पिछले हफ्ते को कई बातों के लिए याद किया जा सकता है और अगर न चाहें तो याद करने योग्य कुछ भी नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, देश के 49 कलाकार व बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर उनका ध्यानाकर्षण करते हुए मांग की है कि चूंकि आप देश के सर्वोच्च कार्यकारी हैं, इसलिए ‘राम के नाम’ के हो रहे दुरुपयोग को रोकने की दिशा में ठोस कदम उठाएं।
अब इसके आगे की कहानी देखिए। लोकसभा में समाजवादी पार्टी के सासंद आजम खान ने बीजेपी की पीठासीन अध्यक्ष रमा देवी को कुछ कह दिया, पूरा सत्ता पक्ष उनके खिलाफ हो गया, उनके इस्तीफे की मांग की जाने लगी और बात माफी मांगने पर आकर रूकी।
अच्छा ही हुआ कि आज़म खान ने अपनी टिप्पणी के लिए माफ़ी मांग ली। अगर सत्ता पक्ष और सारी महिलाओं को लग रहा है कि आजम खान ने गलत शब्द का इस्तेमाल किया था तो मैं भी मानता हूं कि वह गलत हैं इसलिए उन्हें माफी मांगनी ही चाहिए थी।
लेकिन क्या आजम खान के माफी मांग लेने से बातें खत्म मान लेनी चाहिए? क्या हमें एक तरह के मापदंड का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, खासकर उस वक्त जब वह व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में हो और किसी भी व्यक्ति के लिए ऊलजुलूल बोल रहा हो? या फिर हमें उस पर बात नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह बात अपने समय के सबसे ताकतवर व्यक्ति ने कही है।
याद कीजिए जब प्रधानसेवक मोदी राज्यसभा में बोल रहे थे और उनके भाषण के बीच ही कांग्रेस पार्टी की रेणुका चौधरी हंस पड़ी थी तो उस पर प्रधानमंत्री मोदी ने रेणुका चौधरी के लिए क्या कहा था। प्रधानमंत्री ने भरे सदन में रेणुका चौधरी के लिए कहा था, ”बहुत दिनों के बाद शूर्पणखा की हंसी सुनाई पड़ी है, अच्छा लग रहा है।” जब कुछ लोगों ने प्रधानसेवक मोदी के उस बयान पर आपत्ति दर्ज कराई तो उस बार पूरा सत्ता पक्ष यह कहते हुए अड़ गया कि आखिर मोदी जी ने उसमें गलत क्या कह दिया है। उसी तरह नरेन्द्र मोदी ने शशि थरूर की पत्नी सुनन्दा पुष्कर को पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड कहा था। वह इतने पर ही नहीं रूके, बल्कि कांग्रेस पार्टी की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी को जर्सी गाय कहा था। लेकिन हमारे समाज का ढोंग या फिर ‘हाई स्टैंडर्ड’ कह लीजिए, किसी ने चूं तक नहीं की। मोदी जी हमेशा की तरह अगले किसी नए व्यक्ति का मानमर्दन करने में व्यस्त रहे और हम इसे उनकी अद्भुत वाक्पटुता कहकर सर्टिफिकेट देते रहे।
उसी तरह जिन 49 कलाकारों ने प्रधानमंत्री मोदी को देश के सर्वोच्च कार्यकारी के रूप में चिट्ठी लिखी है उसका सार क्या है? उसका सार यह है कि देश में राम का नाम लेकर मुसलमानों, दलितों और अल्पसंख्यकों के ऊपर अत्याचार हो रहे हैं, उनकी हत्या हो रही है और आप व आपकी सरकार चुप्पी साधे हुए हैं जबकि देश के मुखिया के रूप में आपको कठोर कदम उठाने की जरूरत है।
अब उन कलाकारों के ‘आरोपों’ के जवाब में प्रत्यारोप भी लगा दिया गया है। मजा देखिए कि उन 49 कलाकारों के जवाब में 62 कलाकारों ने जवाब तैयार किया है जिसमें उनकी बातों को खारिज करते हुए बताया गया है कि वे लोग भारत के विकास के खिलाफ साजिश रचने वाले हैं।
पिछले तीस वर्षों से भारतीय समाज का पतन कुछ ज्यादा ही तेजी से हुआ है। हम यह भी कह सकते हैं कि उदारीकरण ने भारतीय समाज के मूल्यों को छिन्न-भिन्न कर दिया है। उदाहरण के लिए, पहले सभी जाति और सभी समाज में कुछ लोग वैसे होते थे जो अपनी ही जाति के अपराधी को अपराधी कहने की कुव्वत रखते थे, भले ही वह अपराधी कितना भी ताकतवर क्यों न हो। लेकिन नब्बे के दशक में सच को सच कहने की प्रवृत्ति घटने लगी। हर जाति का सबसे बड़ा गुंडा उस जाति का सबसे बड़ा व सम्मानित आदमी बन गया और उस समाज का पढ़ा-लिखा तबका अपना स्वाभिमान उन गुंडों के दरवाजे पर गिरवी रख दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब उस जाति का सबसे पढ़ा-लिखा व्यक्ति उस अपराधी के सामने नतमस्तक हो गया, तो समाज के नैतिकता की बुनियाद चरमरा गयी। बाद में उस समाज के बच्चों ने अपना स्वाभिमान खो दिया।
समाज के पढ़े-लिखे तबके का ऐसा समर्पण चारों तरफ दिखने लगा। इसका अगला परिणाम यह हुआ कि हमने अपना नैतिक बल खो दिया। हर अनैतिक, लेकिन ताकतवर व्यक्ति अपनी बात बड़ी आसानी से समाज से मनवाने लगा क्योंकि उन्हें पता चल गया था कि इन पढ़े-लिखे लोगों के पास चापलूसी करने के अलावा कोई गुण मौजूद नहीं है।
हमारे समाज का यह दोहरापन और ढोंग हर जगह दिखने लगा। जैसे स्टार क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने 1998-99 में पॉपुलर मैगजीन इंडिया टुडे को एक साक्षात्कार दिया जिसमें उसने कहा कि वह शिवसेना का समर्थक है और उसका मेंबर भी है। कहने के लिए हम कह सकते हैं कि शिवसेना भले ही कट्टरता को प्रश्रय देती हो, सेक्टेरियन हो, मराठी मानुष की बात करती हो लेकिन एक राजनीतिक पार्टी तो है ही, इसलिए इसमें किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए। शायद कुछ देर के लिए यह बात सही भी हो, लेकिन उसके उलट अगर यही जवाब मो. अजहरूद्दीन ने यह कहकर दिया होता कि मैं मुस्लिम लीग का प्रशंसक भी हूं और सदस्य भी, तो क्या भारतीय जनमानस इस बात को स्वीकार कर लेता? मेरा जवाब यहां ‘ना’ है।
हमारा नैतिक दोहरापन हमें लगातार नीचता की तरफ़ ले जाता है। जब मैच फिक्सिंग की बात उठी तो पूरी दुनिया के कई बड़े खिलाड़ी उसमें लिप्त पाए गए। उसी में भारत के भी कई खिलाड़ियों का नाम आया। दबी जुबान से सचिन तेंदुलकर के भी शामिल होने की चर्चा थी, लेकिन इस बात को पूरी तरह दबा दिया गया। यहां सवाल यह है कि अगर सचिन मैच फिक्सिंग में शामिल नहीं थे तो क्या उन्हें इसकी भनक भी नहीं थी कि उनकी टीम के कुछ खिलाड़ी भी इसमें शामिल हैं? और क्या आपको लगता है कि मैच फिक्सिंग करना हो तो बुकी ने दुनिया के सबसे बड़े खिलाड़ी को अप्रोच ही नहीं किया होगा? अगर सचिन को बुकी ने अप्रोच नहीं भी किया तब भी ड्रेसिंग रूप में जो चल रहा था उसकी जानकारी पक्के तौर पर उन्हें रही होगी, लेकिन सचिन ने क्रिकेट बोर्ड को इस अपराध की सूचना देना मुनासिब नहीं समझा। और उन्हें भारत रत्न से नवाज़ा गया, राज्यसभा में भेजा गया।
बिशन टंडन ने पीएमओ डायरी के खंड एक में लिखा है कि इमरजेंसी लागू किए जाने के बाद यह कोशिश की गई कि देश के कुछ बड़े लेखकों को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पक्ष में हस्ताक्षर करने के लिए कहा जाए। इसमें खुशवंत सिंह सहित कई लोगों ने हस्ताक्षर किए। हस्ताक्षर के अलावा ‘गिव एंड टेक’ की नीति के तहत कुछ लेखकों को पद्मश्री या कुछ और पुरस्कार दिए जाने का लोभ भी दिया गया, जिसे कई लेखकों ने मानने से इंकार कर दिया। वैसा ही एक नाम कथाकार और संपादक राजेन्द्र यादव का था। राजेन्द्र यादव के बारे में बिशन टंडन लिखते हैं कि जब उनके सामने यह प्रस्ताव रखा गया तो उनका जवाब ‘ना’ था। राजेन्द्र यादव ने अपने इस अनुभव को बहुत ही बेहतर ढ़ंग से ‘मुड़-मुड़ कर देखता हूं’ में विस्तार से लिखा है। राजेन्द्र यादव का कहना था कि जब बिशन टंडन से मिलने वे साउथ ब्लॉक निकले तो वे गिरीराज किशोर के साथ थे और वे बिना किसी कारण ऑटो को पूरी दिल्ली में घुमा रहे थे, क्योंकि ना कहने का साहस जुटा रहे थे। और जब उन्होंने बिशन टंडन को ना कहा तो उन्हें लगा कि बहुत बड़ा बोझ सिर पर उठाए रहने से वह मुक्त हो गए हैं!
यही पुरस्कार न लेना राजेन्द्र यादव को लेखन में बड़ा आदमी बनाता है। यही कारण है कि राजेन्द्र यादव ने बड़ी बेबाकी से वही लिखा जो उन्हें समझ में आ रहा था। यही वह प्रतिबद्धता है जो समाज को आईना दिखाती है। यही वह प्रतिबद्धता है जिसे 49 लेखकों व कलाकारों ने देश-समाज के सामने पेश किया है, जिसकी बात मैं ऊपर कर रहा था। और 62 कलाकारों की उसी ‘प्रतिबद्धता’ को गिरवी रखने की बात वैसी ही है जैसे नब्बे के दशक में हमारे समाज के बुद्धिजीवियों ने गुंडों के सामने जाकर समर्पित कर दिया था।
दुखद यह है कि भारतीय समाज में इन्हीं चीजों की भयानक कमी हो गई है। यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी ही नहीं बल्कि किसी भी ताकतवर गुंडे के लिए हमारा अलग नजरिया होता है जबकि कमजोर के लिए बिल्कुल ही दुसरा नजरिया होता है। अब इसी ढोंग के इर्द-गिर्द हमने अपनी जिंदगी जीनी शुरू कर दी है।