मुल्क़ के साथ दिक्कत यह है कि यह फिल्म भ्रामक संदेश देती है- कि यदि आतंकवाद की वह असामान्य घटना न घटी होती तो कोई भी मुसलमान परिवार अपने खुशगवार हिंदू पड़ोसियों की सरपरस्ती में अमन-चैन के साथ जी सकता था। फिल्म में आखिर इस देश के एक फासीवादी राज्य में तब्दील होते जाने का कोई जि़क्र क्यों नहीं है? आखिर लड़का आतंकवादी क्यों बना? यह नौजवान आतंकी इतना आक्रोशित क्यों था? बेरोज़गारी? पुलिस के जुल्म? अयोध्या? गुजरात? कश्मीर? या फिर उसे कोई मसीहाई इलहाम हुआ था कि किसी जंग में एक नामुमकिन फ़तह के लिए उसे किसी काल्पनिक जनता की अगुवाई करनी है? या फिर अगले जन्म को सुधारने की यह कोई कवायद रही?
जावेद नक़वी
मेरे तकरीबन सभी दोस्तों ने मुल्क़ की सराहना की है कि वह एक दमदार मूवी है। मैं अब भी उसके उद्देश्य पर बहस किए जा रहा हूं। कहानी यों है कि बनारस के एक मोहल्ले में रहने वाले मुस्लिम बुजुर्गवार मुराद अली मोहम्मद का सबसे छोटा भतीजा बम धमाके में शामिल पाया जाता है। इसके घटना के बाद वे हिंदू पड़ोसी इस परिवार के खिलाफ़ हो जाते हैं जो कभी मिलनसार थे। अब मुस्लिम परिवार को साबित करना है कि वह राष्ट्रविरोधी नहीं है।
इस देश में सांप्रदायिकता की जड़ें आतंकवाद से सदियों पुरानी हैं। उदाहरण के लिए कवि भूषण के ज़हरीले पदों को लिया जा सकता है। हाल के दिनों में एक मुस्लिम अभिनेत्री ने कहा कि उसके नाम की वजह से उसे मुंबई में एक मकान बेचने से मना कर दिया गया। यह परिघटना बहुत व्यापक है।
नेहरू ने मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को 17 अप्रैल, 1950 को गुस्से में एक ख़त लिखा था: ‘’… आमशुदा मंज़र और छिटपुट घटनाओं की जैसी रिपोर्ट मुझे मिल रही है, उससे अहम घटनाओं के बरक्स ज़मीनी हालात कहीं ज्यादा ज़ाहिर होते हैं। एक मुसलमान शहर की सड़क पर चले जा रहा है। कोई पीछे से उसका कंधा ठोकता है और उसे पाकिस्तान चले जाने को कहता है या उसे एक थप्पड़ जड़ देता है या फिर उसकी दाढ़ी नोंच लेता है। मुसलमान औरतें सड़क से गुज़रती हैं तो उनके ऊपर अश्लील फब्तियां कसी जाती हैं और अकसर ही यह उलाहना दी जाती है कि ‘पाकिस्तान चली जाओ’। हो सकता है ऐसा करने वाले एकाध व्यक्ति हों लेकिन सच यह है कि हमने एक ऐसे माहौल को बनने दिया है जो इस किस्म की चीज़ों को होने देता है और हम उसे देखकर स्वीकृति दिए चले जाते हैं।‘’
सतह पर देखें तो यह फिल्म एक भारतीय रिहाइश में हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच भरोसे के बारे में जान पड़ती है। दूसरी ओर, यह कहानी पहले से मौजूद उस सुप्त दुराग्रह के बारे में भी हो सकती थी जिसका हवाला नेहरू देते हैं, लेकिन ऊपर से दिखने वाली सहज मिलनसारिता के चक्कर में पड़ कर यह फिल्म गलती से दोनों समुदायों के बीच के भरोसे पर जा टिकती है।
यह खुशगवारी तब टूटती है जब लड़का एक बस को बम धमाके से उड़ा देता है और घटना का समूचा आख्यान गढ़ने का काम टीवी चैनल करते हैं। एक मुसलमान पुलिस अफ़सर लड़के को गोली मार देता है जबकि वह उसे गिरफ्तार भी कर सकता था। उसके पिता पर उससे मिले होने का आरोप लगा देता है। यह एक दिलचस्प नज़रिया है कि एक मुसलमान पुलिस अफ़सर खुद को कैसे बादशाह के प्रति ज्यादा वफ़ादार साबित करने की कोशिश कर रहा है। यहां एक ऐसी हकीकत छुपी हुई जिससे हम अनजान हैं। वह हकीकत क्या है? क्या भरोसा टूट चुका है, जैसा कि फिल्म कहती है या फिर कोई गहरा अविश्वास पहले से था जो अचानक एक घटना से सुलग उठा, जैसा कि हिंदू पड़ोसियों की हलकी-फुलकी दिल्लगी के काफी आसानी से बिखर जाने में ज़ाहिर हो रहा है?
एक और असामान्य लेकिन दिलचस्प वाक़या मुसलमान परिवार में हिंदू बहू का होना है, जो पेशे से वकील है और लड़के के निर्दोष पिता की पैरवी करती है जिसे षडयंत्र का आरोपी बनाया गया है। अदालत के भीतर सरकारी वकील जब-जब सांप्रदायिक और मुसलमान-विरोधी दलील देता है, वहां बैठे लोग वाहवाह करने लग जाते हैं।
एक बार फिर नेहरू का पैग़ाम देखिए। लड़के का बाप अपने ऊपर लगे अपमानजनक आरोप को बरदाश्त नहीं कर पाता और हिरासत में उसकी मौत हो जाती है। अंत में हालांकि जज उसे निर्दोष करार देता है, जिसका श्रेय हिंदू बहू की कानूनी दलीलों को जाता है। अदालत में बैठे लोगों को जज उनकी मुसलमानों विरोधी अंध-धारणाओं पर आड़े हाथों लेता है। जज के फैसले के बाद हिंदू पड़ोसी शर्मिंदा जान पड़ते हैं।
आज़ाद भारत में मुसलमानों की तंगहालत पर एक से एक बेहतरीन फिल्में बनी हैं। जो तुरंत याद पड़ती हैं उनमें एमएस सथ्यू की गरम हवा, श्याम बेनेगल की मम्मो, सईद मिर्जा की नसीम और हंसल मेहता की शाहिद हैं। और भी हो सकती हैं लेकिन ये चार बहुत संजीदा फिल्में थीं जिनके भीतर जबरदस्त सेकुलर संदेश पैबस्त था। हर एक के कथानक की पृष्ठभूमि बिलकुल साफ़ थी।
गरम हवा में मुल्क के तक़सीम होने से लगा सदमा था तो मम्मो इसका एक दूसरा ही संस्करण थी। नसीम में नेहरूवादी भारतीयता के ध्वंस का संदेश बाबरी विध्वंस की घटना से निकला था। शाहिद हिंदू चरमपंथियों के हाथों एक मुसलमान वकील की हत्या की कहानी है जो आतंक के नाम पर झूठे मुकदमों में कैद किए गए नौजवानों के मुकदमे लड़ता है। मुल्क़ की तरह यह भी सच्ची घटना पर आधारित फिल्म थी।
एक और फिल्म थी धर्मपुत्र, जो भारत में मुसलमानों की स्थिति पर बनी वाकई सच्ची फिल्म थी। इसमें हिंदुत्व और उसकी मानसिकता पर बिलकुल सामने से वार किया गया था, और यह 1961 की बात रही। इस फिल्म को आज दिखाया जाना जोखिम भरा काम होता लेकिन बीआर चोपड़ा की यह फिल्म नेहरू के जीते जी आसानी से रिलीज़ हो गई। संघ की कट्टरता और उसके मुस्लिम विरोधी सनक पर बनी फिल्मों में यह सर्वाधिक आलोचनात्मक फिल्म रही। मुल्क में बुजुर्ग मुराद अली का किरदार निभाने वाले ऋषि कपूर के चाचा शशि कपूर इस फिल्म में विभाजन में बिछड़े एक मुस्लिम दंपत्ति की अनचाही संतान के किरदार में हैं, जिसे उस दंपत्ति के हिंदू डॉक्टर मित्र और उसकी पत्नी ने पाला-पोसा है। कपूर का किरदार बड़ा होकर मुसलमानों से नफ़रत करने वाला कट्टर हिंदुत्ववादी बनता है।
ज़ाहिर कारणों से चर्चाओं के बाहर रहने वाली यह बेहतरीन फिल्म यश चोपड़ा ने निर्देशित की थी। चोपड़ा बंधु विभाजन के बाद लाहौर से आए थे। भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने के भीतर धर्मनिरपेक्षता को कायम रखने में इन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया है।
मुल्क़ के साथ दिक्कत यह है कि यह फिल्म भ्रामक संदेश देती है- कि यदि आतंकवाद की वह असामान्य घटना न घटी होती तो कोई भी मुसलमान परिवार अपने खुशगवार हिंदू पड़ोसियों की सरपरस्ती में अमन-चैन के साथ जी सकता था। फिल्म में आखिर इस देश के एक फासीवादी राज्य में तब्दील होते जाने का कोई जि़क्र क्यों नहीं है? आखिर लड़का आतंकवादी क्यों बना? यह नौजवान आतंकी इतना आक्रोशित क्यों था? बेरोज़गारी? पुलिस के जुल्म? अयोध्या? गुजरात? कश्मीर? या फिर उसे कोई मसीहाई इलहाम हुआ था कि किसी जंग में एक नामुमकिन फ़तह के लिए उसे किसी काल्पनिक जनता की अगुवाई करनी है? या फिर अगले जन्म को सुधारने की यह कोई कवायद रही?
इनमें से हर एक सवाल पर एक फिल्म बनाई जा सकती है। मसलन, कश्मीरी पृष्ठभूमि में हेमलेट की तर्ज पर बनी हैदर एक ईमानदार और साहसिक मूवी थी। भारत नाम के मुल्क की दिक्कतों पर बात करने वाले तमाम सामान्य लोगों व ढेरों बौद्धिकों की तरह मुल्क के निर्देशक की नीयत भी दुरुस्त है। फ़र्क बस एक बात से पड़ता है, जिसे ऐसे ही एक अदीब ने कभी इन शब्दों में कहा था, ‘’मैंने जब भूखों को खाना खिलाया, तब उन्होंने मुझे संत कहा। मैंने जब पूछा कि वे भूखे क्यों हैं, तो उन्होंने मुझे कम्युनिस्ट करार दिया।‘’ दरअसल, वह दूसरा सवाल है जिसे मुल्क में पूछा जाना था, तब शायद यह फिल्म हमें थोड़ा ज्यादा राज़ी कर पाती।
पाकिस्तान के अख़बार डॉन में 21 अगस्त 2018 को प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार जावेद नक़वी के नियमित स्तंभ से साभार, अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।