पूर्वी बर्लिन में भारतीय मसाले या हरी मिर्च, धनिया वगैरह नहीं मिलते थे. कुछ समय रहने के बाद जब मल्टि-एक्ज़िट वीसा मिल गया, तो सीमापार पश्चिम बर्लिन में एक सरदार की दुकान से खरीदता था. उससे अच्छी-ख़ासी दोस्ती हो गई थी. लुधियाना में उसकी बीवी थी, अकेले परेशान रहा करता था. मैंने एक बार पूछा भी : बीवी को यहां क्यों नहीं ले आते? उसका जवाब था : साडी वोहनुंग बड़ी क्लाइन है यार.
वोहनुंग यानी फ़्लैट, क्लाइन यानी छोटा.
आप्रवासियों में आम तौर पर दो रुझानें देखी जाती हैं : मेज़बान देश की भाषा व संस्कृति के असर में वे एक सब-कल्चर तैयार करते हैं, जो न तो अपनी मातृभूमि का होता है, न मेज़बान देश का. कुछ मामलों में वे ऐडजस्टमेंट की हद तक जाते हुए उदार हो जाते हैं, लेकिन मूल रूप से वे भयानक अनुदारवाद के साथ अपने देश की परंपराओं से जुड़े रहते हैं. और परंपरायें भी तब की, जब वे देश छोड़कर आये थे. इस बीच उनका अपना देश भी काफ़ी बदल चुका होता है, जिसके बारे में वे शायद ही वाकिफ़ होते हैं. अगर होते भी हैं तो उन्हें इससे बेहद तकलीफ़ होती है. देश के साथ रिश्तों में वे पुराने समय को बांधे रखने की कोशिश करते हैं. यह भी एक वजह है कि देश के अनुदारवादी राजनीतिक रुझानों से वे कुछ अधिक ही जुड़े रहते हैं.
जर्मनी में भारतीय आप्रवासियों के तीन या चार समुदाय देखे जा सकते हैं. हाल के वर्षों में काफ़ी संख्या में कम्प्युटर तकनीशियन आये हैं, लेकिन वे आमतौर पर दो से पांच साल के लिये यहां आते हैं, फिर लौट आते हैं. जर्मनी में स्थायी रूप से रहने वाले भारतीय आप्रवासियों का बहुमत छोटे कारोबारियों का है, अधिकतर वे पंजाब से आते हैं. इनमें सिक्खों से ज़्यादा हिंदू हैं. सिक्ख आप्रवासी अधिकतर 1984 के दंगों के बाद आये थे और यहीं बस गये. शुरू में वे सामाजिक खैराती पर जीते हैं, फिर इनमें से कुछ शाम को घूम-घूमकर रेस्त्रां में गुलाब के फूल बेचते हैं, जल्दी ही इस दौर से निपटकर मसाले की दुकान, या भारतीय रेस्त्रां, या भारत की यात्रा के लिये टूरिस्ट एजेंसी खोल लेते हैं, और इनकी ज़िंदगी की गाड़ी चल पड़ती है.
दूसरा वर्ग पढ़े-लिखे पेशेवर लोगों का है. दरअसल आज से तीस साल पहले भारतीय आप्रवासियों के बीच इनका बहुमत होता था. पहले वर्ग के मुक़ाबले ये जर्मन समाज से कुछ ज़्यादा जुड़े हुए हैं. इनमें से अनेक जर्मन लड़कियों से शादी कर चुके हैं. बच्चे हैं, जो जर्मन बोलते हैं, शायद ही अपने भारतीय मां या बाप की भाषा बोल पाते हैं. एक और बात यह है कि भारतीय पुरुषों की जर्मन पत्नियां अक्सर मिलती हैं, भारतीय महिला के जर्मन पति कम मिलते हैं.
एक तीसरा छोटा सा समुदाय ईसाई गिरजों की पहल पर आई दक्षिण भारतीय नर्सों की है, जो गिरजों के अस्पतालों में काम करती हैं. इनमें से अधिकतर नन हैं, लेकिन सभी नहीं. भारत के दूसरे आप्रवासियों के साथ इनके शायद ही कोई संबंध हैं.
इन सभी आप्रवासियों की एक सामान्य समस्या यह है कि वे मेज़बान देश के जिस सामाजिक परिवेश में जीते हैं, वहां अंग्रेज़ी कम बोली जाती है, हालांकि पढ़े-लिखे पेशेवरों के साथ यह समस्या उतनी विकट नहीं है. उन्हें अपने सामर्थ्य के मुताबिक जर्मन सीखना पड़ता है. मैंने अक्सर देखा है कि यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर या इंजिनीयर के मुक़ाबले मसाले का दुकानदार कहीं बेहतर व फ़र्राटे से जर्मन बोलता है. जिनकी पत्नी जर्मन हो, वे जल्द जर्मन सीख जाते हैं और काफ़ी हद तक शुद्ध जर्मन बोलते हैं.
मुझसे पहले पूर्वी जर्मन रेडियो में जो युवा भारतीय आये थे, राम यादव के अलावा बाकी सभी जर्मन भाषा सीखने के मामले में कच्चे थे, जबकि पूर्वी जर्मन रेडियो में, जिसका नाम था रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल, विदेश से आये पत्रकारों से उम्मीद की जाती थी कि अगर वे स्थाई रूप से काम करना चाहें तो जर्मन ज़रूर सीख लें. मैं खुद भी जल्द से जल्द जर्मन सीखना चाहता था. मेरे लिये हफ़्ते में दो दिन सांध्य कक्षा में जाने का बंदोबस्त किया गया. यह कक्षा शहर के दूसरे छोर पर होती थी और वहां पहुंचने के लिये मुझे एक घंटा पहले छुट्टी दे दी जाती थी. मैं कक्षा के बाद बिल्कुल थक जाता था और मैंने पाया कि मैं कुछ ख़ास सीख नहीं पा रहा हूं. मैंने यह बात अपने विभागाध्यक्ष फ़्रीडमान्न श्लेंडर से बताई और वह मेरे रवैये से बहुत उत्साहित नहीं हुए. लेकिन जर्मन सीखने की मेरी कोशिश बनी रही और अनुवाद के काम में मैं अंग्रेज़ी के साथ-साथ जर्मन पांडुलिपियों को भी परखने लगा, और बातचीत में भी जर्मन का इस्तेमाल बढ़ गया.
पहली बार मुल्क से बाहर गया हुआ था और मुल्क की याद सताती थी. दफ़्तर में भी हर कोई इसे देख सकता था. भारत आने के लिये खुद टिकट खरीदना संभव नहीं था, क्योंकि विदेशियों को समाजवादी देशों से बाहर के टिकट डॉलर में खरीदने पड़ते थे, और एक छोटी सी राशि ही मुझे डॉलर में मिलती थी, जो मैं घर भेज देता था. लेकिन नौकरी की शर्तों में यह भी शामिल था कि मुझे दो साल में एक बार मुल्क आने-जाने की टिकट दी जाएगी. जर्मन भाषा में मेरी दिलचस्पी देखते हुए फ़्रीडमान्न ने एक शर्त रखी. उसने कहा, जिस दिन मैं अंग्रेज़ी टेक्स्ट की मदद लिये बिना पूरे समाचार जर्मन से अनुवाद कर लूंगा, मुझे मुल्क आने-जाने की टिकट दी जाएगी.
सालभर बाद मैं पहली बार अंग्रेज़ी की मदद लिये बिना जर्मन समाचार का अनुवाद कर सका. कार्यक्रम के बाद फ़्रीडमान्न ने शैंपेन की बोतल खोली और अगले दिन हिंदी समाचार की पांडुलिपि लेकर वह महानिदेशक से मिला और शर्त के बारे में बताया. नाराज़गी दिखाते हुए महानिदेशक ने पूछा था कि उनसे पूछे बिना फ़्रीडमान्न ने शर्त कैसे लगा ली. खैर, वह भी ख़ुश थे और एक साल बाद ही मुझे घर की छुट्टी की टिकट मिल गई. साथ ही चेताया गया कि अगली टिकट दो साल बाद ही मिलेगी. यह एक इशारा था कि वे चाहते हैं कि मैं लंबे समय तक काम करता रहूं. मेरा पहला अनुबंध सिर्फ़ दो साल का था.
विभागाध्यक्ष फ़्रीडमान्न के साथ मेरी दोस्ती बढ़ती जा रही थी. एकीकरण के बाद हम एक साथ पश्चिम जर्मन रेडियो डॉयचे वेल्ले में आये, और वह पहले हिंदी विभाग और फिर एशिया प्रखंड के प्रधान के रूप में मेरे बॉस रहे. उनकी देखरेख में मैं सीख रहा था कि कैसे वास्तविक समाजवाद की संरचनाओं को झेलते हुए पत्रकार के रूप में काम करने का स्पेस तैयार किया जाय. दूसरी ओर क्रिस्टा थी, नये-नये विचारों का कभी ख़त्म न होने वाला स्रोत. विभागाध्यक्ष के पद से हटाये जाने के बाद वह एशिया प्रखंड के अंग्रेज़ी कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार के रूप में काम कर रही थी. वह मुझसे कहती थी – तुम्हें एकदिन टैगोर की कविताओं का जर्मन अनुवाद करना है.
इन घटनाओं का ज़िक्र इसलिये कर रहा हूं कि इनसे थोड़ा पता चलता है कि विभाग में साथियों के बीच कैसा आत्मीय माहौल था. एक तरीके से यह एकजुटता ऊपर से आने वाली धौंस के ख़िलाफ़ एक मोर्चा भी था. हर कोई अपने स्तर पर ख़्याल रखता था कि साथ काम करने वालों पर कोई मुसीबत न आवे. साथ ही, आपस में प्रतिस्पर्धा भी कम थी, अगर कहीं थोड़ी-बहुत सामने आती थी तो उसका कोई गंदा रूप नहीं दिखता था. दूसरी बात यह है कि एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था होने के बावजूद माहौल काफ़ी जर्मन था. यूं कहा जा सकता है कि पूर्वी जर्मनी ही पश्चिम के मुक़ाबले कहीं अधिक जर्मन था.
विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्ययन के बाद मारिता हिंदी पत्रकार के रूप में काम कर रही थी. जर्मन भाषा के साथ मेरी जो समस्यायें थी, हिंदी के साथ उसकी वैसी ही समस्यायें थीं. विभाग में तय किया गया कि हम दोनों साथ बैठेंगे और एक-दूसरे की मदद करेंगे. मारिता एक लिव-इन रिलेशन में थी, उसकी एक बेटी थी. एकदिन विभागीय बैठक में कोनराड वोल्फ़ की फ़िल्म सोलो सनी की चर्चा हो रही थी, जिसे पूर्वी जर्मन फ़िल्म जगत में एक नई रुझान के तौर पर देखा जा रहा था. इस फ़िल्म में मेरी दिलचस्पी देखते हुए ख़ासकर महिला साथियों ने सुझाव दिया कि मारिता मुझे साथ लेकर यह फ़िल्म देखे और मुझे समझावे. मुझे भला क्या एतराज़ हो सकता था. तो सोलो सनी पहली फ़िल्म थी, जिसे हम दोनो साथ मिलकर देखने गये. रात को वो मेरे फ़्लैट में रह गई.
बाद में मारिता मेरी पत्नी बनी.
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