अनिल यादव
देश के प्रधानमंत्री का ख्याल है पुराकाल में प्लास्टिक सर्जरी इतनी उन्नत थी कि गणेश के सिर पर हाथी का सिर बिठा दिया गया. एक मुख्यमंत्री का मानना है कि महाभारत काल में इंटरनेट था जिसके जरिए संजय ने अंधे सम्राट धृतराष्ट्र को युद्ध का आंखों देखा हाल बताया. इन दिनों, थोक में ‘हू इज हू’ हुए बहुत से लोगों को और भी बहुत कुछ लगता है…
जैसे पहला परमाणु परीक्षण ऋषि कणाद ने किया, गाय के गोबर में छुपकर परमाणु बम से बचा जा सकता है, गाय के मूत्र से सोना निकालने का प्लांट लगना चाहिए, वगैरा वगैरा. इसमें काम की बात एक ही है. वह यह कि लोकतंत्र में सभी प्रकार के ज्ञानों का बाप जनमत को अपनी ओर फेरने के जुगाड़ का ज्ञान है. अगर चुनाव में जनादेश मिल जाए तो फिर आप जो ज्ञान और ज्ञानीजन आपके अनुकूल नहीं हैं, उन सबकी निराई, गुड़ाई और तुड़ाई कर सकते हैं. देशहित में ऐसा करना आपका संवैधानिक कर्तव्य भी बन जाता है. जनादेश अपने पक्ष में घुमाने के लिए जनता के मानसिक धरातल पर आना जरूरी है.
मैं अपने कई ऐसे पुराने परिचितों को जानता हूं जिनका मानना था कि जटायु का भाई संपाती त्रेता युग में सूर्य की ओर भेजा गया उपग्रह था. अगर उसके डैने या पैनल न जले होते तो विज्ञान के क्षेत्र में भारत न जाने कहां होता. हनुमानजी विश्व के पहले कम्युनिस्ट नेता थे क्योंकि उनकी लंगोट और झंडा दोनों लाल थे. उनका ऐसा मानना स्वाभाविक है क्योंकि ज्ञान पर कुछ लोगों का नियंत्रण है लेकिन कल्पना सबको अपार मिली है. जो हमारे पास नहीं होता उसे मन की उड़ान में ही पाया जाता है.
सबसे कमजोर लोग अकेले कल्पना में दुश्मनों की विशाल सेनाओं को हराते हैं, खुद को बदसूरत मानने वाले स्वप्न में सुंदरियों के प्रणय प्रस्ताव ठुकराते हैं, सबसे उपेक्षित लोगों की गरदनें आभासी मालाओं के बोझ से सचमुच दुखती हैं. खुद को छलने में यह जो सुख है वो जीने का गजब सहारा है. तथाकथित बुद्धिजीवी जब ऐसे नेताओं को मूर्ख कहते हैं तब उनके चेहरे पर धीरज और आत्मविश्वास देखने लायक होता है. वे जानते हैं कि कहा उन्हें जा रहा है लेकिन चोट आत्मगौरव के कीचड़ में लेटी जनता को लग रही है जो बुद्धिजीवियों को उनकी औकात बता देगी. जनता को जागरूक करना झंझटी और लंबा काम है जो वे करना नहीं चाहते. जनता की चेतना में जो कबाड़ पहले से मौजूद है नेता उसका इस्तेमाल बिजली बनाने में कर रहे हैं ताकि उनके सिंहासन के इर्दगिर्द पर्याप्त रौशनी, कीर्तन औऱ जयजयकार रहे.
जो कहते हैं कि प्राचीन भारत में यह था और वह था, वे खुद भौतिकी, रसायन, तकनीक, खगोल, चिकित्सा, पुरातत्व के क्षेत्र में कुछ क्यों नहीं करते. माना कि हमारे पूर्वजों ने बहुत घी खाया था लेकिन हमारे हाथ से उसकी खुशबू कब तक आती रहेगी. पुराने समय में ज्ञान जंगल में यदा कदा एकांतिक चिंतन अन्यथा कठिन तपस्या और ईश्वर के वरदान के जरिए प्राप्त किया गया था. वे न जंगल जाना चाहते हैं न तपस्या करना. वे अच्छी तरह जानते हैं कि सत्ता पाते ही आदमी में सब तरह की योग्यता छलकने लगती है. वे संसद में वोट कराकर, कानून बनाकर भारत का प्राचीन गौरव वापस लौटाना चाहते हैं लिहाजा एक साधारण सा काम करते हैं कि उपहास करने वालों के माथे पर भारतीय संस्कृति, परंपरा और सनातन धर्म का विरोधी होने की चिप्पी लगाकर पीछे से भीड़ को हुसका देते हैं. जिस फार्मूले से भ्रष्टाचार के विरोध में प्रदर्शन करने वाले लाठीचार्ज की न्यायिक जांच में उलझा दिए जाते हैं उसी के जरिए खुद को राष्ट्रभक्त साबित करना जिंदा रहने के लिए जरूरी बना दिया जाता है. इस प्रकार हरिभजन को चला देश कपास ओटते हुए रक्तपात करने लगता है. वे चालू लोग हैं.
जिन लोगों ने ‘विज्ञान प्रगति’ नामक पत्रिका की नौकरी पाने के लिए विधिवत पारायण किया हो, कृपया बताएं कि ज्ञान और प्रपंच में किसका घनत्व कम है. राजनीति के जल में उत्प्लावन बल किसके पक्ष में काम करता है?