अनिल यादव
मामूली लगती चालबाजियां करोड़ों लोगों की नियति करने वाले मुद्दों के भविष्य का पता देती हैं. मिसाल के तौर पर वह हाफजैकेट जिसे आजादी के आंदोलन के दौरान जवाहर वास्कट, जवाहर बंडी, नेहरू जैकेट या सदरी के नाम से जाना गया और बाद में इसी नाम से गांधी आश्रमों में बिका करती थी अब कुछ और हुआ चाहती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि दुनिया उसे ‘मोदी जैकेट’ के नाम से जाने. इस दिशा में किए गए कूटनीतिक प्रयासों का पहला नतीजा सामने आ गया है.
प्रधानमंत्री का पोशाकों के लिए शौक गंभीर है. कई जीवनीकारों ने लिखा है कि मोदी खुद को अलग दिखाने के लिए आरएसएस की शाखा में खाकी के बजाय सफेद हाफ पैंट पहन कर पहुंच जाया करते थे जिसके लिए कई बार उन्हें प्रसिद्धिपरांगमुख और व्यक्तिपूजा से उदासीन वरिष्ठ प्रचारकों की लानत मलानत सुननी पड़ती थी. स्वाभाविक ही था कि उन्होंने जनता पर खुद के प्रभाव को एक पोशाक के जरिए जताने के लिए कई देशों के प्रमुखों को उपहार के तौर पर यह ‘मोदी जैकेट’ भेजी. दक्षिण कोरिया के राष्ट्राध्यक्ष मून ने इस जैकेट को पहन कर तस्वीर ट्विटर पर लगाने और प्रशंसा करने की सदाशयता दिखाई. दीवाली पर मिठाई का लेनदेन करने वाले दो परिवारों की तरह यह दो देशों के बीच सद्भाव का अवसर था लेकिन नए नामकरण से चकराए लोगों ने पूछना शुरू कर दिया है कि क्या भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू, मोदी जैकेट पहना करते थे?
मोदी की निजी तौर पर नेहरू जैसी सुरुचिपूर्ण, उदार और बौद्धिक छवि अर्जित करने की चाहत और सार्वजनिक तौर पर नफरत जगजाहिर है. इस गड़बड़झाले के कारण वे नेहरू पर कई ऐसे आरोप लगा चुके हैं जो तथ्यात्मक रूप से गलत निकले. राजनीति का मामूली जानकारी रखने वाला अंधा भी उन्हें देख सकता था. वे चाहते तो दुनिया को बहुत साधारण तरीके से बता सकते थे कि वे नेहरू से अधिक लोकप्रिय हैं क्योंकि नेहरू के जमाने में भारत की आबादी ही अब जितनी नहीं थी. सीधी सी बात है, ज्यादा लोगों तक पहुंच बराबर ज्यादा लोकप्रियता. भारत भी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र आबादी के कारण ही कहा जाता है कोई अन्य सुर्खाब का पर नहीं लगा हुआ है.
उपहार प्रधानमंत्री ने भेजा था तो बोलना उन्हें ही चाहिए था लेकिन जवाब गुजरात की उस प्राइवेट पोशाक निर्माता कंपनी की तरफ से आया जिसे राष्ट्राध्यक्षों को मोदी जैकेट भेजने से मिलने वाले मुफ्त के प्रतिष्ठापूर्ण विज्ञापन से होने वाले फायदों के लिए चुना गया है. कंपनी कह रही है, नेहरू ने इस जैकेट का फैशन जरूर शुरू किया था लेकिन इसे रंगीन और लोकप्रिय मोदी ने बनाया जिसके कारण कारपोरेट कंपनियों के ओहदेदार भी इसे पहनने लगे हैं. इस नफासत में वे लाखों साधारण लोग तेल लेने चले गए जो आधी सदी से जाड़ों में ठिठुरते हाथ ठूंस कर इसकी जेबों का झोला बनाते आए हैं.
बड़े व्यक्तित्वों, विचारों, उपलब्धियों और प्रतीकों पर अपना नाम लिखकर उनसे अपने टुच्चे स्वार्थों की चाकरी कराने का ढिठाई भरा फैशन इन दिनों हर तरफ फैलता दिखाई दे रहा है. सरदार वल्लभभाई पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था और बार बार सांप्रदायिक नफरत फैलाने से बाज आने की चेतावनी दी थी लेकिन गगनचुंबी प्रतिमा लगाकर उन्हें अपना बनाने का कर्मकांड पूरा कर लिया गया है. मान लिया गया है कि लोग सरदार का कर्म और विचार भूल गए होंगे, सिर्फ मूर्ति के बगल में मोदी की फोटो को याद रखेंगे. साबरमती के आश्रम में बैठकर गांधी का चरखा घुमाने और आजाद हिंद फौज के एक सिपाही की टोपी पहन कर फोटो खिंचा लेने से आप उनके संघर्षों के भी वारिस हो जाएंगे.
मोदी जिस आरएसएस की देन हैं वह गांधी की हत्या करने वाले गोडसे और अंग्रेजों की स्वामिभक्ति की कसम खाने वाले सारवरकर जैसे अपने दिल के करीब के नायकों के बजाय समाजवादी भगत सिंह को भगवा पगड़ी पहना कर, हिंदू धर्म के मनुवादी पाखंड पर करारी चोट करने वाले अंबेडकर की फोटो के नीचे दलित बस्ती में खिचड़ी भोज आयोजित कर जनता की मति फेरने की व्यर्थ कोशिशें करता रहा है. अयोध्या के जिस राममंदिर के लिए इन दिनों सुप्रीम कोर्ट को धमकाया जा रहा है उसके लिए अभियान की शुरूआत भी दिसंबर 1949 की एक रात के अंधेरे में एक वीरान मस्जिद में मूर्तियां रखकर की गई थी. अपने षड्यंत्र को परमसत्य और संविधान को माया मानने का भाव “बंद करो यह न्याय का नाटक जन्मभूमि का खोलो फाटक” नारे के जरिए बहुत पहले प्रकट किया जा चुका है.
यह झूठ को घिस कर सच जैसा दिखाने वाले प्रचार पर अगाध आस्था है या इस देश के मिजाज को सौ सालों में भी न समझ पाने की हताशा? जो भी हो सिर्फ पानी पर अपना नाम लिखने की तल्लीनता से प्रभावित होकर आपको कोई समुद्र का निर्माता नहीं मानने लगेगा.