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बीते हफ्ता मुंबई में देश के सबसे बड़े मीडिया घराने बेनेट कोलमैन एंड कंपनी ने अपने पिंक पेपर ‘द इकनॉमिक टाइम्स’ के नाम पर दो दिनों का कॉरपोरेट एक्सिलेंस अवार्ड आयोजित किया। वहां शनिवार को एक सत्र में जब बीजेपी अध्यक्ष सह गृहमंत्री अमित शाह, वाणिज्य सह रेल मंत्री पीयूष गोयल और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मंचस्थ थे, तब बजाज ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष राहुल बजाज ने एक सवाल पूछ लिया। लगा कि समूचे कॉरपोरेट वर्ल्ड की आवाज़ उनके मुंह से निकल गयी है। वास्तव में वह सवाल नहीं था, बल्कि मोदी सरकार के क्रियाकलाप पर एक टिप्पणी थी।
राहुल बजाज ने अपनी लड़खड़ाती लेकिन मज़बूत आवाज में कहा था, ‘भले ही कोई न बोले, लेकिन मैं कह सकता हूं कि आपकी आलोचना करने में हमें डर लगता है कि पता नहीं आप इसे कैसे समझोगे। हम यूपीए-2 सरकार को गाली दे सकते थे, लेकिन डरते नहीं थे। तब हमें आजादी थी, लेकिन आज सभी उद्योगपति डरते हैं कि कहीं मोदी सरकार की आलोचना महंगी न पड़ जाए।’
राहुल बजाज के इस बयान को हिन्दी के किसी भी अखबार ने खबर योग्य नहीं माना, जबकि कोलकाता से निकलने वाले अखबार ‘द टेलीग्राफ’ ने उसे लीड खबर बनाया। इसका फ्लैग शीर्षक है, ‘अमित शाह के लिए कॉरपोरेट झटका’। मुख्य शीर्षक कुछ इस प्रकार है, ‘एक राहुल ने घेरा आज के शेर को’। अखबार के शीर्षक को देखिए, ‘डरावनी बिल्ली के गले में एक राहुल ने घंटी बांध दी’।
राहुल बजाज के भाषण का यह अंश देखिए, ‘… मैं हर किसी के लिए नहीं बोल सकता, पर मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। यहां लोग हंस रहे हैं, कि जाओ, टांग दिए जाओगे… (हंसी)।’ राहुल बजाज के भाषण को अखबार उद्धृत करता है, ‘सही या गलत मुझे अपनी छवि बनाए रखनी है। मेरे लिए किसी की तारीफ करना बहुत मुश्किल हैं। मेरा जन्म भले धनाढ्य परिवार में हुआ है पर लालन-पालन ऐसा है कि मुझे गरीब की सहायता करनी है। मेरे दादा जी महात्मा गांधी के गोद लिए पुत्र माने जाते थे। मेरा नाम, राहुल, आप पसंद नहीं करेंगे, मुझे जवाहर लाल जी ने दिया था… बात सिर्फ यह नहीं है कि भागवत जी कहते हैं कि लिंचिंग विदेशी शब्द है। लिंचिंग पश्चिम में होता है… मामूली तौर पर होता होगा पर इससे हवा बनती है। असहिष्णुता की हवा। हम डरे हुए हैं। यह हमारी गलती है कि हम डरे हुए हैं पर कुछ ऐसी बातें हैं जो मैं नहीं कहना चाहता था। हम देख रहे हैं कि किसी को अपराधी नहीं ठहराया गया है, अपराधी नहीं है, बलात्कार, राजद्रोह, हत्या का आरोप नहीं है। रिश्वत लेने का मामला है, बहुत गलत है, पैसे कमाए हैं, ठीक है, हजारों करोड़ रुपए का मामला है, हां, वह गलत है पर दोष सिद्ध हुए बिना कोई 100 दिन से जेल में है। मैं किसी का समर्थन नहीं कर रहा। सिर्फ हेलो-हेलो के अलावा मैं संबंधित व्यक्ति को जानता भी नहीं हूं। 40-50 वर्षों में मैं कभी किसी मंत्री से दफ्तर में या घर पर नहीं मिला। पीयूष इससे सहमत होंगे क्योंकि मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह जानता हूं। कुछ कुछ मांगा नहीं…!’
कायदे से यह पहले पेज की खबर थी लेकिन अनप्रोफेशनल होने या दलाली करने के कारण हिन्दी के किसी भी महत्वपूर्ण अखबार में यह खबर मौजूद नहीं है। जबकि इंडियन एक्सप्रेस ने इसे पहले पन्ने पर ‘शाह की मौजूदगी में बजाज ने कहा आपसे कोई नहीं कहेगा…. पता नहीं आपको आलोचना पसंद है कि नहीं’ शीर्षक से छापा है। खबर का उपशीर्षक कुछ इस तरह है, ‘शाह ने कहा डरने की कोई जरूरत नहीं है, पर अगर मूड ऐसा ही है तो हम बेहतर करने के लिए तैयार हैं।’ कुल मिलाकर हिन्दी अखबारों का हाल बेहद शर्मनाक, बेहूदगी से भरा और दयनीय है। इसी खबर को टाइम्स ऑफ इंडिया ने चार कॉलम में दो पंक्ति के शीर्षक के साथ लीड बनाया है। ‘पहले की गलतियां सुधार ली गई हैं, डर की कोई बात नहीं है : इंडिया इंक से शाह।’ इसके साथ इंट्रो भी हैः ‘भरोसा रखिए, मंदी से हम बाहर निकलेंगे।’
अपने संक्षिप्त भाषण में राहुल बजाज ने कहा, ‘… हमारे मन में है, लेकिन कोई इंडस्ट्रियलिस्ट बोलेगा नहीं, हमें सरकार से एक बेहतर जवाब चाहिए, सिर्फ इनकार नहीं चाहिए, मैं सिर्फ बोलने के लिए नहीं बोल रहा हूं, एक माहौल बनाना पड़ेगा, मैं पर्यावरण और प्रदूषण की बात नहीं कर रहा हूं, यूपीए-2 में तो हम किसी को भी गाली दे सकते थे, वह अलग बात है, आप अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन हम खुलकर आपकी आलोचना करें, तो भरोसा नहीं है कि आपको बुरा नहीं लगेगा, मैं गलत हो सकता हूं, लेकिन वह सबको लगता है कि ऐसा है, मैं सबकी तरफ से नहीं बोल रहा हूं, मुझे यह सब बोलना भी नहीं चाहिए, क्योंकि लोग हंस रहे हैं कि चढ़ बेटा सूली पर…।’
कुछ दिन पहले भारत में उदारीकरण के जनक व पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश की आर्थिक स्थिति के बदहाल होने के सबसे महत्वपूर्ण कारण यह गिनाए थे कि देश के उद्योगपतियों में डर समा गया है। कुछ दिनों के बाद इसी बात को देश के सबसे प्रतिष्ठित उद्योगपति राहुल बजाज ने भरे बाजार में टीवी कैमरा के सामने देश के दूसरे सबसे ताकतवर व्यक्ति को आर्इना दिखाते हुए कह दिया। राहुल बजाज ने अपनी बात की शुरूआत बीजेपी सांसद प्रज्ञा ठाकुर के गोडसे वाले बयान से की।
उन्होंने कहा, ‘सब जानते हैं कि जिसने गांधी जी की हत्या की, इसमें किसी को शक है क्या किसी को, पहले भी बोली थी, फिर सफाई दी, आपने टिकट दिया, जीत गई और आपकी सपोर्ट से ही जीती है, उन्हें कोई जानता नहीं था, फिर आपने उन्हें समिति में शामिल कर दिया, प्रधानमंत्री ने कहा था कि मैं उन्हें दिल से माफ नहीं कर सकता, फिर भी सलाहकार समिति में ले आए…।’ अगर उस भाषण को देखें-सुनें तो वहां देश के तमाम बड़े उद्योगपति जिसमें मुकेश अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला और सुनील मित्तल, अदि गोदरेज, हर्ष गोयनका, सुनील मुंजाल, वेदांता वाले अनिल अग्रवाल जैसे सभी कॉरपोरेट घराने के मालिकान मौजूद थे।
प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले पर भी अमित शाह ने सफाई दी और कहा कि प्रज्ञा ठाकुर ने जो कुछ कहा हम उसकी निंदा करते हैं लेकिन हिन्दी के किसी अखबार ने इसे छापना मुनासिब नहीं समझा। हिन्दी के सारे के सारे अखबार छुपने-छुपाने में खुद को खर्च कर दिये। अगर बजाज का पहला ही सवाल यह था कि अगर आप टिकट नहीं दिये होते तो प्रज्ञा ठाकुर जैसे शख्स चुनाव जीत ही नहीं सकते थे, फिर भी आपने उसे टिकट देकर सांसद बनाया। बजाज ने नाम लेकर कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह प्रज्ञा ठाकुर को कभी माफ नहीं कर पाएंगे, लेकिन थोड़े दिनों के बाद वह उसी तरह का बयान देती है!
राहुल बजाज के इस बयान के बाद बीजेपी अध्यक्ष सह गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, ‘मैं साफ तौर पर कहना चाहता हूं कि किसी को डरने की जरूरत नहीं है।’ वैसे अमित शाह की इस बात को ही कुछ अखबारों के अलावा अधिकांश अखबार ने प्रमुखता से छापा है। सवाल यह है कि अगर मुख्य खबर कहीं नहीं है तो यह कैसे हो सकता है कि उसके जवाब की खबर सभी अखबारों में मौजूद हो। इसी तरह की स्थिति जस्टिस लोया हत्याकांड में बनी थी। जब इस खबर को कारवां पत्रिका ने तथ्यात्मक रुप से पहली बार प्रकाशित किया था तो हंगामा मच गया था लेकिन थोड़े दिनों के बाद देश के दो तथाकथित एंटी एस्टेब्लिशमेंट मीडिया हाउस ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘एनडीटीवी’ ने अक्षरशः उन्हीं-उन्हीं बिंदुओं का खंडन छापा व दिखाया जिसका जिक्र द कारवां ने अपनी रिपोर्ट में सबके सामने रखा था।
कुल मिलाकर हिन्दी मीडिया का चरित्र पूरी तरह दलाल और चाटुकार का हो चुका है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि अखबार के मालिक सत्ता प्रतिष्ठान से डरते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि अखबार का संपादक हीनताबोध से ग्रस्त रहता है। वह आज के दिन अगर किसी अखबार में किसी पद पर विराजमान है तो इसलिए नहीं है कि वह उस पद के योग्य है! इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उस व्यक्ति को वह पद सिर्फ और सिर्फ चाटुकारिता से मिला है। अन्यथा यह इस बात का प्रमाण है कि एक्सप्रेस समूह से निकलनेवाला जनसत्ता उन सभी खबरों को छापने से दरकिनार कर लेता है जबकि अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस कई अच्छी खबरें प्रकाशित कर देता है। यही हाल हिन्दुस्तान टाइम्स व उसका हिन्दी अखबार हिन्दुस्तान के बीच दिखाई पड़ता है।
कहने का मतलब यह कि हिन्दी अखबार के संपादक (मालिक नहीं) यह बिल्कुल नहीं चाहते कि अपने पाठकों को सरकार के खिलाफ कोई सूचना मुहैया कराएं। वे ऐसा इसलिए भी करते है क्योंकि इससे पाठकों को अनपढ़ बनाए रखने की साजिश मे भागीदारी बनी रहेगी।
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