकड़ों के सहारे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोरोना से बचने के लिए किये गये लॉकडाउन के हटने के बाद की तस्वीर इस देश में कैसी होगी।
2011 की जनगणना के अनुसार 6 व्यक्तियों में से यहां 1 व्यक्ति झुग्गी झोपड़ी में रहता है या यों कहें कि भारत के 6.5 करोड़ परिवारों का भाग्य झुग्गी में रहने को विवश है. एक सर्वे के मुताबिक भारत के झुग्गी में रहने वालों का सकल घरेलू उत्पाद गुणक 1.4 है अर्थात यदि इन झुग्गी झोंपड़ी में रहने वालों की आय 100 रुपया बढ़ती है तो देश का सकल घरेलू उत्पाद 140 रुपये बढ़ेगा. 2019-20 की आर्थिक समीक्षा में ज़मीनी स्तर पर उद्यमिता एवं धन सृजन नामक अध्याय मे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के आँकड़ों को शामिल नहीं किया गया है. सरकार के पास अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से सम्बंधित मज़दूरों का भी कोई आंकड़ा नहीं है. 2018-19 की आर्थिक समीक्षा में जहां सरकार कहती है कि कुल मजदूरों का 93 फीसदी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से सम्बंधित है वहीं उनका नीति आयोग कहता है कि यह 85 फीसदी है.
जिस अर्थव्यवस्था की कमर नोटबन्दी और जीएसटी से पहले से ही टूटी हुई है उसका 21 दिनों के लॉकडाउन में क्या होगा! झुग्गी में रहने वालों के लिए सामाजिक भेद और आत्म अलगाव सिर्फ सरकारी बातें हैं. झुग्गी में लोग एक दूसरे के बहुत नज़दीक रहते हैं. उनमें साफ सफाई का कोई खास ध्यान नहीं रहता है. यदि हम फुटपाथ पर सोने वालों का इस समय खयाल नहीं रखेंगे तो यकीन मानिये हम जीवित टाइम बम पर बैठे हैं. वह लोग इस महामारी को बदहवास रूप से फैलाएंगे. मद्रास उच्च न्यायालय ने इस बाबत राज्य सरकार को निर्देश दिया था लेकिन सिर्फ 22 मार्च के लिए और उसका एक दिन भी पालन किया गया हो, इसमें संदेह है.
एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2018-19 में भारत का रियल सकल घरेलू उत्पाद 140.78 लाख करोड़ रुपये रहा है अर्थात 11.73 लाख करोड़ रुपये मासिक. भारत के इस एक महीने के बंदी से कम से कम 11.73 लाख करोड़ रुपये का नुकसान तो जरूर पहुंचेगा. फिर सप्लाई चेन टूटेगी, वह अलग. यानी सकल घरेलू उत्पाद में मोटे तौर पर 10 फीसदी की गिरावट होगी. यह तब है जब हमने अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का सही तरह से आकलन नहीं किया है. अभी गेंहूं की खेती के समय भारी बारिश की वजह से खाद्यान्न उत्पादन में भी कमी देखी जाएगी, जो भुखमरी के हालात पैदा करेगी. रही सही कसर यह लॉकडाउन पूरा करेगा क्योंकि इसके कारण बहुत फसल खेत में ही बरबाद हो जाएगी क्योंकि उसके लिए कोई मजदूर नहीं मिलेगा.
कोरोना वायरस से सबसे बड़ी समस्या जो उत्पन्न होगी वह है बेरोजगारी. भारत में 47 करोड़ मजदूर में से कम से कम 1 करोड़ बेरोजगार हो जाएंगे जो 2008-09 की आर्थिक मंदी से अधिक है. श्रम मंत्रालय के अनुसार भारत में करीब 3.1 करोड़ बेरोजगार पहले से ही हैं. इस पर यदि 1 करोड़ और बढ़ जाएं तो भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है. भारत में बेरोजगारी का प्रमुख कारण पूँजी की कमी है. भारत जहां पूँजी की कमी पहले से ही झेल रहा है वहां पर बैंक घोटाला, विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी के रूप में सामने आने के बाद बैंक की जोखिम लेने की क्षमता पहले से ही कम हो गयी है. फिर सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियां भी तरलता की समस्या से ग्रसित हो गई हैं.
उसके बाद आया येस बैंक का घोटाला. अभी इस घोटाले का पटाक्षेप होने ही वाला था कि कोरोना वायरस ने हमला कर दिया. अभी तक भारत में वस्तुओं की मांग कम थीं, अब कोरोना के कारण आपूर्ति भी प्रभावित होगी. फलस्वरूप लोन देनदारी की समस्या पैदा होगी.
इंडिया टुडे की एक खबर के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2019 में बैंकों का लोन पोर्टफोलिओ 86.33 लाख करोड़ का है. यही किसी टाइम बॉम्ब से कम नहीं. भारत का सकल घरेलू उत्पाद 140 लाख करोड़ रुपये का है जिसमें से 86.33 लाख करोड़ का ऋण है. रिजर्व बैंक बुलेटिन मार्च 2020 वॉल्यूम LXXIV संख्या 3 के अनुसार 31 जनवरी 2020 तक कुल बैंक क्रेडिट 89.79 लाख करोड़ का है.
भारत में करीब 10 करोड़ मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्यम करीब 30 करोड़ जनता को रोजगार प्रदान करते हैं. ऐसे में सवाल यह है कि मांग और सप्लाई दोनों संकुचित हो जाने से यह जो 72 लाख करोड़ का ऋण (कुल ऋण का 16 फिसदी केवल 20 कंपनियों के पास है) है उसका ब्याज यह मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्यम कैसे चुकाएंगे? क्या बैंकिंग कंपनियों पर अतिरिक्त प्रभाव पड़ेगा?
सरकार यदि ऋण अदायगी की सीमा बढ़ा भी देती है तो हमारा बैंकिंग क्षेत्र इसे झेल नहीं पाएगा. फिर समस्या आती है कि बिजली कंपनियों पर दवाब बढ़ेगा. यह सही है कि बिजली कम्पनियां घरेलू कनेक्शन से नहीं चलती हैं किंतु फिर सवाल वही है कि जब मांग ही नहीं रहेगी और वित्तीय तरलता के कारण सप्लाई भी बाधित होगी तो या औद्योगिक बिजली की खपत कम होगी या फिर बिल के भुगतान में परेशानी का सामना करना पड़ेगा.
एक अनुमान के अनुसार भारत में 10 लाख लोग ओला और उबर में चालक के रूप में अपना जीवनयापन कर रहे हैं. एक महीने की बंदी के बाद अब समस्या यह है कि ओला और उबर के मालिक अपनी ईएमआइ कैसे चुकाएंगे! और नहीं चुकाने की स्थिति में क्या होगा, यह भी एक समस्या है. भारत में सिर्फ 2.20 लाख करोड़ का वाहन ऋण है. ट्रक और बस ऋण का भुगतान क्या हो पाएगा, यह भी समस्या पैदा होगी. इससे भी बड़ी जो समस्या सुरसा की तरह मुंह बाये हुए खड़ी दिख रही है वह है उद्यमों में विविध देनदारो के भुगतान में चूक.
भारत की टॉप 100 कंपनियों की बैलेंसशीट का विश्लेषण करने से यह पता चलता है कि इन कंपनियों की कुल विविध देनदारी 4.12 लाख करोड़ की है. यदि यह भुगतान में चूक करने लगे तो स्थिति क्या होगी, एक बार सोचिए. चेक बाउंस का केस किस कदर बढ़ जाएगा यह भी अनुमान से बाहर की चीज है.
यही समस्या है घर खरीदने वालों के साथ. रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 13.16 लाख करोड़ का गृह ऋण भारतीय लेकर रखे हुए हैं जिसकी ईएमआइ आने वाली 5 तारीख को ही जाने वाली है. माना जा रहा है कि वित्तीय वर्ष 2018-19 में 3.74 करोड़ विद्यार्थियों ने भारत में उच्चतर शिक्षा के लिये दाखिला लिया है. इन विद्यार्थियों के भविष्य के लिए सरकार के पास कोई प्लान नहीं होगा. इनका शिक्षा ऋण कैसे चुकेगा और यदि चुका नहीं पाएंगे तो क्या होगा?
सामाजिक भेद और आत्म अलगाव अमीरों के लिए ठीक है किंतु गरीब इससे और गरीब हो जाते हैं. उनके पास आय के सीमित साधन होते हैं. खासकर दिहाड़ी मजदूर, जिनके पास बचत न के बराबर होती है. वह ऐसी स्थिति में इस तरह के बीमारी के संक्रमण को और बढ़ा देते हैं. इस तरह की बंदी उन्हें और गरीब बना देती है. यदि उनके घर पर किसी की मृत्यु हो जाय तो वह ग़रीबी के जाल में फंस जाते हैं. अंतिम क्रिया करने और श्राद्ध के लिए उनके पास कोई पैसा नहीं होता है और बंदी के कारण उन्हें अपनी सम्पत्ति बेचने के लिए कोई खरीददार भी नहीं मिलता है. फलस्वरूप वे ऋण के जाल में फंस जाते हैं और महाजन उससे भारी ब्याज दर वसूलता है. वह परिवार जो रोज के कमाई पर अश्रित होता है, उनमें यह बंदी भुखमरी के हालात पैदा कर देगी.
अमेरिका जैसे देशों में भी इस तरह के मजदूर अपने बच्चे को खिलाने के चक्कर में खुद भूखा सो जाया करते हैं. अभी भाजपा ने ऐलान किया है कि वह 21 दिनों मे 5 करोड़ लोगों को खाना खिलाएगी, लेकिन कैसे? क्या वह बंदी के नियम को तोड़ेगी? यदि खिला भी दिया तो बाकी का क्या? फिर 21 दिन बाद वह क्या करेगा?