नवभारत टाइम्स
बदलती हुई कांग्रेस
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी में नई चमक लाने की कोशिश शुरू कर दी है। वे पार्टी संगठन में बदलाव कर रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा युवाओं को जिम्मेदारी दे रहे हैं। अलग-अलग राज्यों के वरिष्ठ पदाधिकारियों के दफ्तरों में उनके सहायकों के रूप में 44 में से 30 नए सचिव चुने गए हैं। कहा जा रहा है कि करीब 70 युवा नेताओं की फेहरिस्त ऐसी ही सेवाओं के लिए तैयार कर ली गई है। कई राज्यों में नए नेताओं को अहम जवाबदेही सौंपी गई है। कांग्रेस की इस बात के लिए अक्सर आलोचना होती रही है कि पार्टी संगठन में जड़ता आ गई है। उसमें ऐसे लोगों की कमी हो गई है जो नए जोश के साथ काम कर सकें। राहुल गांधी जब कांग्रेस में पहली बार सक्रिय हुए तो उन्होंने कई युवा नेताओं को संगठन में जगह दी थी। हालांकि यह प्रक्रिया जोर नहीं पकड़ पाई। कांग्रेस एक उलझन में पड़ी रही। शायद इस बात की हिचक रही कि ऊपर से नीचे तक एकबारगी बदलाव से वरिष्ठ नेताओं में नाराजगी आ सकती है और एक अंदरूनी टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है। राजीव गांधी के दौर में ऐसे हालात से पार्टी को गुजरना पड़ चुका है। तब कई सीनियर लीडर ने अपनी अलग राह पकड़ ली थी। शायद इसलिए राहुल गांधी ने अपने कदम धीमे कर लिए। लेकिन पार्टी की कमान आने के बाद वह युवाओं को आगे लाने के अपने अजेंडे पर दृढ़तापूर्वक लौट आए हैं। उन्होंने कांग्रेस के महाधिवेशन में इसके संकेत दे दिए थे। तब पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को मंच के बजाय सामने कुर्सियों पर बिठाया गया था। राहुल गांधी ने कहा था कि मंच युवाओं के लिए खाली किया गया है। अपने भाषाण में उन्होंने दोहराया कि पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच खड़ी दीवार को गिराना और पीछे बैठे लोगों को सामने की पक्ति में लाना उनकी प्राथमिकता है। अब राहुल अपने हिसाब से संगठन को एक नया रूप दे रहे हैं। वह महसूस कर रहे हैं कि बदलते दौर में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को अपनी शैली बदलनी ही होगी। उसे हर चीज थोपने की आदत से परहेज करना होगा। इसलिए पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को कमान दी गई, उनको स्वतंत्रता दी गई। कर्नाटक में भी सिद्धारमैया को अहम निर्णय लेने की छूट दी गई। उनकी सलाह पर अमल किया गया। अशोक गहलौत और गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं को भी अहम जिम्मेदारी दी गई है। राहुल गांधी के अपने-अपने समुदायों में पकड़ रखने वाले जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल जैसे नेताओं से मिलने का पॉजिटव संदेश गया है। कांग्रेस में ऐसे नेताओं को बढ़ावा देने की जरूरत है, जो जमीनी स्तर पर कार्य कर सकें और जनता से संवाद कायम कर सकें। इसलिए जो युवा पार्टी से जुड़ रहे हैं, उनकी बातें सुनी जाएं और उन्हें स्वतंत्र रूप से कार्य करने दिया जाए।
जनसत्ता
समावेशी ऊर्जा
भारत के सभी गांवों तक बिजली की पहुंच हो जाना निश्चय ही एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। देश के विकास के सफर में यह मुकाम हासिल हुआ अट्ठाईस अप्रैल की शाम को, जब मणिपुर के सेनापति जिले में आने वाला लाइसंग गांव नेशनल पॉवर ग्रिड से जुड़ने वाला आखिरी गांव बना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर जहां इसे भारत की विकास यात्रा में एक ऐतिहासिक दिन कहा, वहीं गांवों तक बिजली पहुंचाने का काम करने वाली नोडल एजेंसी आरईसी यानी ग्रामीण विद्युतीकरण निगम ने एलान किया कि देश के सभी गांवों तक बिजली पहुंचा दी गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए एक हजार दिनों के भीतर संपूर्ण ग्राम विद्युतीकरण का वादा किया था। तब कोई 18,450 गांव ही रह गए थे जहां बिजली नहीं पहुंची थी। उन तक बिजली पहुंचाने के लिए सरकार ने दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के तहत 75,893 करोड़ रुपए आबंटित किए। बाद में पता चला कि कोई बारह सौ गांव और भी हैं, जहां बिजली नहीं पहुंची थी। इस तरह इस योजना ने अपनी मंजिल पा ली है, और इसमें वैसी देरी या ढीलमढाल भी नहीं हुई जो कि अमूमन सारी सरकारी योजनाओं में दिखती है।
शायद प्रधानमंत्री की दिलचस्पी के कारण संबंधित महकमों ने इस योजना को लेकर एक मिशन की तरह काम किया। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि पहले हुए कामों को नजरअंदाज कर दिया जाए। जब देश आजाद हुआ तब विद्युतीकरण के दायरे में केवल पंद्रह हजार गांव थे। वर्ष 1991 तक विद्युतीकृत गांवों की संख्या 4 लाख 81 हजार से ज्यादा हो गई। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 31 मार्च 2015 तक देश के 97 फीसद गांवों का विद्युतीकरण हो चुका था। यानी जब प्रधानमंत्री ने बिजली से वंचित गांवों तक एक हजार दिनों के भीतर बिजली पहुंचा देने का वायदा किया, तब सिर्फ तीन फीसद गांव ही रह गए थे जहां बिजली नहीं पहुंची थी। अगर राज्यों के हिसाब से देखें, तो बहुत-से राज्यों ने पहले ही संपूर्ण ग्राम विद्युतीकरण का लक्ष्य पा लिया था। लेकिन विद्युतीकरण का यह बचा-खुचा दौर काफी चुनौतियों भरा था, क्योंकि विद्युतीकृत होने से रह गए गांव काफी दूरदराज के और दुर्गम इलाकों के थे; उन तक साज-सामान और कर्मचारियों को पहुंचाना आसान नहीं था। लेकिन समग्र ग्राम विद्युतीकरण का लक्ष्य दोनों तरीकों से हासिल किया गया- नेशनल ग्रिड से जोड़ कर भी, और उसके बगैर भी। ग्राम विद्युतीकरण का यह अर्थ नहीं है कि गांव के हरेक घर में बिजली पहुंच गई।
ग्राम विद्युतीकरण का अर्थ है कि गांव के कम से कम दस फीसद घर और स्कूल, पंचायत कार्यालय, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जैसे सार्वजनिक स्थल बिजली से जुड़ गए। जाहिर है, हर घर तक बिजली कनेक्शन पहुंचाने का काम अभी पूरा नहीं हो पाया है। अलबत्ता संपूर्ण ग्राम विद्युतीकरण का ढांचागत लक्ष्य पूरा हो जाने से, अब कनेक्शन की मांग को पूरा करना मुश्किल नहीं होगा। इसी के साथ भारत की प्रतिव्यक्ति ऊर्जा खपत बढ़ने के आसार हैं, जो कि दुनिया में काफी कम है। बहरहाल, सभी गांवों तक बिजली के आधारभूत ढांचे की पहुंच होना ही काफी नहीं है। ट्रांसफार्मर और बिजली के कनेक्शन होते हुए भी उत्तर प्रदेश, बिहार समेत अनेक राज्यों के ग्रामीण इलाकों में बिजली उपलब्धता कैसी है, यह किसी से छिपा नहीं है। लिहाजा, अब सरकार को पारेषण क्षति को न्यूनतम करने, बिजली-चोरी रोकने और आपूर्ति सुधारने पर ध्यान देना चाहिए।
हिंदुस्तान
अंतिम गांव तक रौशनी
सुखद है कि आजादी के 70 साल बाद ही सही, भारत का हर गांव अब बिजली से रोशन है। सरकार का दावा है कि मणिपुर के सेनापुत जिले के लीसांग गांव में बिजली का बल्ब जल जाने के साथ ही भारत के आखिरी गांव तक बिजली पहुंचाने का पहला लक्ष्य पूरा हो गया है। लीसांग शनिवार को नेशनल पावर ग्रिड से जोड़ दिया गया। ध्यान देना होगा कि सरकार ने अंतिम गांव में बिजली पहुंचाने का दावा किया है। अंतिम घर तक बिजली पहुंचने के लिए अभी लंबा इंतजार करना होगा। वैसे भी गांव में बिजली पहुंचने का मतलब, गांव तक बिजली पहुंचना है, क्योंकि प्रचलित परिभाषा के अनुसार किसी गांव के दस फीसदी घरों के साथ स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र सहित सभी सार्वजनिक महत्व के स्थानों पर बिजली पहुंच जाने के बाद ही गांव को पूर्ण विद्युतीकृत माना जाता है। हालांकि इस शर्त पर ‘लंबे समय से पूर्ण विद्युतीकृत’ हमारे मौजूदा गांव भी कितने खरे उतरते हैं, यह आज भी पड़ताल का विषय है। सच तो यही है कि बहुत बड़ी आबादी अपने गांव तक बिजली पहुंच जाने के बावजूद आज भी अपने लिए बिजली का इंतजार ही कर रही है। ठीक उसी तरह, जैसे सर्वशिक्षा जैसे तमाम अभियानों, मिड डे मील जैसी लुभावनी योजनाओं के बावजूद अभी तक हम बहुत बड़ी आबादी को साक्षर तक नहीं बना सके हैं। बिजली वाले और गैर-बिजली वाले गांवों में खेती-किसानी यानी उत्पादकता की स्थिति से लेकर पढ़ाई-लिखाई और जीवन स्तर, खासकर महिलाओं और बच्चों के मामले में यह असर आंकड़ों में देखा जा सकता है।
खैर, यह उपलब्धि की घड़ी है। इसका जश्न मनाया जाना चाहिए। लेकिन असली जश्न तो तभी मनेगा, जब देश के अंतिम घर, यानी अंतिम परिवार तक बिजली की रोशनी सही मायने में न सिर्फ पहुंचेगी, वरन उसकी जरूरत के मुताबिक उसे मिलेगी। बड़ा सच यही है कि गांवों को बिजली जरूरत के मुताबिक कम ही मिल पाती है। यह भी देखना होगा कि उस बहुत बड़ी आबादी तक बिजली कैसे पहुंचेगी, जिसके पास अपना घर ही नहीं है? उस तंत्र को भी पटरी पर लाना होगा, जो आंकड़ों में तो सब कुछ दुरुस्त दिखाता है, पर हकीकत के आंकड़े छिपा लेता है। आंकड़ेबाजों की इस बाजीगरी पर लगाम लगाना होगा, वरना कोई भी बल्ब इस अंधेरी गली को रोशन न कर पाएगा और विकास के सारे वादे-इरादे हवा में उड़ जाएंगे।
हमें कई और सच भी सतर्क नजर से देखने होंगे। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित उत्तर-पूर्व के तमाम राज्यों के उन सुदूरवर्ती गांवों के सच से नजर नहीं चुराना होगा, जहां तमाम दावों के बावजूद आज भी बिजली के नियमित दर्शन नहीं हुए हैं। संभव है, इनमें से न जाने कितने गांव विद्युतीकरण की सूची में कब के दर्ज हो चुके हों। ऐसे गांव भी हैं, जहां बिजली के खंभे तो कब के लग गए, लेकिन तार नहीं लगे, और अगर तार लग गए, तो बिजली उन तारों में नहीं दौड़ी। उन गांवों के सच से भी रूबरू होना होगा, जिन गांवों में खंभे भी हैं, तार भी, बिजली भी आई थी, लेकिन गांव को यह याद नहीं कि अंतिम बार कब आई थी? यकीन मानिए, जब तक हम इन जमीनी सवालों का सामना नहीं करेंगे, लिसांग की उपलब्धि हमें खुलकर जश्न नहीं मनाने देगी। इससे अगले और कहीं बडे़ लक्ष्य हर घर तक बिजली पहुंचाने की राह सुगम बनाने के लिए यह पहली शर्त है।
दैनिक भास्कर
राहुल गांधी की रैली और जनता के आक्रोश में अंतर
दिल्ली के रामलीला मैदान में कांग्रेस की जनाक्रोश रैली में अध्यक्ष राहुल गांधी ने एनडीए सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध पूरा मोर्चा खोल दिया है। इसके बावजूद यह कह पाना मुश्किल है कि उनका यह आक्रोश वास्तव में जनाक्रोश बन गया है। राहुल गांधी के आरोप हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातों में बड़बोलापन होता है और वे अपने पार्टी नेताओं के भ्रष्टाचार, न्यायपालिका की स्वायत्तता, दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों के साथ सामाजिक अन्याय के प्रश्नों पर या तो चुप्पी साधे रहते हैं फिर बहुत देर से बोलते हैं। इनके बावजूद सवाल यह है कि अभी भी नरेंद्र मोदी लोकप्रिय नेता क्यों बने हुए हैं? इसके लिए हिंदुत्व की द्वेषपूर्ण भावनाएं तो जिम्मेदार हैं ही साथ ही अच्छे दिनों का वह नारा भी है, जिसका न कोई अर्थ होता है और न ही कोई स्पष्ट खाका। राहुल गांधी यह साबित करने में लगे हैं कि कांग्रेस न तो पुराने ढंग की मुस्लिमपरस्त धर्म निरपेक्ष पार्टी है और न ही उसमें नेहरू गांधी परिवार की तानाशाही चलती है। वे परिवारवाद के आरोपों के जवाब में अपनी पार्टी के भीतर लोकतंत्र होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। उससे भी आगे वे यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि वे हिंदू हैं और उनकी हिंदू धर्म तीर्थों में आस्था है। यही कारण है कि उन्होंने कर्नाटक चुनाव प्रचार के बाद कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाने का एलान किया। इस यात्रा के माध्यम से वे भगवान शिव का आभार व्यक्त करना चाहते हैं। हो सकता है राहुल गांधी की यह रणनीति भारतीय समाज का वोट बटोरने में एक हद तक कारगर हो जाए लेकिन वह उन संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में विफल हो सकती है जिनके नष्ट होते जाने पर वे आक्रोश जता रहे हैं और जिसकी रक्षा के लिए संकल्प जता रहे हैं, क्योंकि दोनों में एक तरह का द्वंद्व भी है। कांग्रेस पार्टी जिस महात्मा गांधी की विरासत का दावा करती है वे पहले ईश्वर को सत्य मानते थे लेकिन बाद में सत्य को ही ईश्वर मानने लगे थे। अगर राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को झूठ बोलने के आधार पर चुनौती देने की तैयारी में हैं तो उन्हें संविधान, विज्ञान और धर्म के उस सत्य को उजागर करना होगा जिसका पिछले चार सालों में क्षरण हुआ है। इसलिए कांग्रेस को अगर मौजूदा राजनीति को बदलना है तो अपने आक्रोश में जनता के सच को शामिल करते हुए दोनों के आक्रोश के अंतर को खत्म करना होगा।
दैनिक जागरण
राहुल का आक्रोश
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जन आक्रोश रैली के जरिये एक प्रकार से मोदी सरकार के खिलाफ अपने गुस्से का ही इजहार किया। भले ही उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की हो कि देश में कहीं कुछ नहीं हो रहा और चारों और निराशा है, लेकिन यह एक विडंबना ही है कि जिस दिन वह यह सब कुछ कह रहे थे उस दिन सरकार की इस उपलब्धि की चर्चा हो रही थी कि उसने देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाने का काम तय समय से पहले ही पूरा कर दिया। दरअसल जब किसी की आलोचना नीर-क्षीर ढंग से नहीं की जाती तब ऐसा ही होता है। राहुल गांधी को चारों तरफ गड़बड़ी और अव्यवस्था नजर आ रही है तो संभवत: इस कारण कि वह गुस्से से भरे हुए हैं। क्या यह अजीब नहीं कि जो राहुल गांधी कुछ समय पहले तक यह प्रचारित किया करते थे कि मोदी सरकार गुस्से वाली सरकार है वही अब स्वयं गुस्से का प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं? शायद यही कारण है कि वह विदेश नीति पर भी सरकार की निराधार आलोचना करने में संकोच नहीं कर रहे? समझना कठिन है कि नरेंद्र मोदी की हाल की चीन यात्र को निशाना बनाने की क्या जरूरत थी? राहुल गांधी ने सवाल पूछा कि क्या प्रधानमंत्री ने चीनी नेतृत्व से डोकलाम पर चर्चा की? यह सवाल उछालने के पहले अच्छा होता कि वह यह स्पष्ट करते कि जिस समय डोकलाम में तनातनी जारी थी उस समय उन्हें चीनी राजदूत से मुलाकात करने और उसे छुपाने की क्या आवश्यकता थी? और भी अच्छा यह होता कि वह यह स्पष्ट करते कि क्या उस दौरान उन्होंने डोकलाम में चीनी सेना के हस्तक्षेप पर प्रतिवाद किया था?1जन आक्रोश रैली में राहुल गांधी ने जिस तरह यह कहा कि उन्हें देश का कायाकल्प करने के लिए 60 माह चाहिए उससे यह तो साफ हुआ कि वह प्रधानमंत्री बनने के लिए व्यग्र हैं। यह कोई बुरी बात नहीं, लेकिन आखिर उन्होंने एक तरह से नरेंद्र मोदी के शब्दों का ही इस्तेमाल क्यों किया? ध्यान रहे कि 2014 के आम चुनाव के पहले मोदी भी ऐसा ही कहते थे। देश में कांग्रेस के लंबे शासन और मनमोहन सरकार के 10 साल के कार्यकाल को करीब से देखने वाले राहुल गांधी को इतना पता होना चाहिए कि इतने बड़े देश का कायाकल्प महज 60 माह में नहीं हो सकता। अगर ऐसा हो सकता होता तो फिर उन्हें बताना चाहिए कि कांग्रेस के 60 साल के शासन में सभी गांव बिजली से लैस क्यों नहीं हो सके? चूंकि अगले आम चुनाव करीब आ रहे हैं इसलिए यह सहज ही समझा जा सकता है कि राहुल गांधी अभी से चुनावी माहौल बनाने में जुट गए हैं, लेकिन यदि वह वास्तव में मोदी और भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं तो फिर उन्हें कुछ तार्किक और तथ्यपरक बातें करनी होंगी। इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि वह वैकल्पिक विचारों और ठोस नीतियों के साथ सामने आएं। यह निराशाजनक है कि वह ऐसी प्रतीति करा रहे हैं कि मोदी सरकार की चौतरफा निंदा करने मात्र से उनका काम आसान हो जाएगा।
प्रभात खबर
टीकाकरण पर ध्यान
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने बीते हफ्ते (24-30 अप्रैल) को विश्व टीकाकरण सप्ताह घोषित किया था. सप्ताह तो गुजर गया, पर टीकाकरण की कमी से सबसे ज्यादा बाल मृत्यु दर वाले देशों में शुमार भारत के सोचने के लिए यह सवाल फिर से शेष रह गया है कि क्या सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के अनुरूप 2020 तक 90 फीसदी टीकाकरण का घोषित लक्ष्य पूरा किया जा सकेगा? पांच साल तक की उम्र के तकरीबन 60 हजार बच्चे भारत में हर साल सिर्फ उन रोगों से काल-कवलित होते हैं, जिनसे टीकाकरण के जरिये बचा जा सकता है. इस कारुणिक तथ्य से जुड़ा एक विरोधाभास यह भी है कि भारत से दुनिया में सबसे ज्यादा टीकों का निर्माण और निर्यात होता है. टीकाकरण के मामले में हम नेपाल, भूटान और बांग्लादेश से भी पीछे हैं, जबकि यह सिद्ध बात है कि शिशु मृत्यु कम करने में टीकाकरण एक किफायती और असरदार उपाय है. सार्विक टीकाकरण के मसले पर केंद्रित दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से संबंधित विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन (2016) में कहा गया है कि टीकाकरण के मामले में अपेक्षित विस्तार न होने के कारण भारत में शिशु मृत्यु दर पड़ोसी देशों के मुकाबले ज्यादा है. इस अध्ययन के मुताबिक, प्रति हजार जीवित शिशुओं के जन्म को आधार मानें, तो भारत में नवजात शिशुओं की मृत्यु-दर 27.7 और पांच साल की उम्र तक वाले बच्चों के लिए 47.7 है. पिछले साल विश्व टीकाकरण सप्ताह के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वास्थ्य मंत्रालय से कहा था कि प्रयासों में तेजी लायी जाये और 2014 में शुरू किये गये मिशन इंद्रधनुष के तहत 90 फीसदी टीकाकरण का लक्ष्य 2020 से दो साल पहले 2018 में पूरा कर लिया जाये. सितंबर, 2017 के आखिर तक इस मिशन के तहत 67 लाख गर्भवती स्त्रियों और 2.57 करोड़ बच्चों का टीकाकरण हुआ था, जिसमें 55 लाख बच्चों का पूर्ण टीकाकरण शेष था. ध्यान रहे, हर साल 89 हजार बच्चे अपूर्ण टीकाकरण या फिर टीकाकरण के अभाव में बची जा सकनेवाली बीमारियों की आशंका से जूझते हैं. सो, पूर्ण टीकाकरण स्वयं में एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है. देश में सार्विक टीकाकरण का कार्यक्रम 1985 में शुरू हुआ था. इसके अंतर्गत टीके के जरिये रोके जा सकनेवाले 12 रोगों के लिए गर्भवती स्त्रियों और शिशुओं का टीकाकरण होता है. लेकिन, कार्यक्रम की प्रगति अपेक्षित गति से नहीं हुई है. साल 2009 से 2013 के बीच टीकाकरण की कवरेज में बढ़ोत्तरी सालाना एक फीसदी रही थी. साल 2015-16 में टीकाकरण के कवरेज में बढ़ोत्तरी 6.7 फीसदी की दर से हुई. इस रफ्तार से मिशन इंद्रधनुष का लक्ष्य 2018 तक पूरा होना बहुत मुश्किल जान पड़ता है. अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने ध्यान दिलाया है कि भारत जैसे देशों को चिकित्सा से जुड़ी अपनी प्राथमिकताओं का मेल सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों से बैठाना जरूरी है. लेकिन यह तभी हो सकता है, जब स्वास्थ्य के मद में सरकारी खर्च समुचित मात्रा में बढ़े.
देशबन्धु
जनाक्रोश से जनाधार की चाह
कांग्रेस की कमान पूरी तरह अपने हाथ में लेने के बाद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह दिल्ली में पहले महाधिवेशन किया और फिर जनाक्रोश रैली की, उसे देखकर लगा कि देश की इस सबसे पुरानी पार्टी में नेतृत्व के साथ-साथ संस्कृति में भी बदलाव हो रहा है। रविवार को दिल्ली की गर्मी में रामलीला मैदान कांग्रेस कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ जुटी। अब तक इस तरह के आयोजनों में आसपास के राज्यों से पार्टी पदाधिकारी और कार्यकर्ता आ जाते थे। लेकिन इस बार दूर-दराज के प्रदेशों से भी कार्यकर्ता और समर्थक जुटे। दरअसल महाधिवेशन में राहुल गांधी ने मंच खाली रखकर स्पष्ट संकेत दिए थे कि इसे भरने के लिए साधारण कार्यकर्ताओं में से कोई भी आ सकता है। अब जनाक्रोश रैली में कार्यकर्ताओं को उनकी अहमियत और ताकत का एहसास कुछ और विस्तार से कराया गया है। राहुल गांधी का बीच-बीच में अचानक देश के बाहर चले जाना या छुट्टी लेना प्रेक्षकों को हैरान कर देता है। उनके विरोधी तो इस बात पर उनका खूब मजाक भी उड़ाते हैं।
कर्नाटक चुनाव के बाद भी वे कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए उन्होंने बाकायदा जनाक्रोश रैली में कार्यकर्ताओं से अनुमति मांगी और इसके पीछे कारण भी बताया। दरअसल राहुल गांधी 26 अप्रैल को जिस चार्टर विमान से कर्नाटक जा रहे थे, उसमें अचानक तकनीकी खामी आ गई और विमान एक तरह झुककर लगभग 8 हजार फीट नीचे की ओर गिरने लगा। विमान की किसी तरह इमरजेंसी लैंडिंग कराई गई। इस घटना का जिक्र करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि मुझे लगा कि मेरी गाड़ी निकल गई और तभी मन में ख्याल आया कि कैलाश मानसरोवर जाना है। अब तक अपनी निजी बातों को कांग्रेस हाईकमान इस तरह से कार्यकर्ताओं के साथ साझा नहीं करता था, लेकिन अब बदलाव हो रहा है।
आम कार्यकर्ताओं से राहुल गांधी ने कहा कि कांग्रेस आपकी पार्टी है। आपके खून-पसीने की पार्टी है। आप चाहे युवा हों, या बुजुर्ग हों, आप सबका इस पार्टी में आदर होगा। अगर नहीं होगा तो मैं अध्यक्ष होने के नाते उस पर कार्रवाई करूंगा। उनका यह कथन कार्यकर्ताओं में जोश भरने वाला है। जनाक्रोश रैली की दूसरी बड़ी सफलता यह रही कि इसमें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का दम देखने मिला।
15 साल की सत्ता के बाद दिल्ली से कांग्रेस लगभग गायब हो चुकी है। आपसी कलह के कारण भी यहां काफी नुकसान हुआ। लेकिन बीते दिनों अजय माकन और शीला दीक्षित में सुलह देखने मिली, अमरिंदर सिंह लवली भी वापस आ गए हैं। इस सबका फायदा रैली की सफलता के रूप में देखने मिला, क्योंकि इसके आयोजन की जिम्मेदारी अजय माकन पर थी। जनाक्रोश रैली की तीसरी सफलता पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र की मजबूती का संकेत देने को माना जा सकता है। बीते दिनों सीजेआई दीपक मिश्रा पर महाभियोग नोटिस को लेकर सलमान खुर्शीद ने पार्टी लाइन से अलग विचार व्यक्त किए थे और बाबरी मस्जिद पर भी खून से हाथ रंगे होने की बात कही थी। जिस पर रैली में राहुल गांधी ने कहा कि हमारी पार्टी में अलग-अलग राय होती है। सलमान खुर्शीद जी ने कुछ दिनों पहले अलग राय दी थी लेकिन अलग राय देने की वजह से मैं उनकी रक्षा करूंगा। साथ ही उन्होंने कहा कि बीजेपी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनकी पार्टी में एक ही आदमी की चलती है। इस एक वाक्य से उन्होंने भाजपा में बढ़ती तानाशाही प्रवृत्ति के बरक्स कांग्रेस के बढ़ते लोकतांत्रिक चरित्र को प्रस्तुत कर दिया। रैली में राहुल गांधी, सोनिया गांधी और डा.मनमोहन सिंह ने मोदी सरकार की नीतियों, योजनाओं, वादों और जुमलों की खूब बखिया उधेड़ी।
सरकार की निंदा में वही सारी बातें थीं, जो पहले भी संसद समेत अलग-अलग मंचों से की जा चुकी हैं। इनमें नयापन केवल यही था कि इस बार इसे 2019 की चुनावी रणनीति के तहत प्रस्तुत किया गया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जनाक्रोश रैली का मजाक उड़ाते हुए इसे परिवार आक्रोश रैली बताया। वे कांग्रेस मुक्त भारत के ख्वाब देखते हैं, तो उनकी झल्लाहट स्वाभाविक है। लेकिन राजनैतिक विश्लेषक इसे अगले आम चुनाव का बिगुल फूंकना मान रहे हैं। राहुल गांधी ने कर्नाटक के साथ-साथ आम चुनावों में जीत का दावा कार्यकर्ताओं के सामने करके उनमें उत्साह जगाने की कोशिश की है। अब यह वक्त बताएगा कि जनाक्रोश से कितना जनाधार कांग्रेस पार्टी को मिलता है।
Indian Express
Tread carefully
An outsider to India or millions of customers of over two dozen commercial banks in the country may be forgiven if they are left wondering whether India’s banking system is broke. Hardly a fortnight goes by without the CBI, the country’s federal anti-corruption agency, making public action against officials of state-run banks, against the background of reports of rising bad loans and governance issues at many banks, including storied private entities.
Last week, the CBI said it has filed a case against 15 former officials of IDBI Bank including a former CMD of the bank, another former chief who is now CEO at another state-owned bank, and a former senior official, also a bank chief, besides three independent directors, for allegedly defrauding the bank of Rs 600 crore with regard to a loan disbursed to group companies of NRI businessman, Sivasankaran. In its defence, IDBI Bank has said it had granted a loan to Axcel Sunshine, which became an NPA in December 2015 and that the loan has been fully provided for and that the lender had launched recovery proceedings. Over the past year and the last few months, several other bankers too have been named by the CBI. The agency seems happy to suggest that many senior bankers are involved in alleged malfeasance and provide a running commentary while questioning bankers, even before filing a chargesheet. This recalls an incident under the UPA government, when the CBI registered a preliminary enquiry against a former SEBI chairman and other regulatory officials only to retract it later. It is important that the agency goes about its task professionally to bring cases to fruition without giving the impression that it is on a fishing expedition. The agency ought to keep in mind the wider consequences of its actions to the country’s troubled banking industry and the knock to individual reputations. After all, banking is a business run largely on trust. Already, with almost a dozen banks under the Prompt Corrective Action framework, the ability of banks to lend is severely curtailed.
Telegraph
Keep Talking
A nation cannot choose its neighbours. But what it can choose to do is talk to those with which it shares its borders. The ‘informal summit’ hosted by the Chinese president, Xi Jinping, for the Indian prime minister, Narendra Modi – it was held in Wuhan – may not have led to groundbreaking announcements. Nonetheless, it reiterated the need for dialogue between India and China, two countries that have different perceptions of and expectations from their bilateral relationship. Indeed, a framework of communication had been established by Rajiv Gandhi and Deng Xiaoping in the late 1980s to resolve mutual differences. Given the growing chasm that has blighted Sino-India ties recently – the Doklam crisis offered the most visible proof of the deterioration – there was some apprehension that existing platforms of contact had fallen into disuse. It is thus heartening to note that Mr Modi and Mr Xi have reinvigorated the mechanisms of engagement. It is not without reason that the militaries of China and India have been asked by their leaders to strengthen communication ties to create mutual trust. This sense of clarity, if taken forward, can have immense geo-political implications in the South Asian neighbourhood – and beyond. For instance, the proposal of a joint economic project involving New Delhi and Beijing in Afghanistan can, indeed, alter significant equations. The announcement comes at a time when the United States of America is increasingly nudging India to act as a counterweight to China. Pakistan, Beijing’s traditional ally, would be equally perturbed by the possibility of China tacitly endorsing the widening arc of Indian influence in Afghanistan. But then again, the shared vision on Afghanistan is premised upon trust, which, in turn, can only be facilitated by sustained dialogue.
This is not to suggest that the summit in Wuhan has led to the resolving of all differences. This was never the intended objective. Several grey areas remain, of which the unresolved border issues demand urgent attention. The existing gaps only go to show that greater investments must be made by both countries in dialogue to achieve durable peace and cooperation. It is also to be hoped that Mr Modi reflects on the need to pursue discreet communication in the sphere of foreign policy. The Bharatiya Janata Party has, for the sake of its domestic constituency, preferred bluster over quiet diplomacy, causing a precipitous decline in India’s bilateral relationship on several fronts. Perhaps the lessons that India can draw from Wuhan are not that trifling.