मुख्यधारा की पत्रकारिता और संबद्ध क्षेत्रों में दो दशक का अनुभव रखने वाली प्रीति नागराज मैसूर में रहती हैं। राजनीति, संस्कृति, साहित्य और थिएटर इनके प्रिय विषय हैं। प्रीति कई चुनाव कवर कर चुकी हैं और कर्नाटक के सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास में दक्ष हैं। इन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स, दि न्यूज़ मिनट और स्क्रोल के लिए स्वतंत्र लेखन किया है और दि न्यू इंडियन एक्सप्रेस, सीएनबीसी टीवी 18, इंटेल इंडिया और डेकन हेराल्ड में काम कर चुकी हैं। वे कन्नड़ में भी लिखती हैं और प्रजावाणी की लोकप्रिय स्तंभकार हैं। मीडियाविजिल के लिए ”ग्राउंड ज़ीरो कर्नाटक” नाम के इस विशेष कॉलम में वे कर्नाटक चुनाव की विविध नज़रिये से कवरेज करेंगी और नई सरकार बनने तक पाठकों को चुनावी घटनाक्रम से अवगत कराती रहेंगी। आज प्रस्तुत है इस कड़ी की पहली स्टोरी- संपादक
प्रीति नागराज / मैसूर
चुनाव प्रचार को कवर करने के लिए पूरे राज्य में इस वक्त राष्ट्रीय चैनलों और राष्ट्रीय अखबारों का जमघट लगा हुआ है। स्थानीय पत्रकार भी इसी काम में जुटे हैं। इनके अलावा यूट्यूबरों और निजी चैनलों की भी भरमार है। 10 मई को चुनाव प्रचार खत्म होने और 12 मई को मतदान पूरा होने तक तय है कि ये सब यहीं डटे रहेंगे। मैसूर के पास स्थित चामुंडेश्वरी, राजधानी बंगलुरु और उत्तरी कर्नाटक की बदामी सीट जहां से मुख्यमंत्री सिद्धरामैया विकल्प के तौर पर लड़ रहे हैं- ये कुछ ऐसे पांचसितारा शहर हैं जो लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर अचानक मिले ध्यानाकर्षण से फट ही पड़ेंगे।
आखिर पूरे देश में कर्नाटक जैसे एक मृदुभाषी राज्य के लिए इतना प्रेम क्यों उमड़ पड़ा है, जो औद्योगिक क्षेत्र में शानदार वृद्धि के चलते अपनी मिश्रित आबादी के अलावा आम तौर से आइटी व उससे जुड़ी कामयाबी की कहानियों के लिए जाना जाता है?
एक वक्त था जब कर्नाटक का चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर बमुश्किल ही कोई अर्थ रखता था। यहां की जनता कभी यह नहीं सोचती थी कि उसके चुनाव या उसकी चुनावी प्राथमिकताओं का राष्ट्रीय स्तर पर दलों या नेतृत्व पर कभी कोई असर ही नहीं पड़ता। और यह बात कुछ हद तक सही भी थी। दिल्ली से पार्टियों के पर्यवेक्षक आते थे और अपनी पार्टी के लिए फैसले लेते थे, अब उससे पार्टी को चुनाव में जीत मिलती या हार यह बात अलहदा है। हां, दिल्ली में कभी कोई यहां के चुनाव परिणामों को लेकर उत्सुक दिखा हो, ऐसा नहीं लगा।
मौजूदा परिदृश्य में हालांकि सब कुछ बदला हुआ सा है। आज यहां की 224 असेंबली सीटें देश के कुछ हिस्सों के लिए पहले से कहीं ज्यादा अहम हो गई हैं। इसके दो कारण हैं। अव्वल तो यह कि कर्नाटक वह राज्य है जहां भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा रणनीति निर्माण या राज्यस्तरीय नेतृत्व के साथ उसके काम किए बगैर ही दक्षिण भारत में अपनी पहली स्वतंत्र सरकार बनाई थी। बीजेपी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा ही कर्नाटक में बीजेपी के सर्वेसर्वा रहे। उनके बरक्स कांग्रेस में सिद्धरामैया बहुत सशक्त उम्मीदवार के बतौर कभी नहीं दिखे।
अजीब बात है कि आज येदियुरप्पा बीजेपी के आक्रामक चुनाव प्रचार मॉडल के समक्ष कुछ हद तक बेबस नज़र आ रहे हैं। ये वही मॉडल है जिसे बीजेपी ने 2014 की अपनी जीत के बाद दूसरे राज्यों में अपनाया है और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जिसके सहारे एक के बाद एक अलग-अलग राज्यों में पार्टी ने अपनी विजय पताका फहरायी है।
दूसरी ओर कांग्रेस जिन राज्यों में परंपरागत रूप से स्थिर रहती आई थी, वहां उसने अपनी ज़मीन गंवा दी। मसलन, गोवा में सबसे ज्यादा सीटें लाने के बाद भी वे सरकार बनाने का अपना दावा पेश नहीं कर सके।
इस लिहाज से देखें तो कर्नाटक की जंग दोनों ही दलों के लिए बिलकुल अलग किस्म की साबित होने जा रही है, जहां एचडी देवेगौड़ा की जनता दल सेकुलर (जेडी-एस) कांग्रेस और बीजेपी के बीच कड़ी टक्कर की सबसे बड़ी लाभार्थी के रूप में नज़र आती है।
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इस बार जब कर्नाटक की जनता 12 मई को मतदान करने जाएगी, तो उसके ज़ेहन में यह बात जरूर होगी कि बीजेपी के कंधे पर एक ऐसे मुख्यमंत्री प्रत्याशी का बोझ लदा हुआ है जिसे ‘भ्रष्ट’ करार दिया जा चुका है। दूसरी ओर सिद्धरामैया ने बड़ी कुशलता से एक ऐसा चुनाव प्रचार अभियान खड़ा कर लेने में कामयाबी हासिल की है जो राहुल गांधी की ज़रूरतों पर केंद्रित है कि उन्हें शहरी और ग्रामीण मतदाताओं के साथ जुड़ने के लिए क्या करना है। बीते 35 दिनों में राहुल गांधी ने राज्य में कुल 35,000 किलोमीटर का सफ़र तय किया है। जिस युवा नेता को देश के भविष्य के तौर पर देखा जा रहा है, उसके लिए यह ऐसी पहली कवायद है।
पिछले कुछ दिनों से अमित शाह बंगलुरु में डेरा डाले हुए हैं। वे धार्मिक मठ के महंतों और लेखकों से मिल रहे हैं। लेखकों का दायरा अब तक बीजेपी के लिए अछूता ही रहा है। लोकसभा चुनाव 2014 के प्रचार के दौरान जिन बुद्धिजीवियों को बीजेपी ने लिबटार्ड या सिक्युलर कह कर, बल्कि और ज्यादा अभद्र शब्दों से अपमानित किया था वे आज अचानक इस पार्टी के फेवरेट बन चुके हैं। आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है? मुख्यमंत्री सिद्धरामैया समाजवादी पृष्ठभूमि से आते हैं। वे लेखकों व चिंतकों की आवाज़ों को लेकर पर्याप्त सचेत हैं क्योंकि इन्होंने उनकी सरकार को ताकत बख्शी है। राहुल गांधी जहां मंदिरों और मठों के चक्कर लगा रहे हैं, वहीं अमित शाह लेखकों-कवियों से मिल रहे हैं। ऐसा पासापलट अद्भुत है!
कांग्रेस के लिए कर्नाटक का चुनाव करो या मरो का सवाल है। जिस राज्य ने बीजेपी की झोली में दक्षिण भारत की पहली सरकार डाली थी, आज वहीं पार्टी के काडरों और कार्यकर्ताओं में एक किस्म का असंतोष पनप रहा है जो अब सतह पर आ चुका है। स्थानीय नेताओं की बीजेपी में कोई कमी नहीं है, इसके बावजूद योगी आदित्यनाथ से रैलियों में हिंदी में भाषण दिलवाना गलत संदेश भेज रहा है। अब यह एक हारा हुआ जुआ है या मास्टरस्ट्रोक, वह तो चुनाव परिणाम ही बताएगा। बीजेपी की सबसे बड़ी गलतियों में एक है येदियुरप्पा के बेटे को वरुणा विधानसभा सीट से टिकट न देना। इसी सीट पर कांग्रेस ने सिद्धरामैया के बेटे डॉ. यतीन्द्र को टिकट दिया है। इस अर्थ में देखें तो कह सकते हैं कि कांग्रेस अपने मुख्यमंत्री प्रत्याशी को एक मज़बूत उम्मीदवार के रूप में प्रदर्शित कर रही है जबकि बीजेपी अपने मुख्यमंत्री प्रत्याशी से दूरी बनाए हुए है। येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से आते हैं। सत्ता में आने के लिए किसी भी दल के लिए ज़रूरी है कि इस समुदाय को साथ लेकर चले। आबादी के हिसाब से कर्नाटक में वोक्कलिगा, लिंगायत और कुरुबा/ओबीसी अच्छी-खासी राजनीतिक ताकत रखते हैं। लिंगायत खुद को बीजेपी के हिंदुत्व से अलग देखते आए हैं। ऐसे में उनके लिए एक अलग धार्मिक दरजे की मांग कर के सिद्धरामैया ने छक्का जड़ दिया है।
ताज़ा खबर यह है कि मोदी और येदियुरप्पा अलग-अलग रैलियों को संबोधित करेंगे। बीजेपी का मानना है कि यह व्यवस्था सुविधाजनक है हालांकि मतदाताओं में इससे एक गलत संदेश जा रहा है कि मुख्यमंत्री प्रत्याशी के बतौर येदियुरप्पा कमज़ोर चेहरा हैं। क्या यह व्यवस्था येदियुरप्पा के खिलाफ़ जाएगी, उन्हें नुकसान पहुंचाएगी? यह तो 15 मई को ही पता चलेगा।