प्रपंचतंत्र : दो संपादकों की दुनिया

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अनिल यादव

दो संपादकों की तस्वीरें मेरे सामने हैं.

पहला, दो उद्योगपतियों के पीछे अपने आत्मविश्वास को सायास मद्धिम करते हुए खड़ा है. उसने मुर्गे की कलगी जैसे बालों में शैम्पू किया है, चेहरे पर अंडरवर्ल्ड के प्रतिभाशाली सुपारी किलर जैसी मुनमुनिया मुस्कान है. वह चरित्रहनन, अफवाह, अंधविश्वास, जनता का चूतिया काटने, छवि बनाने-बिगाड़ने की सुपारी लेता है और रचनात्मक तरीके से पूरा करके दिखाता है.

वह छह साल पहले अपने मालिक के लिए दूसरे उद्योगपति से सौ करोड़ की वसूली करने गया था लेकिन उसके साथ “पत्रकारिता”  हो गई और वह तिहाड़ जेल पहुंच गया. अब दोनों उद्योगपतियों के बीच समझौता हो गया है क्योंकि जो हुआ था वह मिसकम्यूनिकेशन का नतीजा था. यानि यह संपादक, सुधीर चौधरी ने जो कहा था वह कुछ यूं था- ‘मगर मौ मरोड़ महीं मोगे तो ममझ लो मोल मिल्ड मावंटन मपले में मुमारी मैंड मजा दी जाएगी… लेकिन खेद है कि कान की खराबी के कारण समझा कुछ और गया.

शब्द ब्रह्म है. उसके जरिए पुलिस और अदालत को बेवकूफ बनाने के लिए इस मिसकम्यूनिकेशन या गलतफहमी का आविष्कार किस डील के तहत किया गया है, इस पर पत्रकारिता की देवी मौन रहेगी. ब्रह्म के आगे देवी की नहीं चलती.

दूसरे संपादक के चेहरे पर अनिद्रा, तनाव और जीवन की व्यर्थता है. आत्महत्या की प्रवृत्ति का हल्का सा आभास दिखाई दे रहा है जो हम में से अधिकतर के चेहरे पर रोज आता-जाता रहता है. उसने बहुत से पत्रकारों को छांटबीन कर दैनिक भास्कर में नौकरी दी, उनसे ज्यादा को नौकरी छोड़ने को मजबूर किया, उन्हें कारपोरेट जगत में प्रचलित तरीकों का इस्तेमाल करते हुए मानसिक रूप से प्रताड़ित और प्रेरित करके अक्षरों और तस्वीरों का विपुल, रंगबिरंगा, मनोरंजक कबाड़ पैदा किया जिससे मालिकों को अधिकतम मुनाफा और मीडिया मुगल कहलाने का सुख मिल सकता था. इससे उसकी छवि एक शक्तिशाली और काबिल संपादक की बनी.

यह कमाल पूंजी का था लेकिन सामने खड़े निम्नमध्यमवर्गीय परिवारों से आए, मामूली वेतन वाले पत्रकारों की आंखों में भय को प्रमाण मानते हुए वह अपनी इस छवि का कैदी हो गया. कुछ कारणों से यह छवि दरक गई और इस दरकन की नुमाइश की नौबत आई तो उसने अपने दफ्तर की छत से कूद कर आत्महत्या कर ली. वह कब का भूल चुका था कि पत्रकारों उर्फ कुछ आदमियों की जिंदगियों को नियंत्रित करने की ताकत उसकी अपनी नहीं थी बल्कि दी गई थी. वह लगभग नहीं सोने वाला फोरमैन था जिसे अपने उदाहरण से दूसरों को जगाए रखने और उनका अधिकतम निचोड़ने का काम दिया गया था. जिस दैनिक भास्कर के लिए उसने अपने को झोंक दिया वह कैसी पत्रकारिता करता है, खुद उसकी मौत ही इसका नमूना बन गई. भविष्य में उस जैसा ही संपादक होने की दक्षता वाले किसी पत्रकार से लिखवाया गया- “ दैनिक भास्कर के समूह संपादक कल्पेश याग्निक नहीं रहे. गुरूवार की रात करीब साढ़े दस बजे इंदौर स्थित दफ्तर में काम के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा. तत्काल उन्हें बॉम्बे हास्पिटल ले जाया गया. साढ़े तीन घंटे तक उनका इलाज चला लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी उनकी स्थिति में सुधार नहीं हुआ. डाक्टरों के मुताबिक, इलाज के दौरान ही उन्हें दिल का दूसरा दौरा पड़ा. रात करीब दो बजे डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.”

पत्रकार ने उनके दिल का, अस्पताल में साढ़े तीन घंटे तक चलता इलाज देखा, दूसरा दौरा देखा, डॉक्टरों का वर्जन भी ले लिया लेकिन बेचारा अपने दफ्तर की खिड़की में लगे एयरकंडिशनर के कंप्रेशर पर अपने ही संपादक के जूतों के निशान और टूटी पसलियां नहीं देख पाया. छवि और ईगो के कुचक्र में फंसकर एक मनुष्य के बेमौत मर जाने की बिडंबना से दुखी होना स्वाभाविक है लेकिन उसे पत्रकारिता का आइफिल टॉवर नहीं बताया जाना चाहिए.

ज़ी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा चाहते तो दूसरे मालिकों की तरह, सुधीर चौधरी को नौकरी से निकाल कर तिहाड़ में पड़े रहने देते क्योंकि वे खुद तो कहीं दृश्य में थे नहीं, इसके लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए. खैर उन्हें तारीफ की जरूरत नहीं है. वे खुद खोपड़ी पर टोपी रखकर सुभाष चंद्र बोस की मिमिक्री करते हुए मुग्ध हैं. उन्हें अपनी राष्ट्रवादी ब्राडिंग का हुनर आता है. वह नई सोच के मीडिया मुगल हैं और सुधीर चौधरी भविष्य के संपादकों का नमूना हो सकता है.

कल्पेश याग्निक की लिखावट से जाहिर है कि उनसे कराया कुछ और जा रहा था लेकिन वह ऐसी पत्रकारिता का छद्म जी रहे थे जिसके सरोकार हैं, जवाबदेही है और कुछ मूल्य हैं. सुधीर चौधरी किसी भ्रम में नहीं जीता, वह नहीं जानता कि पीतपत्रकारिता किस चिड़िया का नाम है, वह सुपारी किलर है, मालिक जिसकी तरफ इशारा करेगा वह उस पर मुंह से गोली चलाएगा और अपने घर जाएगा. वह कल्पेश से आगे की सोच का साफ नजर वाला संपादक है.

जिन्हें अब भी लगता है, वे पत्रकारिता में इसलिए आए हैं कि भ्रष्ट और ताकतवर के खिलाफ जनता की तरफ खड़े होकर सच कहेंगे, उन्हें बड़ी पूंजी वाले मीडिया संस्थानों के ग्लैमर का लालच छोड़ देना चाहिए. जहां हैं, जैसे हैं- उसी हाल में जो दिख रहा है उसे साहस के बताया जाए. इसके सिवा कोई रास्ता नहीं है.