हाल में प्रकाशित बेहद चर्चित किताब ‘कश्मीरनामा:इतिहास और समकाल” के लेखक और कवि अशोक कुमार पाण्डेय अब हर हफ़्ते अपने कॉलम रोज़-ब-रोज़ के साथ मीडिया विजिल के पाठकों से रूबरू होंगे। उनकी अगली किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ प्रेस में है और हिंदी में इस विषय पर प्रामाणिक सामग्री की कमी को देखते हुए इसे लेकर लोगों में काफ़ी उत्सुकता है। कॉलम की शुरुआत तो रविवार से हो रही है, लेकिन वादा शनिवार का है। उम्मीद है कि उनकी किताब की तरह उनके इस कॉलम का भी हिंदी जगत में भरपूर स्वागत होगा- संपादक
बीते तो बस एक हफ्ते हैं। जाड़ों का मौसम, रविवार का दिन और आराम मे डूबे शहर के एक कोने में जामिया से ख़बर आई तो जैसे रगों में खून सर्द हो गया। छात्र राजनीति की है। पुलिस की आँख मे आँख डालकर नारे लगाए हैं, गोरखपुर के कैंपस में पुलिस को घुसते भी देखा है लेकिन इस क़दर बेरहमी से पिटाई और लाइब्रेरी मे घुसकर आँसू गैस चलाकर एक छात्र की आँखें छीन लेने वाली बर्बरता कल्पना से परे थी तो कुछ ही घंटों मे एक अनजान से कॉल पर हज़ारों लोगों के आइटीओ स्थित पुलिस हेडक्वार्टर पर जुटने और पुरज़ोर विरोध का दृश्य भी। कोई 11 बजे रात को मैंने उसमें एक बुजुर्ग दम्पति को आते देखा तो बिना किसी परिचय के हाथ जुड़ गए, उन्होंने नमस्कार नहीं किया, मुट्ठियाँ तान दीं- हमारी कल्पनाएं वाकई बहुत सीमित होती हैं।
एक के बाद एक बड़ी तेज़ी से अपना एजेंडा लागू करती जा रही सरकार ने भी शायद नहीं सोचा था कि मुस्लिम मोहल्लों की कुछ मद्धम आवाज़ों के अलावा भी कोई आवाज़ गूँजेगी इसके खिलाफ़। रस्मी प्रदर्शनों ने उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और इमामों के बिकाऊ ईमानों के बारे में तो वह हमसे बेहतर जानती है। लेकिन इस बार जैसे कई वर्षों का सहेजा गुस्सा एक साथ बाहर आ गया। शुरुआत जामिया से करने के पीछे शायद सोच रही होगी कि राजधानी में दमन के बाद बाक़ी तो वैसे ही डर के खामोश हो जाएंगे। लेकिन हुआ उल्टा। आम तौर से खामोश रहने वाले आइआइटी, आइआइएम, टिस, आइआइएससी जैसे कैम्पसों सहित देश भर में विरोध सड़कों पर आ गया। बिना किसी एक नेतृत्व के और सरकारी दमन के बावजूद। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मे तो दमन की हदें पार कर दी गईं। विभूति नारायण राय की दंगों पर लिखी किताब का याद आना स्वाभाविक था।
देश भर में दमन के लिए हिंसा को सहारा बनाया गया। हर जगह एक ही पैटर्न– शांतिपूर्ण जुलूसों मे अचानक कुछ लोग आते हैं और मुंह पर कपड़ा बांधे और पथराव शुरू कर देते हैं। फिर पुलिस भयावह लाठीचार्ज करती है। मंगलोर मे दो लोग मारे गए तो यूपी में अब तक कम से कम बीस लोगों की मौत की ख़बर आई है। पुलिस कहती है क्रॉस फायरिंग में मरे लोग लेकिन यह नहीं बताती कि दूसरी तरफ़ से फायरिंग कब हुई? तमाम वीडियो पसरे हैं जहाँ पुलिस तोड़-फोड़ करती या गोली चलाती नजर आती है। मीडिया सरकारी दमन को सही ठहराने मे व्यस्त है। सोशल मीडिया पर दो-दो मिनट के सैकड़ों-हज़ारों वीडियो फैले हैं। कोर्ट के पास समय नहीं है। जाँच की कोई संभावना नहीं। पश्चिम बंगाल में भाजपा से जुड़े लड़कों के लुंगी-टोपी पहनकर ट्रेन पर पथराव करने की ख़बर है तो गोरखपुर में संघ से जुड़े दो लड़कों के पथराव और तोड़फोड़ मे शामिल होने की।
इन सबके बीच सबने अपने-अपने नैरेशन गढ़ लिए हैं और किसके पास समय है कि गुरदीप सिंह सप्पल जैसे पत्रकार के इस सवाल का जवाब दे कि क्या पहले सरकार के पास किसी का नागरिकता आवेदन अस्वीकार करने का अधिकार नहीं था? (उनके सारे सवाल बॉक्स में)। मीडिया और संघ की तमाम कोशिशों के बाद भी यह आन्दोलन उतना हिन्दू-मुसलमान नहीं बन सका इसलिए शाही इमाम के सरकारी बयान के बावजूद हाथ में संविधान और तिरंगा लिए लोगों ने भीम आर्मी के चंद्रशेखर के नेतृत्व में विरोध किया और लखनऊ मे गिरफ़्तार किए लोगों मे हिंदुओं और मुसलमानों की संख्या लगभग बराबर है।
एक तथ्य यह भी है कि हिंसा केवल बीजेपी शासित प्रदेशों में हुई। मसलन मुंबई में कोई डेढ़ लाख लोगों का जुलूस निकला और एक पत्थर नहीं चला! मुंबई से मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के तीन बयान आए- जामिया में जो हुआ वह जालियाँवाला बाग़ की याद दिलाता है, धर्म और राजनीति को मिलाना हमारी ग़लती थी और तीस साल का बोझ उतर चुका। अब हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं। शिवसेना को कांग्रेस के समर्थन पर नाराज दोस्तों को इसके साथ यह सूचना भी कि किसानों के दो लाख तक के कर्ज वहाँ माफ कर दिए गए हैं। तो राजनीति संभावनाओं का खेल है, खेल लेना चाहिए। बदलना दोनों को होता है, कल तक के सेकुलर भाजपा में जाकर उनकी बोली बोलने लगते हैं तो उल्टा भी हो सकता है।
इन सबके बीच हैदराबाद में बलात्कार के आरोपियों के इंकाउंटर के बाद न्याय चिल्लाता मध्यवर्ग इस ख़बर पर खामोश है कि अकेले उत्तर प्रदेश में सितंबर से अब तक बलात्कार के बाद पाँच महिलाओं को जलाकर मार दिया गया है। फाँसी-फाँसी की कोई गूँज तब भी नहीं गूँजी जब भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर का अपराध सिद्ध हुआ और कोर्ट ने कहा कि जाँच एजेंसियों ने इसे भटकाने की पूरी कोशिश की। अपनी सेलेक्टिव संवेदनशीलता के बीच ज़ाहिर था कि मध्यवर्ग और मीडिया इस खबर पर चुप्पी साध लेता कि वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2020 में भारत चीन, श्रीलंका, ब्राजील, इंडोनेशिया, बांग्लादेश ही नहीं नेपाल से भी पीछे चला गया है। खुश बस इससे हुआ जा सकता है कि भले हम इस मामले में आखिरी पाँच अभागे मुल्कों में शामिल हैं लेकिन पाकिस्तान तो हमसे भी एक पायदान नीचे है! आखिर डेढ़ सौ रुपया किलो प्याज खाते हम इसी बात पर तो खुश हैं न कि टमाटर पाकिस्तान मे ज्यादा महंगा है! क्या फ़र्क़ पड़ता है कि रोज़गार सबसे निचले स्तर पर है, निर्यात गिरता जा रहा है, कृषि क्षेत्र तबाह है, पब्लिक प्रापर्टी कौड़ियों के दाम बिक रही है। व्हाट्सएप पर पाकिस्तान के परेशान होने की खबरों का एंटी-डोट इन सब पर भारी है और मुशर्रफ की फाँसी की ख़बर को कोई तानाशाहों के अंजाम की तरह देखे तो वह कुफ़्र से कम नहीं।
उधर कश्मीर में हमने सबसे लंबी इंटरनेट बंदी का रिकार्ड तोड़ दिया है। खुद को खुले आम भारतीय कहने वाले, ऊंचे स्वरों मे जन गण मन गाने वाले और हर हाल मे कश्मीर के पाकिस्तान में विलय को अंतिम बताने वाले फ़ारूक़ अब्दुल्ला की हिरासत तीन महीने और बढ़ा दी गई है। बुधवार को कश्मीर के रेजीडेंट पण्डितों के नेता संजय टिक्कू दिल्ली में मिले तो बताया कि पचास हज़ार मंदिरों के बनाने की योजना ज़ोर-शोर से चल रही है। उनकी टिप्पणी थी– ‘उनकी और उनके परिवारों की सुरक्षा तो सरकार करेगी, हम बलि के बकरे बने तो किसे फ़र्क़ पड़ता है? नागरिकता संशोधन क़ानून पर उनका सवाल था कि बदले में मुस्लिम देशों से हिन्दू निकाले जाने शुरू किया तो? याद दिलाया कि जब पण्डित गए जम्मू तो उनका स्वागत नहीं हुआ। तीन सौ से अधिक महिलाओं के बलात्कार की ख़बर आई, भयानक अपमान हुए। बाहर से हिन्दू अगर भारत में आए भी तो उनका भला नहीं होने वाला। कल्चर बड़ी चीज़ है। लोग भूल जाते हैं कि कहीं हम मेजारिटी हैं तो कहीं माइनारिटी।‘
मणिपुर इसका बड़ा उदाहरण है। हैं तो वहाँ के मैती भी हिन्दू लेकिन सेना का उत्पीड़न ही नहीं झेला है उन्होंने, दिल्ली मे चिंकी कहलाये जाने का दर्द भी शामिल है इसमें। खैर, शुक्रवार को कश्मीर से चार महीनों बाद जामिया मस्जिद में नमाज़ पढे जाने की अनुमति की ख़बर आई तो दिल्ली के जामा मस्जिद इलाक़े में लाठीचार्ज के बाद बिखरे खून की तस्वीरों ने राहत की साँस नहीं लेने दी। आज प्रधानमंत्री की रैली है रामलीला मैदान में। उनका आभार प्रदर्शन करने के लिए तो कल झारखंड से जिन नतीजों की ख़बर आनी है उनकी मीडियाई भविष्यवाणियाँ बहुत अनुकूल नहीं मोदी जी के– काश जलते हुए देश को कपड़ों का फ़र्क़ समझाने की जगह युवाओं से बात कर शांति स्थापित करने की कोशिश होती तो आभार हम भी प्रकट करते।
थोड़ा सा इतिहास
माउण्टबेटन की पुत्री पामेला हिक्स की किताब ‘डॉटर ऑफ द इम्पायर’ को स्रोत के रूप में उद्धरित कर एक थियरी चला रहे हैं कुछ लोग कि एडविना माउंटबेटन, जिन्ना और नेहरू साथ पढ़े थे और वहीं ‘विभाजन की सेटिंग’ हुई थी।
पामेला की इस किताब में उनकी माँ एडविना के अलावा किसी की पढ़ाई का कोई ज़िक्र नहीं है। वैसे एडविना का जन्म 28 नवम्बर 1900 में हुआ। जवाहर लाल जन्मे थे 14 नवम्बर 1889 को और जिन्ना 25 दिसम्बर 1876 को। जिन्ना की सारी पढ़ाई बम्बई और कराची में हुई। 1892 में जब वह लंदन लॉ पढ़ने गए तो नेहरू तीन साल के थे और एडविना को पैदा होने में अभी आठ साल बाक़ी थे। बाक़ी क्या कहा जाए। आगे यह कि एडविना स्कूली पढ़ाई से आगे नहीं गई थीं और जिन बोर्डिंग स्कूलों में वह पढ़ी थीं वहाँ जवाहर के क़दम नहीं पड़े थे। पामेला बताती हैं कि उनकी मां से नेहरू की पहली मुलाक़ात दिल्ली आने के बाद यानी 1947 मे हुई थी और मित्रता हुई थी गांधी जी के मौत के बाद देश मे शांति स्थापना की प्रक्रिया के बीच। वैसे तो वह दोनों के बीच किसी दैहिक संपर्क की अफवाहों को भी ग़लत बताती हैं और कहती हैं कि नेहरू बाद मे उनको लिखे खतों का अंत– योर्स मामू– से करते थे, लेकिन उसकी चर्चा फिर कभी।
किताब हैचेट इंडिया से छपी है और उत्सुक पाठक अमेज़न से खरीद सकते हैं।
राज्यसभा टीवी के पूर्व सीईओ और स्वराज एक्स्प्रेस चैनल के इडिटर इन चीफ़ गुरदीप सिंह सप्पल ने एनआरसी और सीएए को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठाये हैं जिन्हें आप बॉक्स में पढ़ सकते हैं।
CAA और NRC पर गुरदीप सिंह सप्पल के कुछ सवालCAA
NRC
|