अनिल यादव
मैं पांच दिन से भाजपा के सर्वेसर्वा अमित शाह के कोटा में साइबर योद्धाओं के सामने दिए गए भाषण का वीडियो देखे जा रहा था तभी लखनऊ में ‘एप्पल’ के एक्जीक्यूटिव विवेक तिवारी की पुलिस ने हत्या कर दी. स्क्रीन पर पहली प्रतिक्रिया एक प्रशिक्षित साइबर योद्धा की ही दिखी- “अगर मैं पुलिस वाला होता और विवेक तिवारी की जगह मेरा बाप भी होता तो गोली मार देता.” वह यूपी में जारी योगी आदित्यनाथ के न्याय के शासन को दृढ़ नैतिक आधार देना चाहता था.
दूसरी प्रमुख प्रतिक्रिया एक स्वयंभू साइबर योद्धा की थी जो कह रहा था- “अगर पुलिस वालों पर फौरन कार्रवाई नहीं होती तो एप्पल को भारत में अपने सारे दफ्तर बंद कर देने चाहिए.” वह शायद एप्पल के बिना विवेक तिवारी नाम के नागरिक की कल्पना नहीं कर पा रहा होगा जिसे कम से कम जीने का अधिकार था. सही है इन दिनों कुतरा हुआ सेब, सत्यमेव जयते के ऊपर बने असोक चक्र (सम्राट असोक अपना नाम ऐसे ही लिखता था) से अधिक पहचाना जाने वाला चिन्ह है. उसे लगता होगा मोदी के न्यू इंडिया को सदमा लगेगा. न्यू इंडिया, न्यायप्रिय कारपोरेट कंपनियों के बिना बेराजगार होकर भीख मांगने की स्थिति में आ जाएगा. टाई वाले बेराजगारों की अराजकता से डरी सरकार को सुधरना पड़ेगा.
पृष्ठभूमि में करुणा के पीछे उत्साह छिपाती आवाजों में सामाजिक न्याय का कीर्तन शुरू हो गया, जरा सोचिए… तिवारी की जगह हमेशा की तरह कोई यादव, पटेल, अंसारी, सिद्दीकी, सुमन या सरोज होता तो? ये वही तो हैं जो आरक्षण वालों से नफरत करते हैं, गाय की आड़ में छिपकर मुसलमान मारने वालों के खातों में पेटीएम करते हैं, पिज्जा-पोर्न और जनेऊ के साथ हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं.
सामाजिक न्यायवादी जाने कैसे भूल जाते हैं कि जो दलित-मुसलमान-पिछड़े नौजवान फर्जी मुठभेड़ में पुलिस की गोली से मरते हैं उनकी जिंदगियां कथातत्व और दुख की पालिश के कारण वास्तविकता से अधिक चमकदार और कहीं संभावनाशील हो जाती हैं. उस जिंदगी से तो शर्तिया ही बेहतर बन जाती हैं जो वे गरीबी का जीवन जीते हुए बुढ़ापे में सहारा देने वाले मजबूर परिजनों की गालियां खाते हुए जैसे तैसे पूरी करते. अगर वे अकाल मृत्यु के बाद प्रेत भी बनते होंगे तो सामान्य प्रेतों की तुलना में ज्यादा पोलिटिकल और संघर्षशील होते होंगे. वे यह भी भूल जाते हैं कि शोक में सामाजिक न्याय की याद दिलाना बंधुत्व नहीं जगाता होगा बल्कि एक और खामोश लेकिन मजबूत गांठ लगा देता होगा. कोई कैसे भी विचार रखता हो, उसे जिंदा रहने का हक तो है न!
अमित शाह अगली सरकार सोशल मीडिया के जरिए बनाना चाहते हैं. उन्होंने साइबर योद्धाओं से राजस्थान के कोटा में हर साल दर्जनों के हिसाब से आत्महत्या करने वाले कोचिंग के छात्रों के बारे में कुछ नहीं कहा. वे उन किसानों की ही तरह हैं जो सरकार की बदनामी करने के लिए व्यक्तिगत कारणों को कर्ज और घाटे की खेती बताते हुए मरा करते हैं. उन्होंने कहा, झूठा हो या सच्चा मैसेज वायरल करते रहो. एक बहुप्रचारित झूठ का उदाहरण देते हुए जब उन्होंने कहा, ‘काम तो करने लायक है लेकिन करना मत’, तब उनके मुख पर वही मुस्कान थी जो द्वापर में माखन चुराते कान्हा को बरजती यशोदा माता के चेहरे पर हुआ करती थी. वे आजमा चुके हैं कि सबसे पहले, सबसे अधिक बारंबारता से और सबसे अधिक दूर तक पहुंचाए गए झूठ का असर जनता पर पहली फिल्म, पहली रेल और पहली प्रेमिका जैसा होता है. जब तक कोई गुरूगंभीर मुद्रा में सच बताएगा तब तक अपना काम हो चुका होगा.
तुर्रा यह है कि जिस विपक्ष को इसका जवाब देना था, वह अपने कार्यकर्ताओं को राजनीतिक प्रशिक्षण देने का काम कब का बंद कर चुका है. वहां व्यक्तिगत फायदे के लिए राहुल, मायावती, अखिलेश, ममता, लालू की जयजयकार करते हुए सेल्फी लेना इन दिनों प्रमुख राजनीतिक गतिविधि है. यह राजनीतिक संस्कृति बड़े जतन से शांति के उन दिनों में विकसित की गई जब तकनीक का झूठ और अफवाहों के लिए व्यापक इस्तेमाल सोचने वालों का निर्माण हो रहा था.
जब सच और झूठ का, धर्म और अधर्म का, जीवन और मृत्यु का फर्क ही मिटा दिया जाएगा… इस भ्रम के वातावरण में उसे ही स्वीकार करने की बाध्यता होगी जिसे सर्वाधिक हिंसक शक्ति के साथ प्रचारित किया जाएगा, तब विवेक तिवारी जैसों को अवसरानुकूल आतंकवादी, शहीद, आत्महंता, लव जेहाद का शिकार, व्यभिचारी या गोली खाने का शौकीन कुछ भी साबित किया जा सकता है. किसी नौजवान साइबर योद्धा से हत्या के डर और दुख का बोध ही छीन कर, उसे एक वांछित झूठ को प्रचारित करने का खिलौना बना दिया जाए क्या यह खुद हत्या से भी अधिक भयावह स्थिति नहीं है. इन दिनों प्रशिक्षण पा रहे लाखों साइबर योद्धाओं की जिंदगियां कल कैसी होंगी?