चंद्र प्रकाश झा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बार -बार उत्तर प्रदेश का दौरा करने के मायने किसी से छुपे नहीं हैं। मोदी जी ने माह भर पहले उत्तर प्रदेश में संत कबीर दास की निर्वाण स्थली मगहर से इस प्रदेश का अपना जो नियमित दौरा शुरू किया उसका उद्देश्य आध्यात्मिक नहीं चुनावी ही माना जाता है। उन्होंने मगहर के बाद करीब एक माह के भीतर ही प्रदेश में आजमगढ़, मिर्जापुर, वाराणसी , शाहजहांपुर और लखनऊ में भी जनसभाएँ की हैं. वह वाराणसी से ही लोकसभा सदस्य हैं. वाराणसी के जन प्रतिनिधि होने के नाते उनके वहाँ नियमित रूप से जाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वह प्रधानमन्त्री के रूप में उत्तर प्रदेश के अन्य जगहों का ही नहीं देश भर का दौरा करते रहें , यह अच्छी बात ही कही जाएगी। लेकिन अब जबकि अगले लोकसभा चुनाव होने में करीब नौ माह ही बचे हैं, उत्तर प्रदेश के प्रति उनका अतिरिक्त अनुराग सामान्य तो नहीं ही कहा जा सकता है।
गौरतलब है कि उनके इन सारे दौरों का आयोजन भारतीय जनता पार्टी नहीं बल्कि सरकार कर रही है। इन दौरों के उद्देश्य राजनीतिक और चुनावी बेशक है, उनके आयोजन के मुख्य खर्च राजकीय हैं। माना जाता है कि प्रधानमन्त्री के हर दौरे का खर्च 30 से 50 करोड़ रूपये पड़ता है। खर्च में विमान यात्रा, आंतरिक सुरक्षा आदि का कुछ हिस्सा प्रधानमन्त्री कार्यालय उठाता है। बाकी खर्च, राज्य सरकार और उसकी एजेंसियों को उठाना पड़ता है। इन खर्चों के बारे में कोई अधिकृत विवरण उपलब्ध नहीं है।
भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों से मिली जानकारी के अनुसार मोदी जी अब हर माह कम से कम चार बार उत्तर प्रदेश का दौरा करेंगे। निश्चय ही उन्हें पता है कि लोकसभा की सर्वाधिक, 80 सीटों वाले इस राज्य में भाजपा के जीते बगैर उनका फिर प्रधानमंत्री बनना आसान नहीं होगा। शायद इसलिए वह मौका मिलते ही उत्तर प्रदेश के दौरे पर निकल जाते हैं। इन दौरों में वह जन सभाओं में जो भाषण देते हैं वे कुल मिलाकर चुनावी ही होते हैं। मोदी जी इस बात से भली भांति अवगत हैं कि प्रदेश में भाजपा के अपने दम पर सत्तारूढ़ होने के बाबजूद पहले तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रतिष्ठित गोरखपुर और फूलपुर, फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीटों पर उनकी पार्टी की हार के क्या मायने हैं। पिछले आम चुनाव में भाजपा ने ये तीनों सीटें जीती थीं। गोरखपुर तो मुख्यमंत्री योगी का बरसों से गढ़ रहा था।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार भाजपा -विरोधी दलों के प्रस्तावित महागठबंधन से प्रदेश में राजनीतिक माहौल बड़ी तेजी से बदल रहा है। अगर उभरता राजनीतिक -सामाजिक माहौल यही रहा तो भाजपा को प्रदेश में 2014 के पिछले लोकसभा चुनाव का अपना प्रदर्शन दोहराना लगभग असंभव हो सकता है। पिछले चुनाव में भाजपा ने प्रदेश की कुल 80 में से अप्रत्याशित रूप से 73 सीटें जीती थीं। बहुजन समाज पार्टी का तो सूपड़ा साफ हो गया था। समाजवादी पार्टी के नेता और उनके परिजन गिनती के सीट जीत सके। कांग्रेस की सोनिया गांधी को रायबरेली और राहुल गांधी को अमेठी की अपनी परम्परागत सीट जीतने में मुश्किलें पेश आयीं थीं।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि अगर राज्य में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल समेत विपक्षी पार्टियों का महागठबंधन ठोस चुनावी रूप ले लेता है तो भाजपा करीब 10 सीटों से अधिक नहीं जीत सकेगी। इन विश्लेषकों का कहना है कि राज्य की कुल आबादी में जो करीब 50 प्रतिशत अन्य पिछड़े वर्ग के लोग और दलित हैं, उनका प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष रूझान सपा और बसपा की तरफ हैं। अगर दोनों , महागठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतारते हैं तो उसे मुस्लिम समुदाय का भी समर्थन मिलने की पूरी संभावना है। प्रदेश में मुस्लिम समुदाय के मतदाता कुल आबादी के करीब 18 प्रतिशत माने जाते हैं। इन विश्लेषकों का यह भी कहना है कि शहरी मध्य वर्ग के लोगों और उच्च कही जानी वाली जातियों के भी एक बड़े हिस्से का योगी सरकार के कामकाज और आये दिन की आपराधिक घटनाओं के प्रति बढ़ते असंतोष के कारण भाजपा से मोहभंग हुआ है।
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव सपा, बसपा ने साथ मिलकर लड़े। कैराना लोकसभा उपचुनाव में राष्ट्र्रीय लोक दल के समर्थन में सपा , बसपा और कांग्रेस भी एकजुट हो गए । हाल में पूर्व रक्षा मंत्री एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने बसपा प्रमुख मायावती से मुलाक़ात की। समझा जाता है कि उन्होंने अगले वर्ष के मध्य तक आम चुनाव के लिए ही नहीं इसी वर्ष के अंत तक राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभाओं के चुनाव के लिए भी महागठबंधन में बसपा को भी साथ लेने की जरुरत पर जोर दिया। राजनीतिक हल्कों के विश्वसनीय सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में महागठबंधन करने पर सैद्धांतिक सहमति लगभग हो गई है। इसके तहत राष्ट्रीय लोक दल को सीटें सपा के खाते से दी जा सकती हैं। बसपा को सर्वाधिक 35 , सपा को 30 और कांग्रेस को 10 सीटें और शेष कुछ छोटे दलों को देने की शुरुआती पेशकश है। बसपा , समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के लिए उत्सुक नज़र आती है। लेकिन कांग्रेस के प्रति बसपा और सपा, दोनों का ही रूख कुछ अनुदार बताया जा रहा है। महागठबंधन की घटक पार्टियों के बीच सीटों का अंतिम बँटवारा बाद में किया जा सकता है।
लेकिन भाजपा के कट्टर समर्थकों को लगता है कि मोदी जी के चुनावी तरकस में बहुत तीर है। चुनाव होने में बहुत समय बचा है। मोदी जी स्थिति संभाल सकते हैं। उनकी बात को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है। मोदी जी खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधि बताने का कोई मौका नहीं चूकते हैं। वह दलितों और पिछड़ों में भाजपा की पैठ बढ़ाने के लिए ‘अति दलित और अति पिछड़ा’ का कार्ड भी आजमा रहे हैं. भाजपा नेतााओं का लगातार आरोप रहा हैं कि सपा सरकार में केवल यादव समुदाय और बसपा सरकार में दलितों की एक जाति विशेष का बोलबाला रहा और अन्य जातियां उपेक्षित बनी रहीं हैं। मोदी जी ने प्रदेश में डाॅ० भीम राव अम्बेडकर से जुड़े पांच स्थलों को ‘ पंच तीर्थ ‘ बनाने की रणनीति अपनाई है । वह कबीर पंथियों को भी भाजपा की तरफ आकर्षित करने में लगे हुए हैं। वह इसी मकसद से पिछले 28 जून को कबीरदास की निर्वाण स्थली मगहर गये। मगहर कबीर पीठ के विचारदास के अनुसार देश में करीब दो करोड़ कबीरपंथी है । यह दीगर बात है कि अधिकतर कबीरपंथी, भाजपा के हिंदुत्व के हिमायती नहीं हैं। भाजपा के कट्टर समर्थकों को यह भी लगता है कि चुनाव का वक़्त आते -आते अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का रास्ता अदालती आदेश से साफ हो सकता है। उनकी यह भी उम्मीद है कि भाजपा और उसकी सरकार द्वारा कश्मीर से लेकर असम तक में मुस्लिम समुदाय के तुष्टिकरण के विरोध में अपनाई गई नीतियों से हिंदुत्व ध्रुवीकरण तेज होगा जो भाजपा के चुनावी वैतरणी पार करने में तुरूप का पत्ता साबित हो सकता है।
*वाटरलू-– 18 जून 1815 में बेल्जियम स्थिति वाटरलू के मैदान में फ्राँस के सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट ने अंतिम युद्ध लड़ा था। बेल्जियम तब युनाइटेड किंगडम ऑफ नीदरलैंड का हिस्सा था। युद्ध में एक तरफ़ फ्राँस और दूसरी तरफ़ ब्रिटेन,रूस, प्रशा, ऑस्ट्रिया, हंगरी की संयुक्त सेना थी। इस निर्णयक युद्ध में नेपोलियन की पराजय हुई थी। उसने आत्मसमर्पण कर दिया था। बाक़ी जीवन बंदी की तरह हेलेना द्वीप पर बीता जहाँ 1821 में उसकी मृत्यु हुई।
( मीडियाविजिल के लिए यह विशेष श्रृंखला वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा लिख रहे हैं, जिन्हें मीडिया हल्कों में सिर्फ ‘सी.पी’ कहते हैं। सीपी को 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण, फोटो आदि देने का 40 बरस का लम्बा अनुभव है।)