जेल में छह माहः 2019 के राजनीतिक बंदी पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की आपबीती

रूपेश कुमार सिंह रूपेश कुमार सिंह
झारखण्‍ड Published On :


रूपेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार के बतौर झारखंड में 2014 से काम कर रहे थे। इनके लेख व रिपोर्टिंग कई पत्रिकाओं जैसे समयांतर, तीसरी दुनिया, दस्तक, फिलहाल, तलाश, बिरसा भूमि, अभियान, देश-विदेश आदि व कई वेब पोर्टल जैसे हस्तक्षेप, जनज्वार, जनचौक, भड़ास फाॅर मीडिया, हाशिया, द वायर, टूवार्ड्स अ न्यू डाॅन, संघर्ष संवाद, नेशनल दस्तक आदि पर छपते रहे हैं। इन्होंने खासकर झारखंड में जमीन की लूट, फर्जी मुठभेड़ में आदिवासियों की हत्या, विस्थापन, कोयला खदानों में मजदूरों की मौत आदि को ही अपनी रिपोर्टिंग व लेख में जगह दी है। सरकार की जनविरोधी नीतियों का भंडाफोड़ करने के कारण ही इन्हें 4 जून को सेन्ट्रल आईबी द्वारा झारखंड से उठाकर बिहार के गया जिला के 205 कोबरा बटालियन के कैम्प में दो दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद 6 जून को गया पुलिस द्वारा इनकी गिरफ्तारी दिखाई गई। छह महीने जेल में रहने के बाद ये 6 दिसंबर को जमानत पर जेल से रिहा हुए हैं।

वैसे तो देश भर में 2019 में तमाम पत्रकारों पर हमले हुए और उन्हें जेल भेजा गया, लेकिन रूपेश कुमार सिंह इकलौते रहे जिनके केस को किसी पत्रकार संगठन ने औपचारिक रूप से नहीं उठाया। न केवल दिल्ली, बल्कि झारखंड में भी स्थानीय पत्रकार रूपेश का मामला उठाने से परहेज करते रहे। मीडियाविजिल ने इस बीच उन पर केंद्रित कुछ लेख ज़रूर छापे। मीडियाविजिल बीते साल में अपनी लेखनी के चलते कैद किए गए पत्रकारों के बीच रूपेश कुमार सिंह की विशिष्ट स्थिति को देखते हुए उनसे रिहा होने के बाद विस्तार से लिखने का आग्रह किया था। रिहा होने के बाद रूपेश ने मीडियाविजिल को अपनी आपबीती विस्तार से लिखकर भेजी है। पढ़िये वर्ष 2019 के राजनीतिक बंदी रूपेश कुमार सिंह की दास्तान।

(संपादक)


गिरफ्तारी

4 जून 2019, सुबह के ठीक आठ बजे हमलोग झारखंड के रामगढ़ से औरंगाबाद के लिए एक भाड़े की कार से निकले थे। दरअसल मैं अपनी जीवनसाथी ईप्सा शताक्षी व बेटा अग्रिम अविरल के साथ बोकारो स्टील सिटी के सेक्टर 12 में किराए के एक मकान में रहता था, वहीं रहकर मैं स्वतंत्र पत्रकारिता करता था और ईप्सा कस्तूरबा बालिका विद्यालय व एक प्राइवेट काॅलेज में कांट्रैक्ट पर पढ़ाती थी। वैसे अग्रिम के जन्म के कुछ महीने पहले से ही उन्होंने यहां से छुट्टी ले रखी थी।

26 मई को मेरे छोटे भाई कुमार अंशु की की शादी रामगढ़ से ही हुई थी, उसी सिलसिले में हमलोग रामगढ़ में थे। शादी के बाद मेरे बहनोई के फुफेरे भाई रामगढ़ जिला न्यायालय के अधिवक्ता मिथिलेश कुमार सिंह के साथ उनके पैतृक आवास बिहार के औरंगाबाद जाने की योजना के तहत ही हमलोग 4 जून को रामगढ़ से निकले, हमारे भाड़े की कार का ड्राइवर का नाम मोहम्मद कलाम था।

हमलोग साढ़े 9-10 बजे के लगभग हजारीबाग बरही रोड में पद्मा के थोड़ा आगे पहुंचने पर कार साइड में लगाकर पेशाब करने के लिए उतरे। उस दिन गर्मी काफी तेज थी और कार में एसी चल रहा था, इसलिए कार से उतरने के बाद मैं थोड़ा असहज महसूस करने लगा, उसी समय सड़क पर नजर दौड़ाई तो देखा कि दो बाइक और एक बोलेरो भी उसी जगह रूकने जा रही है। मुझे लगा कि ये लोग भी शायद पेशाब करने के लिए ही रूक रहे हैं। फिर मैंने उधर से ध्यान हटाकर अपना ध्यान पेशाब करने पर केंद्रित कर लिया।

मैं पेशाब करके अपने पैंट की जिप लगा ही रहा था कि पीछे से अचानक एक आदमी ने मेरे कमर में हाथ डालकर कसकर पकड़ लिया, दो आदमी ने दोनों हाथ को कसकर पकड़ा और एक आदमी ने गर्दन व मुंह को कसकर पकड़ लिया और पुलिस-पुलिस कहते हुए बोलेरो की तरफ खींचने लगा। उसी समय मैंने देखा कि मेरी कार के ड्राइवर व मिथिलेश जी को कुछ लोग खींचते हुए हमारी कार में ही ले जा रहे हैं। मुझे बोलेरो की बीचवाली सीट में धकेल दिया गया और मेरे दोनों तरफ एक-एक आदमी बैठ गये। फिर उन्होंने मेरी दायें हाथ में हथकड़ी लगाई व आंख पर पट्टी बांध दी और मेरे मुंह से हाथ हटा लिया और उनमें से कइयों ने फोन पर ‘मिशन कम्पलीट-मिशन कम्पलीट’ बोलना शुरू कर दिया। तब मैंने उनसे पूछा कि आपलोग कहां की पुलिस हो? मेरी गिरफ्तारी का वारंट कहां है? मेरे कार का ड्राइवर व मिथिलेश जी कहां हैं? मुझे आपलोग कहां ले जा रहे हो?

मेरे सवालों का जवाब देते हुए उनमें से एक ने कहा कि हमलोग सेंट्रल आईबी से हैं, हमलोगों को सूचना मिली है कि आप भाकपा (माओवादी) का बड़ा नेता हैं और अभी आप गया जिला के चकरबंधा पहाड़ पर माओवादी नेता संदीप यादव से मिलने जा रहे हैं व आपके कार के ड्राइवर व मिथिलेश को छोड़ दिए हैं और वे लोग वापस रामगढ़ की तरफ लौट गये हैं। उसने कहा कि हमलोग आपको भी छोड़ देंगे, बशर्ते आप हमारे सवाल का सही-सही जवाब दें।

उस ऑफिसर का जवाब सुनते ही मेरे दिल की धड़कन काफी तेज हो गयी व मेरा पूरा शरीर बोलेरो में फुल एसी चलने के बाद भी पसीने से तर-बतर हो गया। मेरी आंखों के सामने ढेर सारे फर्जी एनकाउंटरों का दृश्य तैरने लगा, जो मैंने फिल्मों में देखा था, किताबों मेें पढ़ा था और रिपोर्टिंग करते समय फर्जी एन्काउंटर में मारे गये आदिवासियों के परिजनों से सुना था। हालांकि उस समय मैं जिन लोगों की गिरफ्त में था, वे सभी सिविल ड्रेस में थे, लेकिन मेरे दोनों तरफ बैठे लोग बार-बार अपनी कमर मेरे हाथ से या मेरी कमर से सटाते थे ताकि मुझे एहसास हो कि उनके पास पिस्टल या रिवाल्वर भी है। फिर मुझे उनके हिन्दी बोलने के ‘टोन’ से अंदाजा लगा कि ये लोग मूल ‘तेलुगु’ भाषी है मतलब कि ये आंध्र प्रदेश या तेलंगाना के लोग हैं। फिर तो मैं और भी डर गया क्योंकि आंध्र प्रदेश स्पेशल इंटेलिजेंस ब्यूरो (एपीएसआईबी) केे द्वारा की गयी कई क्रूरतम व झूठे एनकाउंटरों की खबर मैंने पढ़ी थी, जिसमें माओवादी नेता आजाद व पत्रकार हेम पांडे का नाम सर्वोपरि है। मुझे विश्वास हो गया कि अब ये लोग मेरा एन्काउंटर कर देंगे।

वे लोग 100-120 की स्पीड से चल रही बोलेरो में ही मेरे पर ये दबाव बनाना शुरू किया कि मैं मान लूं कि मैं एक माओवादी नेता हूं। मैंने बार-बार उन लोगों से यही कहा कि मैं एक स्वतंत्र पत्रकार हूं और अभी मिथिलेश जी के गांव घूमने जा रहा हूं। उनलोगों ने मेरे पाॅकेट से मेरा वोटर आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस, एटीएम कार्ड, मोबाइल व दस हजार रूपये निकाल लिया और बार-बार चिप्स (मेमोरी कार्ड) देने के लिए बोलने लगा। बोलेरो में ही चिप्स के लिए कई बार मेरे कपड़ों की जांच की, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला। लगभग दो घंटे के बाद एक सुनसान जगह पर उसने बोलेरो को रोक दिया और मुझे नीचे उतार दिया। तब मुझे लगा कि मेरे एनकाउंटर का समय आ गया है, तभी उनलोगों में से कोई बोला- ‘अरे, ये तो चिराग दा है, इन्हें कहां ले जा रहे हो, जल्दी खत्म करो इसे।’ दूसरी तरफ एक आदमी बोल रहा था कि साहब बोल रहा है कि मैं पूछताछ करूंगा, इसलिए इन्हें उनके पास लेकर जाना ही होगा। फिर उनलोगों ने मुझे बोलेरो में बिठाया और लगभग दो बजे एक जगह बोलेरो रूकी, तो मुझे उनकी बातचीत से लगा कि शायद यह कोई थाना या कोई कैम्प है। हाथ में हथकड़ी व आंख में पट्टी बांधें ही कुछ दूर पैदल ले जाकर मुझे एक कमरे में एक कुर्सी में बिठाया।

कुर्सी पर बैठते ही मैंने उनलोगों से बोला कि मेरे हाथ की हथकड़ी व आंखों की पट्टी खोल दो और अब जब आपने मुझे गिरफ्तार कर ही लिया है, तो मेरे परिजनों को इस बाबत खबर दे दो। काफी ना-नुकुर के बाद आखिरकार उसने मेरे हाथ की हथकड़ी व आंख की पट्टी खोल दी लेकिन मेरे परिजनों को सूचना देने की बात को टाल दिया। बोला कि साहब आऐंगे तो वही देंगे।

अब मुझे लगा कि ये लोग मेरे साथ मार-पीट करेंगे और कबूलवाएंगे कि मैं एक माओवादी नेता हूं। उस समय जूलियस फ्यूचिक की लिखी पुस्तक ‘फांसी के तख्ते से’ के पात्रों की याद आने लगी और मैंने निश्चय कर लिया कि मैं उनके सामने कोई भी झूठ स्वीकार नहीं करूंगा, चाहे वे कितना भी मुझे टाॅर्चर करे। तभी वहां उसके दो-तीन ऑफिसर आए और मुझे मेरे अपने पूरे कपड़े उतारने के लिए बोले, सिर्फ जंघिया छोड़कर। मैंने कपड़े उतार दिये, उन्होंने मेरे कपड़े का बारीकी से निरीक्षण किया। जब उन्हें कुछ भी नहीं मिला तो उन्होंने फिर कपड़े पहनने बोला। उसके बाद मेरे जीवन का पूरा इतिहास और मेरा पूरा परिवारिक परिचय लेने के बाद वे अपने मुख्य मुद्दे पर आए।

उन्होंने कहा आप लिखते क्यों हैं? अगर लिखते हो तो फिर किसी मीडिया हाउस में नौकरी क्यों नहीं करते हो? आपके लिखने से माओवादियों का हौसला बढ़ता है व सरकार की बदनामी होती है। आप जिस तरह से लिखते हैं ऐसा एक माओवादी नेता ही लिख सकता है। उसने साफ-साफ कहा कि आप लिखना बंद कर दो या फिर आप हमसे मिलकर लिखो। आप कुछ माओवादी नेता को पकड़वा दो, क्योंकि आपके जैसा पत्रकार ही तो माओवादी नेता से मिल सकता है।

उसने ब्लैंक चेक मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा कि इसमें अपना मनचाहा रकम भर लीजिए और या तो लिखना बंद करिये या फिर हमारे साथ मिलकर माओवादी नेता को गिरफ्तार कराने में मदद कीजिए। उसने कहा कि आपके लिए यही दो विकल्प है, नहीं मानने पर आपको जेल में सड़ा दूंगा या फिर एन्काउंटर कर दूंगा क्योंकि आपलोगों के मोबाइल का अंतिम लोकेशन हाईवे का ही है, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। जब उन्होंने ‘आपलोग’ शब्द बोला तब मैंने पूछा कि वे दोनों कहां हैं, तो उसने बताया यहीं पर है, उनसे भी पूछताछ हो रही है। जबकि मुझे बोलेरो में बताया गया था कि उनलोगों को छोड़ दिये हैं। खैर, मैंने उनके किसी भी बात को मानने से इंकार कर दिया, तो उसने सोचने का वक्त सुबह तक देकर चला गया। उसके बाद एक आफिसर आया और आने के साथ कहना शुरू किया कि ‘रूपेश जी आप भी राजपूत हैं, मैं भी राजपूत हूं।’

‘मैं तो बचपन से माओवादियों से लड़ता रहा हूं और आप माओवादियों का समर्थन करते हैं। कैसा राजपूत हैं आप?’ मैंने उनसे कहा कि पहले तो मैं सभी इंसान को जाति-धर्म से परे एक इंसान के बतौर ही देखता हूं और मेरे सच लिखने से अगर माओवादियों को फायदा होता है तो इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता। उसने भी काफी देर प्रलोभन व धमकी दिया और फिर चला गया। बाद में पता चला कि मैं जहां हूं वह जगह बिहार के गया जिले के बाराचट्टी थानान्तर्गत बरवाडीह स्थित 205 कोबरा बटालियन का कैम्प हैे और अभी जो ऑफिसर गया, वह गया जिला का नक्सल अभियान एएसपी अरूण कुमार सिंह था।

खैर, 4 जून के दो बजे शुरू हुई पूछताछ लगातार 5 जून के रात के 12 बजे तब चली यानी कि लगातार 34 घंटे। इस बीच खाना, चाय, काॅफी और सिगरेट मिलते रहा। फिर 6 जून की सुबह 6 बजे से पूछताछ शुरू हुई और लगभग 12 बजे आईबी के एसपी ने आकर बताया कि आपलोगों को छोड़ रहे हैं, लेकिन रामगढ़ थाना में आपलोगों के परिजनों द्वारा एफआईआर करने की प्रक्रिया चल रही है। इसलिए आपलोग घर में फोन करके यह सूचित कर दीजिए कि आपलोग आ रहे हैं।

6 जून को लगभग 1 बजे दिन में मोहम्मद कलाम व मिथिलेश जी कोे मेरे पास लाया गया और फोन से उन दोनों ने अपने परिजनों से बात की और शाम तक घर लौटने की बात कही। फिर आईबी एसपी ने कहा कि रूपेश जी थोड़ा सा वक्त लगेगा, पहले इनलोगों को छोड़ देते हैं, फिर आपको छोड़ेंगे। यह कहकर उन दोनों को मेरे पास से लेते गया।

फिर थोड़ी देर के बाद वही ऑफिसर आया और बोला कि स्थानीय पुलिस को पता चल गया है, वे लोग डीएसपी समेत यहां आ गए हैं, इसलिए आपलोगों को जेल जाना ही होगा। फिर हमारी आंखों के सामने ही शेरघाटी डीएसपी रविश कुमार की देखरेख में हमारे भाड़े की कार में 32 पीस जिलेटिन व 15 बंडल इलेक्ट्रिक डेटोनेटर को यह कहते हुए रखा कि मुझे आपको फंसाने के लिए यह सब रखना ही होगा, नहीं तो आप जल्दी छूट जाएंगे। फिर हमलोगों को वहां से शेरघाटी डीएसपी ऑफिसर लाया गया, जहां पहले से ही स्थानीय पत्रकारों को बुला लिया गया था, प्रेस कांफ्रेंस में हमलोगों का चेहरा कपड़े से ढंककर ले जाया गया। जब मैंने चेहरे पर से कपड़ा हटाने के लिए बोला तो उसने तुरंत फोटोग्राफरों को फोटो लेने बोला और महज कुछ सेकेंड में हमें वहां से हटा दिया गया। फिर वहां से हमें रात केे नौ बजे के लगभग डोभी थाना के हाजत में लाकर बंद कर दिया गया। वहीं पर बातचीत के क्रम में मोहम्मद कलाम ने मुझे बताया कि मिथिलेश जी को छड़ी से पिटाई भी की गई थी और दोनों को टार्चनुमा एक यंत्र से घुटने पर कई बार इलेक्ट्रिक करंट का झटका भी दिया गया।

7 जून की सुबह डोभी थाना के हाजत में ही अखबारों के माध्यम से पता चला कि हमलोगों को माओवादी बताकर गिरफ्तार किया गया है और मुझे माओवादी का बड़ा नेता बताया गया हैं, साथ ही रामगढ़ थाना में हमारे परिजनों द्वारा अपहरण का एफआईआर व झारखंड पुलिस द्वारा हमलोगों को खोजने के लिए एसआईटी गठित होने की बात भी पता चली।थाने में ही मेडिकल चेकअप हुआ और फिर उसके बाद गया ले जाकर एसीजेएम के आवास पर ही हमलोगों की पेशी कराके लगभग 3 बजे दिन में हमें शेरघाटी सब-जेल (उपकारा) में डाल दिया गया।

जेल जीवन

शेरघाटी सब-जेल में अखबारों के माध्यम से यह पहले ही पता चल चुका था कि तीन माओवादी आज जेल आने वाले हैं और उन सबका नेता रूपेश कुमार सिंह है। मालूम हो कि गया जिला बिहार में सबसे अधिक माओवादी प्रभावित जिला है और शेरघाटी अनुमंडल तो सर्वाधिक। इसलिए शेरघाटी सब-जेल में उस समय कुल 200 बंदी में लगभग 50 बंदी माओवादी होने के आरोप में ही जेल में थे और वहां के जेल सिपाही व आम बंदियों में भी माओवादियों का अच्छा खासा प्रभाव था जिसका फायदा हमलोगों को भी मिला। जेल के कार्यालय में कागजी कार्रवाई पूरी होने के बाद लाल-दीवार के अंदर हमलोग प्रवेश किये। जब हमलोग जेल के अंदर स्थित गुमटी में पहुंचे, जहां जमादार बैठते हैं, तो हमलोगों को देखने के लिए बंदियों की भीड़ उमड़ पड़ी। फिर वहां से हमें जेल के अंदर में ही स्थित अस्पताल में भेजा गया, तो कई बंदी हमारे पीछे-पीछे वहां पहुंचे। अस्पताल में चेकअप कराने के बाद जैसे ही बाहर निकले, तो कई बंदियों की आंखोें में अपनापन दिखाई दिया और उनके होंठ बात करने के लिए व्याकुल लगे। तब मैंने ही पहल करते हुए अपना हाथ अपना परिचय देते हुए आगे बढ़ाया, तब तो फिर हाथ मिलाने वालों और ‘लाल सलाम’ बोलकर अभिवादन करने वालों को तांता लग गया।

फिर हमलोगों की वार्ड छंटाई हुई। मुझे माओवादी का सबसे बड़ा नेता बताया गया था, इसलिए मुझे जेलर के आदेशानुसार ‘सोन खंड’ के 2 नंबर वार्ड में रखा गया क्योंकि यह वार्ड सबसे सामने था और खतरनाक बंदियों को इसमें रखा जाता था। वैसे ये आमद वार्ड (जो भी नया बंदी आता, उसे एक रात इसी में रखा जाता था) भी था। मेरे कमरे के उपर में ही यानी सोन खंड के 4 नंबर वार्ड में मिथिलेश जी को रखा गया और मुस्लिम होनेे के कारण ’गंडक खंड’ के रोजा वार्ड में मोहम्मद कलाम को रखा गया। फिर हमारी तत्कालीन जरूरतों को बंदियों के जरिए ही पूरा किया गया।

9 जून को मेरी मां, ससुर, ईप्सा, अग्रिम और मेरा मौसेरा भाई मुझसे मिलने जेल में आया, वही लोग एफआईआर काॅपी भी लेकर आए। इनलोगों से मिलने के बाद पता चला कि गया पुलिस की एक टीम ने मेरे बोकारो स्टील सिटी स्थित आवास व रामगढ़ स्थित मेरे छोटे भाई के आवास पर 7 जून को छापा मारा और मेरा एक पुराना लैपटाॅप (जो आईबाॅल का था, और अब बेकार हो गया था), एक नया लैपटाॅप (जो कि काम करने के लिए कुछ दिन पहले ही खरीदा था), एक टैब (जो कि बच्चों के गेम खेलने लायक ही रह गया था) व मेरी ढेर सारी किताबें और सबसे महत्वपूर्ण सामग्री (जो कि मैंने झारखंड में हो रही जमीन की लूट और झारखंड में पुलिसिया दमन पर महत्वपूर्ण सामाग्री जुटाया था ताकि आने वाले दिनों में मैं इसपर दो किताब लिख सकूं) गया पुलिस अपने साथ ले गयी।

साथ ही उन लोगों ने बताया कि मेरे नक्सल नेता होने की खबर अखबारों में छपने व मेरे आवास में पुलिस छापामारी के बाद मेरा व मेरे भाई के आवास को खाली कराने केे लिए पुलिस मकान मालिक पर दबाव दे रही है और स्थानीय मीडिया में भी हमलोगों के खिलाफ काफी दुष्प्रचार फैलाया गया है, जिस कारण हमारे सभी जान-पहचान वाले किनारा कर गये हैं।

एफआईआर काॅपी देखने के बाद पता चला कि हमलोगों पर आईपीसी की धारा 414, 120 (बी), 3/4 विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, यूएपीए की धारा 10, 13, 18, 20, 38, 39 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है और मुझे भाकपा (माओवादी) की सी.सी. (सेंट्रल कमिटी) की ई.आर.बी. (इस्टर्न रीजनल ब्येरो) के टेक्निकल डिपार्टमेंट में सैक (स्पेशल एरिया कमिटी, जो की स्टेट कमिटी के समतुल्य होता है) सदस्य बताया गया था। साथ ही भाकपा (माओवादी) के बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी के मुखपत्र ‘लाल चिंगारी’ का संपादक भी मुझे बताया गया था। मिथिलेश जी को नक्सल विचारधारा का समर्थक के साथ-साथ ‘स्लीपर सेल’ का सदस्य बताया गया था और ड्राइवर मोहम्मद कलाम को भी नक्सल विचारधारा का समर्थक बताया गया था।

मेरे बोकारो स्थित आवास से लगभग 150 पुस्तकें व दो नयी किताब की सामग्री भी उठाकर ले गये थे, लेकिन जब्ती सूची देखने पर पता चला कि जब्ती सूची में मात्र सात किताबें ही उसने दिखाया है, जो इस प्रकार है- 1. यादों का लाल गलियारा-दंतेवाड़ा ( रामशरण जोशी), 2. फांसी के तख्ते से (जूलियस फ्युचिक), 3. कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियादी समझदारी-अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन, 4. लाल झंडे केे नीचे-चीनी आत्मकथात्मक उपन्यास, 5. दस दिन जब दुनिया हिल उठी (जाॅन रीड), 6. खून की पंखुड़ियां ( न्यूंगी व थ्यूंगो, अनुवादक-आनंदस्वरूप वर्मा, 7. सलाम बस्तर ( राहुल पंडिता)। इन सारी किताबों को उन्होंने नक्सल साहित्य बताया था। फिर हमलोगों की कार से जो नक्सल साहित्य बरामदगी पुलिस ने दिखाया था, वह देखने पर पता चला कि वह सारा ‘बैन्ड थाउट’ वेबसाईट से डाउनलोड किया हुआ प्रेस रिलीज का प्रिंट आउट है।

खैर, शेरघाटी जेल में आने के बाद बंदियों से बातचीत के क्रम में पता चला कि यहां जेल प्रशासन कुछ दबंग बंदियों को मिलाकर पूरा लूट मचाये हुए है। बंदियों को कुछ भी जेल मैनुअल के हिसाब से नहीं मिलता है। दबंग बंदी अपना चूल्हा अलग ही जलाते हैं और एंड्राॅयड मोबाइल भी रखते हैं, यह सब जेल प्रशासन की देख-रेख में ही होता है। फिर हमलोगों ने बंदियों से बातचीत कर जेल में मुकम्मल सुधार के लिए आठ सूत्रीय एजेंडा पर भूख हड़ताल की घोषणा की, जो इस प्रकार थी-

1. जेल मैनुअल के अनुसार खाना, नास्ता, चाय दिया जाए व किचन में जेल मैनुअल रखा जाए, 2. जेल अस्पताल में 24 घंटे डाॅक्टर की उपस्थिति, 3. बंदियों को अपने परिजनों व वकीलों से बातचीत करने के लिए एसटीडी की सुविधा, 4. शौचालय के सभी गेट व नल की मरम्मत, 5. सप्ताह में मच्छररोधी दवा का एक बार छिड़काव, 6. बंदियों पर जेल पुलिस द्वारा लाठी व हाथ उठाना बंद करना, 7. सभी वार्ड में इमरजेंसी लाइट की सुविधा 8. पुस्तकालय की व्यवस्था व जेल पुलिस द्वारा बंदियों से पैसे की उगाही बंद करना।

इन मांगों पर हमलोगों ने 4 सितम्बर से भूख हड़ताल शुरू किया, आखिरकार 5 सितम्बर को 2 बजे जेल प्रशासन से वार्ता हुई और सभी मांगों को मान लिये जाने पर भूख हड़ताल खत्म हुई और 6 सितम्बर से शेरघाटी जेल भ्रष्टाचार मुक्त होे गया। लेकिन जेल प्रशासन ने इसे अपनी हार माना और मुझे व मेरे साथ और 8 बंदियों को, जिन्होंने भूख हड़ताल का नेतृत्व किया था, 25 सितम्बर को प्रशासनिक लगाकर गया सेंट्रल जेल भेज दिया गया। वहां भेजे जाने के बाद सिर्फ मुझे कैद-ए-तन्हाई दिया गया और सभी को अंडा सेल में डाल दिया गया।

कैद-ए-तन्हाई का मतलब था एक सेल में अकेले रहना और जिस सेल में मुझे रखा था उसका नाम था, अमर शहीद राजगुरू उच्च सुरक्षा कक्ष और वहां पर पहरेदार कैदी थे बारा कांड में फांसी मुक्त लेकिन अंतिम सांस तक जेल में काटने की सजा प्राप्त कैदी। वहां पर सिर्फ मुस्लिम बंदी ही थे, जिनपर आतंकवादी होने का आरोप था। 25 सितम्बर की रात से ही वहां बारिश शुरू हो गयी और मेरे सेल का 80 प्रतिशत हिस्सा रिसने लगा। मैंने जेलर से शिकायत की, लेकिन उन्होंने अनसुनी कर दी।

बाद में ईप्सा ने जब मानवाधिकार आयोग को इस बाबत खत लिखा और इससे संबंधित खबर स्थानीय अखबारों में छपी, तब सुपरिटेंडेंट और जेलर आकर मुझसे मिला और फिर मुझे भी अंडा सेल में रखा गया।

छः महीने के जेल-जीवन के दौरान मैंने सैकड़ों बंदियों सेे बातचीत की और अनुभव किया कि जेल में 80 प्रतिशत बंदी बेगुनाह हैं। 95 प्रतिशत बंदी दलित, पिछड़ी जातियों व अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। 90 प्रतिशत बंदी गरीब परिवार से हैं। मैंने जेल में देखा कि वकीलों की फीस न दे पाने के कारण छोटे-छोटे मुकदमे में भी कई बंदी वर्षों से पड़े हुए हैं। बंदियों की दो कैटेगरी है, एक वे हैं जो अपना चूल्हा जलाते हैं, फोन रखते हैं, जेल से ही अपनाध का संचालन करते हैं और दूसरे वे हैं जो जेल प्रशासन से त्रस्त हैं, जिनका कोई अधिकार नहीं है।

अदालती कार्रवाई और जमानत पर रिहाई

7 जून को जेल जाने के बाद सबसे पहले हमलोगों ने तय किया कि जमानत की प्रक्रिया कोे आगे बढ़ाया जाए। सर्वप्रथम हमलोगों ने एसीजेएम, शेरघाटी से जमानत की अपील की, लेकिन 20 जून को उन्होंने मेरी जमानत याचिका खारिज कर दी।

21 जून को हमारे मुकदमे के आईओ ने कोर्ट में मुझे रिमांड पर लेकर पूछताछ करने केे लिए आवेदन दिया, लेकिन टेक्निकल गलती के कारण अदालत ने उनकी रिमांड की अपील को भी खारिज कर दिया। एसीजेएम द्वारा हमारी जमानत याचिका खारिज हो जाने के बाद हमने तय किया कि पहले मिथिलेश जी और कलाम जी की जमानत के लिए जिला न्यायालय में अपील की जाए़ और उनको जमानत मिलने पर ही मैं जिला न्यायालय में अपील करूं। लेकिन काफी दिनों तक जिला न्यायालय में उन दोनों की जमानत याचिका को लटकाने के बाद 28 अगस्त को खारिज कर दिया गया। इधर हमलोगों का कस्टडी 4 सितंबर को 90 दिन पूरा हो गया।

यूएपीए में आईओ को चार्जशीट दाखिल करने के लिए 180 दिन मिलता है, बशर्ते 90 दिन केे अंदर मुकदमे की प्रोग्रेस रिपोर्ट केे साथ समय बढ़ाने का आवेदन आईओ द्वारा दिया जाए। लेकिन हमारे आईओ ने इस नियम का पालन नहीं किया था। इसलिए सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत मेरे वकील ने एसीजेएम, शेरघाटी की अदालत में मेरी जमानत याचिका 6 सितंबर को दाखिल की, लेकिन एसीजेएम ने मेरी जमानत याचिका खारिज कर दी, यह कहते हुए कि यूएपीए में आईओ को 180 दिन मिलता है। एसीजेएम के इस फैसले के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 397 के तहत जिला न्यायालय में ‘रिवीजन पिटीशन’ 19 सितंबर को दाखिल की गई, जिसमें पहली सुनवाई 21 सितंबर को रखी गई। लेकिन 21 सितंबर को बिना सुनवाई्र किये अगली तारिख 17 अक्टूबर दे दी गई, फिर 17 अक्टूबर को भी सुनवाई्र नहीं हुई और अगली तारिख 14 नवंबर की मिली। इधर 20 सितंबर को मोहम्मद कलाम व 24 सितंबर को मिथिलेश कुमार सिंह द्वारा पटना उच्च न्यायालय में जमानत याचिका दाखिल कर दी गई थी, जिसमें मोहम्मद कलाम को आठ नवंबर को जमानत मिल गयी, इससे पहले 13 अगस्त को ही हमारी भाड़े की कार कोर्ट से रिलीज हों चुकी थी।

मेरे द्वारा जिला न्यायालय में रिवीजन पिटीशन पर 14 नवंबर, 21 नवंबर, 28 नवंबर, 29 नवंबर और 4 दिसंबर को भी बहस हुई। प्रत्येक तारीख को लगता था कि आज जमानत मिल ही जाएगी, लेकिन हर बार सिर्फ अगली तारीख ही मिलती थी। 4 दिसंबर को बहस के बाद भी अगली तारीख 10 दिसंबर की मिली और उधर मिथिलेश जी को भी उच्च न्यायालय में सिर्फ ‘एक्शन डेट’ ही मिलता रहा, लेकिन बहस एक भी नहीं हुई।

इधर हमारी कस्टडी का 180 दिन भी पूरा होे गया और आईओ अभी भी चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाया था। फिर हम दोनों के वकील नेे एसीजेएम, शेरघाटी की अदालत में सीआरपीपी की धारा 167(2) के तहत जमानत याचिका 5 दिसंबर को दाखिल की और हम दोनों को जमानत मिल गई। आखिरकार 6 दिसंबर को हम दोनों ंगया सेंट्रल जेल से जमानत पर रिहा हो गए। बाद में पता चला कि मेरे रिवीजन पिटीशन पर फिर 10 दिसंबर को एक और तारीख ही मिली और वो थी 18 दिसंबर की, लेकिन इस बार 18 दिसंबर को गया जिला न्यायालय में मेरी रिवीजन पिटीशन पर पर फैसला देते हुए मुझे जमानत दे दी, लेकिन मैं पहले ही 6 दिसंबर को ही जेल से बाहर आ गया था।


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