खूबसूरत कश्मीरी ‘लड़कियों’ से शादी का अरमान पालने वाले हिन्दू राष्ट्रवादी मर्दों के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन कुछ सवाल हैं कि फिर भी कायम हैं.
मर्दों में दिलचस्पी रखने वाली कश्मीरी ‘लड़कियां’ भला क्यों किसी गैर-कश्मीरी आदमी की तरफ मुखातिब होना चाहेंगी, जबकि उनके अपने कश्मीरी आदमी पहले ही इतने आकर्षक हैं? इसे राजनीतिक रूप से एक अनुचित मजाक की संज्ञा दी जा सकती है जो सही भी है लेकिन क्या हिंदुत्व के पैरोकार मर्दों के मानस को समझने के लिए यह उस एक पहलू की तरफ इशारा करता नज़र नहीं आता जो इस तरह की फंतासियाँ पालते हैं? क्या इसका एक संभावित जवाब, मुसलमान मर्दों के बरअक्स उनकी यौनिक व्यग्रता में तो नहीं बसा है? क्या मानव मस्तिष्क को पढ़ने के लेंस से इस व्यग्रता को देखने में कोई मदद मिल सकती है?
हिंदुत्व के मर्दों को मनोविश्लेषक के सामने काउच पर लिटाकर, मैं उस किताब की तरफ ध्यान खींचना चाहूंगी जिस पर मैं फिलहाल काम कर रही हूँ, जिसका शीर्षक है, फेंटेसी फ्रेम्स: लव, सेक्स एंड इंडियन पॉलिटिक्स. यह किताब अगले वर्ष के शुरू में छप कर आ जाएगी. हिन्दू राष्ट्रवादी मर्दों की यौनिकता को मुसलमान मर्दों से जोड़कर देखने और उसका विश्लेषण करने के लिए मैं योगी आदित्यनाथ द्वारा प्रतिपादित लव जिहाद, बल्कि उससे भी पहले 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने की घटना में जाना चाहूंगी.
आइए बात की शुरुआत करते हैं उस कुख्यात भाषण से जो आदित्यनाथ ने आजमगढ़ में हो-हल्ला मचाती और सीटी बजाती भीड़ के सामने 2007 में दिया था. उन्होंने कहा: ‘हम लोगों ने तय कर रखा है, अगर वो एक हिन्दू बालिका को ले जाएंगे तो हम कम से कम सौ मुस्लिम बालिकाओं को ले जाएंगे. अगर एक हिन्दू को मारेंगे तो सौ को हम भी मारेंगे.’
जो जय-जयकार और ख़ुशी भीड़ को उनकी इस बात से हुई वो उतनी ही थी जब अपने भाषण की शुरुआत में उन्होंने बताया कि गोरखपुर के मुसलमान ने यह कहते हुए एक मुकदमा दर्ज किया है कि देश में चाहे जो कुछ भी घटित हो, हकीकत यह है कि गोरखपुर में मुसलमान लड़कियां ही हिन्दू घरों में जा रही हैं. यह खुशी कि ‘उनकी’ औरतें ‘हमारे’ मर्दों को पसंद करती हैं बताती है कि किस हद तक हिन्दू राष्ट्रवादी मर्दों की यौनिकता, मुसलमान मर्दों से तय होती है.
यह एक प्रचलित धारणा है कि अतिकामुक मुसलमान मर्द, हमारी खुशियों का हरण कर रहा है. जब मैं यहाँ ‘हम’ का इस्तेमाल करती हूं तो इसलिए नहीं कि मैं खुद एक हिन्दू हूं, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं हिन्दू राष्ट्रवाद के दर्शन को रेखांकित करना चाहती हूं. अपने भाषण में योगी आदित्यनाथ ने मुसलमानों द्वारा हमारी जमीनें, बिजली और वजीफों, इत्यादि को चोरी किए जाने का जिक्र किया. लेकिन इन सबसे महत्वपूर्ण, उनके द्वारा हमारी औरतों को चोरी किया जाना है. यह धारणा कि वे हमारी औरतें चुराते हैं, एक नहीं बल्कि चार-चार औरतों के साथ गुलछर्रे उड़ाते हैं, हिन्दू राष्ट्रवादी मर्दों में बेहद मजबूत है. हाल ही में मध्य प्रदेश के एक विडियो में श्रीराम सेना का सदस्य एक मुसलमान आदमी की कुटाई करते हुए बिलकुल यही बात कहता दिखता है.
भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद पर गहन अध्ययन करने वाले मानवविज्ञानी थॉमस ब्लूम हेंसन ने इस चुरायी गयी ख़ुशी को लेकर लिखा है. अपनी किताब द सैफरन वेव में राजनीतिशास्त्र के दार्शनिक स्लावोक ज़िज़ेक को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं: ”एक राष्ट्र या समुदाय की ख़ुशी को अंतत: खोने और असंभव के गल्प के इर्द-गिर्द ही गढ़ा जा सकता है”.
इसलिए इस अत्यधिक मौज-मस्ती को, ‘जो हमसे चुरायी जा रही है और जिस कारण हम पूरी तरह अपने ख़ास अंदाज से जी नहीं पाते, जो पूरे समुदाय को इससे वंचित रखती है, उस ‘दूसरे’ पर मढ़ा जाना जरूरी हो जाता है. हेंसन हिन्दू औरतों को उन ‘लंपट मुसलामानों द्वारा ताड़े जाने के बारे में भी लिखते हैं जो हमेशा बेपर्दा हिन्दू औरतों का रेप करने की फिराक में रहते हैं, जबकि उनकी औरतें हमेशा पर्दे में बनी रहने के कारण हिन्दू मर्दों की नज़रों से दूर रहती हैं.’
कश्मीर नामक इसी चुरायी गई वस्तु के रूप में उसकी व्यापक फंतासी का आज एक विशेष संदर्भ में डंका बज रहा है. अब उस कश्मीर नामक वस्तु को हमने अंतत: हथिया लिया है; और उसके साथ-साथ कश्मीरी लड़कियों के साथ भी ऐय्याशी करने के लिए हम आज़ाद हैं. वे अब हमारी बपौती हैं.
अब मैं बताती हूं कि योगी आदित्यनाथ ने लव जिहाद को अपनी वेबसाइट पर कैसे परिभाषित किया था.
‘एक ऐसी व्यवस्था जहाँ सुगंधों से घिरी लड़की को दुर्गंध से भरी दुनिया में बरगला कर लाया जाता है; जहां लड़की अपने संस्कारी माता-पिता को छोड़कर ऐसे लोगों की शरण में चली जाती है जिनके शायद कालांतर में कभी आपस में रिश्ते रहे हों; जहां पावन पवित्रता की, कुरूपता से अदला-बदली होती हो; जहां रिश्तों के कोई मायने नहीं होते; जहां औरत हर नौ महीने में एक बच्चा जनती है; जहां लड़की को अपने धर्म को मानने का अधिकार नहीं होता; और, जहां लड़की को अपनी गलती का एहसास होने और मुक्त होने की चाह रखने पर बेच दिया जाता है”. (लिंक यहाँ देखें)
दिमाग में कई सवाल कौंधते हैं. उनकी दुनिया में आखिर किस तरह की दुर्गंध है? क्या उनके माता-पिता पिछली जिंदगी में कभी आपस में भाई-बहन हुआ करते थे? क्या हम यहां कौटुम्बिक व्यभिचार (इन्सेस्ट) की तरफ इशारा कर रहे हैं, जिसे सभ्यता के पटल से हमेशा के लिए मिटा देने की हम सबको कोशिश करनी चाहिए? और अगर यही सब कुरूप है तो उन पर इसका इल्जाम लगाकर क्या हम भी वही नहीं करना चाह रहे होते? मुझे तो यहाँ yummy-yucky की बू आती है.
हमें यह जानने के लिए आदित्यनाथ की लव जिहाद की परिभाषा नहीं चाहिए कि मुसलमान ‘गंदे’ होते हैं, जैसा कि उन्हें अक्सर बताया जाता है. उनके बारे में इस्तेमाल होने वाला शब्द ‘दुर्गंध’, अपने आप में बहुत कुछ कहता है. इस तरह के शब्द उन ‘दूसरों’ के लिए अक्सर इस्तेमाल में लाए जाते रहे हैं. जर्मनी में नाजियों के आने से पूर्व के समय में समाजशास्त्री और लेखक क्लॉस थ्यूलिट ने अपनी किताब द मेल फेंटेसी में हमारी ज़हनियत से जुड़े इन शब्दों की तरफ ध्यान आकर्षित किया है. वे बेहद प्रभाशाली और काव्यात्मक तरीके से आक्रमण के भय के बारे में लिखते हैं.
वे कहते हैं कि शायद आंखों से देखे जा सकने वाले दृश्य के बजाय, गंध को लेकर हमारा इन्द्रियबोध हमें ज्यादा भयभीत करता है. थ्यूलिट गंदगी के प्रति हमारे डर को ‘संदिग्ध’ एवं ‘अनाकार’, ‘घुसपैठ’ तथा खुद की पहचान खो देने के डर से जोड़कर देखते हैं. वे हमें याद दिलाते हैं कि गंदगी, सम्मिश्रण के डर से जुड़ा हुआ है. इसी कारण सेक्स को अक्सर ‘गंदे’ की संज्ञा दी जाती है.
यह राक्षसी प्रवृति का ‘दूसरा’, जो हमेशा काम-वासना से लबालब रहता है, हमारे भीतर घृणा का संचार करता है. मैं यहां उन लालसाओं की बात कर रही हूं जिनके बारे में हमें शायद पता भी न हो, ऐसी फंतासियों के बारे में जो अचेतन मन में वास करती हैं. क्या हिंदुत्व के पैरोकार मर्दों को अपनी कामुकता को दबाने-छिपाने के बजाय मुसलमानों की जिस कामुकता को कोसने में मजा आता है वह उसके लिए एक बेहतर विकल्प प्रस्तुत करता है?
अस्वीकार्य कामुकता के धारक के रूप में मुसलमानों के बारे में मनोविश्लेषक और लेखक सुधीर कक्कड़ ने भी लिखा है. वे इसे एक ऐसे बच्चे से जोड़कर देखते हैं जो अपने अन्दर बदी और नेकी के साथ संघर्ष कर रहा है. कक्कड़ बताते हैं कि बच्चों में जिसे बदी से जोड़कर देखा जाता है उसे पाशविक माना जाता है, जैसे आक्रामकता, ‘गंदा’ रहना, और ‘बेलगाम कामुकता’. बच्चे से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने बालपन और बाद में वयस्क होने पर ऐसी प्रवृत्तियों पर काबू रखेगा और एक सम्मानित व्यक्ति की तरह बर्ताव करेगा. क्या इससे हिंदुत्व समर्थक मर्द की ज़हनियत को समझा जा सकता है कि क्यों वह मुसलमान को गंदा, आक्रामक और व्यभिचारी मानती है? क्या एक अच्छा बच्चा होने की कोशिश में वे अपनी व्यभिचारी प्रवृत्ति को इन दूसरों पर लाद रहा होता है? ऐसे में उसके लिए अगला विकल्प उसकी हत्या करना ही रह जाता है– पहले शब्दों से और फिर वास्तविकता में, जैसा कि आजकल देखने में आ रहा है.
मैं 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने के वक्त की कुछ झलकियां दिखा कर इस लेख का अंत करना चाहूंगी, जो आज के कश्मीर के बारे में बहुत कुछ बयान करता है. ये झलकियां समाजशास्त्री मनीषा सेठी से ली गईं हैं जो साध्वी ऋतम्भरा और उमा भारती सरीखी हिन्दू राष्ट्रवादी महिलाओं की भूमिका के बारे में लिखती हैं.
साध्वी ऋतम्भरा के बारे में उन्होंने लिखा है, ”बड़ी सावधानी से अपनी आवाज में उतार-चढ़ाव लाती, अपने पीले वस्त्रों में सतीत्व को लादे वे किसी रुपहले पर्दे की देवी नज़र आती थीं, जिनके दर्शन और चाहना तो की जा सकती थी, लेकिन पाया नहीं जा सकता था. इसके उलट उधर कार सेवकों ने अयोध्या की दीवारों पर जगह जगह ‘मैं जीनत अमान के साथ सोता हूं’ या ‘मैं सायरा बानो के साथ सोता हूं’ लिख दिया था. हिन्दू मर्दों की व्यक्तिगत और सामूहिक फंतासी में मुसलमान औरतें बेहद अहम हैं. उमा भारती ने भी मस्जिद ढहाने से पहले भड़कीले भाषण देने में अहम भूमिका निभायी. ऐसे ही एक भाषण में उन्होंने कहा, ‘कायरता और नपुंसकता का लबादा उतार फेंको… पराक्रम और वीरता के गीत गाओ…’
हिंदुत्व के मर्दों को अब चिंता करने की जरूरत नहीं रह गयी है. जी हां, नपुंसकता का इलाज उनके रहनुमाओं ने कर डाला है. जीनत अमानें और सायरा बानो अब उनकी जद में हैं. कश्मीर की लड़कियां भी उनकी जद में हैं. सवाल अब भी वहीं बना हुआ है कि कश्मीरी ‘लड़कियां’ आखिर उनकी तरफ देखेंगी भी क्यों?
जया शर्मा, यौनिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नारीवादी कार्यकर्त्ता और लेखिका हैं. यह लेख मूलतः काउंटर करेंट वेबसाइट पर छपे अंग्रेजी लेख का अनुवाद है. अनुवाद राजेंद्र सिंह नेगी ने किया है.