2016 में जब मैं जेएनयू पहली बार आया, याद आता है वो पहला दिन जब साबरमती ढाबे पर लेफ्ट, एबीवीपी, बाप्सा, ओबीसी फोरम के छात्र डिबेट कर रहे थे। सब मिल कर लेफ्ट का क्रिटिक कर रहे थे और लेफ्ट का छात्र शालीनता से सफाई दे रहा था।
मैं समझ नहीं पा रहा था इतने शालीन लड़के की खिचाई क्यों हो रही है, लेकिन थोड़ी देर बात बात बदली और बाप्सा का भी वही हाल हुआ। वो भी सफाई देने लगा। आखिर में सब मिलकर ब्राह्मणवाद को क्रिटिक करने लगे। अब मैं खुद को रोक नहीं पा रहा था, लेकिन करता भी क्या। मैं अकेला वो 5 मार भी नहीं कर सकता, गुस्से से ज़मीन को कुरेदता गया। जेएनयू में आने के पहले मैं एक कट्टर हिंदूवादी या आज की नज़र में ‘मीडिया वाला राष्ट्रवादी’ था।
उस पहली घटना ने मुझे हिला दिया। गुस्से से कमरे पर गया, सामान पैक किया, दोस्त से बोला कि इन देशद्रोहियों के बीच नहीं रहना यार। दोस्त बोला कि वहां पर कोई बात ऐसी लगी क्या जिसमें देश की बुराई की गयी हो? देश की बुराई और देश के अंदर सरकार की नीतियों की बुराई में बहुत अंतर है। मैं कुछ देर सोचने पर मजबूर हुआ।
एक और घटना याद आती है। जेएनयू आने से पहले रोज़ शाम हम लोग गांव में चाचा और दूसरे बुजुर्गों के साथ बैठ कर देश-दुनिया, काम और तमाम मुद्दों पर चर्चा करते थे। वहां अक्सर बड़े, बच्चों से सवाल पूछते। जवाब न दे पाने पर पिछली सारी पढ़ाई को खारिज कर जलील करना आम बात थी। एक शाम आरक्षण पर बात हो रही थी। चाचा ने पूछा कितना प्रतिशत किसको मिलता है। मैंने बताया तो, लेकिन उन्होंने जो सुनाया उससे लगा कि गलत ही होगा। फिर कभी कभी सोचता था कि किताबें लेकर आऊंगा, सब पढ़ लूंगा, तब सारे सवाल के जवाब दूंगा। लेकिन फिर मन में प्रश्न उठता कौन सी किताब, और कितनी किताब पढ़ लूं, जिसमें ये छोटे और व्यावहारिक जबाब मिल जाएं, जिससे उन लोगों के हर सवाल का जवाब मेरे पास हो।
अभी हाल में ही जब आरक्षण पर बात होने लगी तो मैंने उन्हें बताया कि कौन से राज्य में कितना, किसको और क्यों मिलता है। वे लोग गंभीरता से सुनने लगे और उनके हर सवाल का मैंने दो या तीन उत्तर दिया। उस उत्तर पर भी प्रश्न करने लगा। अब उनको भी लगने लगा कि मुझमें समझदारी आ रही है। अब सोचता हूं कि हमने उन सब मुद्दों पर तो कोई किताब नहीं पढ़ी, फिर लोगों के साथ अच्छा डीबेट कैसे कर लिया और इन सब छोटे सवालों का सटीक उत्तर मुझे कैसे आ गया?
ये सब हमने जेएनयू के ढाबों पर 5 रुपए की चाय पी कर, रात रात भर 5-10 रिसर्च स्कॉलरों के साथ बैठकर सीखा। हंसी मज़ाक में देश दुनिया की जानकारी और शालीनता के साथ डीबेट करना, साथ ही कम जानकारी पर भी तर्कपूर्ण बातों से डीबेट में बने रहना, ये सब मैंने सीखा जो शायद ही कोई किताब सिखा पाये।
जिन महान लेखकों का नाम भी नहीं सुना या वो महान लोग जो हमारी किताबों के एक पेज तक सिमट गए हैं या वहां जगह भी नहीं मिली, ऐसे सभी लोगों का पूरा व्यक्तित्व, जीवन, उनका संघर्ष और उनकी कही सारी बातें जेएनयू की दीवारों पर चिपके पोस्टरों को पढ़ कर हम जान सकते थे।
जेएनयू प्रशासन ने क्या सोच कर सारी दीवारों से मिशन चला कर पोस्टर्स हटा दिये? सारे ढाबों को 11 बजे बंद करने का फरमान क्यों दे दिया गया सिवाय गंगा ढाबा के? समझ नहीं आता। सिर्फ दुख होता है।
कितने ऑटोवाले या जेएनयू के बाहर रह रहे छात्र यहां मेस मे खाते हैं क्योंकि खाना सस्ता मिलता है। प्रशासन को ये भी नहीं हजम हुआ। मेस की फीस बढ़ा दी। स्टूडेंट्स ने विरोध किया। इसके लिए मीडिया बोल रहा है कि फ्री का खाते हैं। पार्लियामेंट कैंटीन में आधे से कम रेट है जेएनयू के रेट से, कितने लोग गए खाने? कितनी मीडिया या सांसद बोला कि रेट बढ़ना चाहिए, बल्कि और सस्ता हुआ। अगर ये जेएनयू बोल रहा तो गलत क्या है?
अभी फीस बढ़ा दी गयी, अगर पूरे महीने का जोड़ कर देखो तो 7000 से ऊपर हर महीने का पड़ेगा। सोचने वाली बात है भारत में एक बड़ा समाज ऐसे लोगों का है जो लड़कों की पढ़ाई और लड़कियों की शादी के लिए पैसा बचाता है। समय के साथ इतना बदलाव इन मां–बाप में जरूर आया है कि लड़कियों को भी पढ़ाने पर सोचने लगे हैं। जेएनयू जैसी जगह पर भेजने में कोई परेशानी भी नहीं होती क्योंकि फीस का बोझ उनपर नहीं पड़ता।
सोच कर देखिये कोई 25 से 30000 हज़ार कमाने वाला अपने दो बच्चों (एक लड़का, एक लड़की) को उच्च शिक्षा देना चाहे, तो जेएनयू में 20000 तक देना पड़े तो क्या इतना पैसा दे पाएगा? अगर नहीं तो किसको घर बुलाएगा? लड़का या लड़की? क्या यही नीति बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे को साकार करेगी?
दूसरी सोचने वाली बात है कि कितने परिवार ऐसे हैं जो गांव के लोग हैं और 25000 महीना कमाते हैं? जेएनयू में हमने देखा कि अधिकतर वे लोग हैं जिनके परिवार को शाम को खाना तभी मिल पता जब दिन में कुछ काम मिल जाए। हमें यकीन नहीं होता कि यहां आधे से ज्यादा या 70 फीसद वे छात्र हैं जिनके पास पांच बीघा भी जमीन नहीं है। क्या इन लोगों को पढ़ने का हक़ नहीं है? यह नीति वो वाइस चांसलर बना रहा है जिसकी खुद की सेलेरी ढाई लाख महीने से ऊपर है।
जेएनयू एक विश्वविद्यालय नहीं, भारत के अंदर एक ऐसा छोटा भारत है, जहां हर राज्य के छात्र, प्रोफेसर, आईएएस, मंत्री के साथ उसी ढाबे पर चाय पी कर डीबेट करते हैं, बिना ऊंच नीच, पद ओर पैसे का घमंड किए, शालीनता और हंसी मज़ाक के साथ। जो ज्ञान महंगी, आसानी से न मिल पानी किताबों मे पढ़ेंगे वो जेएनयू के ढाबों पर फ्री में मिलना आम बात है।
बहुत से छात्र जेएनयू में स्टूडेंट नहीं होते हैं फिर भी एक परिवार की तरह वैसे ही घुल मिलकर रहते हैं। हाल में ही लखनऊ में दादी का इलाज कराने गया तो सीनियर डॉक्टर ने बताया कि वह भी दो साल कावेरी हॉस्टल मे रह कर मेडिकल की पढ़ाई की थीं क्योंकि बाहर रहने लायक हैसियत नहीं थी। ऐसे कितने आईएएस मिल जाएंगे आपको जो जेएनयू के स्टूडेंट न होकर भी यहां रह कर पढ़ाई किए हैं।
जेएनयू का विरोध करने वालों को बताना चाहूंगा कि अगर आप यहां आए नहीं, या आपकी जान पहचान का यहां कोई है नहीं तो निवेदन है कि मीडिया की बातों मे आकर जेएनयू या यहां के छात्रों के बारे में कोई भ्रम न पालिए। मीडिया बिना तथ्य, वीडियो एडिट और फोटो कट पेस्ट करके दिखाता है कि ये देखिये जेएनयू के छात्र। मीडिया को भी बताना चाहूंगा कि घर की पहली या दूसरी लड़की ही पढ़ने बाहर निकली है, आप ऐसा दिखाकर 100 और परिवार की लड़कियों को बाहर पढ़ने से रोक रहे हो, जो तुम्हारा न्यूज़ देख रहे हैं।
खुद मेरे घर वाले मेरी बहनों को काफी मशक्कत से 2-3 यूनिवर्सिटी में फॉर्म भरवाने को तैयार हुए थे लेकिन ये सब न्यूज़ देख कर बोल रहे हैं, रहने दो घर पर ही ठीक है। यहीं से बीए कर लेंगी।
जेएनयू के बारे में गलत बोलने से पहले यहां आइये, सिर्फ किराया लगेगा, कोई भी छात्र आपको खिला कर रखने को तैयार हो जाएगा। यकीन मानिए, बाहर आपकी कोई भी हैसियत हो यहां किसी से बात करेंगे तो पहले सम्बोधन में जी सर सुनकर आपकी सोच बदल जाएगी।
क्या किताबें रट लेना ही पढ़ना है? क्या डीबेट की जीवन में कोई जरूरत नहीं? क्या सरकार की नीतियों को क्रिटिक नहीं करना है? क्या हमें वही पढ़ने का हक़ है जो सिलेबस सरकार बना कर दे? क्या हमें वही सोचना है जो मीडिया दिखा दे? देश में बिना स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी मे एडमिशन के पढ़ाई करने का अधिकार नहीं है?
अगर ऐसा है तो बंद कर दो देश के सारे विश्वविद्यालय और एक ऐसी संस्था बनाओ जिसमें आप लोगों की सोच को मार कर अपना कमांड सेट कर रिमोट अपने पास रख लो। जब ऑन करो तब ही बोले।
ये सब मैं आज इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैंने जेएनयू के आसपास रहकर, जेएनयू में लोगों से मिलकर अपनी एक समझ विकसित की है और जेएनयू ने मुझे बराबरी का तर्क सिखाया है। जेएनयू सिर्फ वहां के छात्रों के लिए नहीं, समाज के लिए भी बहुत जरूरी है। मैं जेएनयू का छात्र नहीं हूं और न ही कभी बनूंगा, लेकिन जेएनयू ने जो मुझे दिया है वह अमूल्य है।
अंकित पांडेय ने एमए बलरामपुर, उत्तर प्रदेश के एक साधारण से कॉलेज से किया है। फिलहाल जेएनयू के पास रहते हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं।