मीडियाविजिल डेस्क
दुनिया भर में दक्षिणपंथी सत्ताओं के उभार ने जिस तरह मीडिया को गुलाम और अपना निजी प्रवक्ता बना दिया है, वह मानवीय मूल्यों को बहुत नुकसान पहुंचाने वाला है। दरअसल एक दुश्चक्र कायम हुआ है जिसमें पहले तो दक्षिणपंथी सत्ताएं मीडिया की बांह अपने तरीके से मोड़ती हैं और अपने पाले में खींचती हैं, फिर मीडिया उन्हीं की नीतियों का प्रसार कर के उन सत्ताओं को कायम रखने की कवायद करता है। अगर आपको लगता है कि मीडिया की दुर्गति केवल भारत में ही है, तो आपके लिए यह खबर राहत की हो सकती है। ताज़ा मामला हंगरी का है जिसके बारे में दि गार्डियन ने एक दिलचस्प स्टोरी 13 अप्रैल को की है।
स्टोरी की शुरुआत एक फोन कॉल से होती है। हंगरी के सरकारी टेलीविज़न का एक अग्रणी संपादक रविवार की शाम फोन उठाता है और उधर से आवाज़ आने पर उत्साह में हवा में मुक्का उछाल देता है। थोड़ी देर बाद उसके कनिष्ठ सहयोगियों को समझ में आता है कि हुआ क्या है। दरअसल, उसे ख़बर दी गई थी कि संसदीय चुनावों में विक्टर ऑर्बन की जीत हुई है। सवाल है कि किसी की जीत पर संपादक क्यों खुशी से हवा में मुक्का उछालेगा?
इस पर आने से पहले बता दें कि हंगरी की जनता दक्षिणपंथी विक्टर ऑर्बन की जीत के खिलाफ़ सड़क पर उतरी हुई है। राजधानी बुडापेस्ट में दसियों हज़ारों लोगों ने ऑर्बन का शनिवार को भारी विरोध किया है। बीबीसी के मुताबिक शनिवार को बुडापेस्ट की सड़कों पर कोई एक लाख लोग थे।
गार्डियन ने करदाताओं के पैसे से चलने वाले एमटीवीए नेटवर्क के कर्मचारियों से बात कर के समझना चाहा कि आखिर कैसे इस चैनल ने सरकारी संदेशों को प्रसारित किया और कभी-कभार तो सत्ता के पक्ष में फर्जी ख़बरें भी चलाईं ताकि प्रधानमंत्री के आप्रवास विरोधी संदेश के लिए समर्थन जुटाया जा सके।
पत्रकारों ने याद करते हुए गार्डियन को बताया कि कैसे यह नेटवर्क शरणार्थियों और प्रवासियों के संबंध में जबरदस्ती नकारात्मक ख़बरें दिखाता था। उन्हें आतंकवाद और अपराध के साथ जोड़ता था। यहां तक कि मतदान की पूर्व संध्या पर एम1 चैनल ने एक फर्जी ख़बर चलाई कि कैसे एक वैन जर्मनी के मुंस्टर में भीड़ के बीच घुस गई। इसे इस्लामिक आतंकवाद का नाम देकर भय फैलाने की कोशिश की गई जबकि ऐसा कुछ भी नहीं घटा था।
नेटवर्क के एक पत्रकार के मुताबिक, ”ऐसा तो पहले कभी मैंने महसूस ही नहीं किया था, यहां तक कि एमटीवीए में भी; यह तो सफ़ेद झूठ है।”
सरकार ने कहा था कि लाखों आप्रवासी हंगरी में प्रवेश का इंतज़ार कर रहे हैं। इस संदेश को टीवी और हज़ारों बिलबोर्डों के माध्यम से देश में फैलाने का काम किया गया।
ऑर्बन और उनकी फिडेस्ज़ पार्टी को हंगरी की संसद में तीसरी बार भारी बहुमत मिला है। उन्होंने चुनाव में प्रवासियों को मुद्दा बनाया। उनका चुनाव प्रचार पूरी तरह नस्लभेदी, धमकी भरा और प्रवासियों को दोयम दरजे के लोगों की तरह बरतने से जुड़ा हुआ था। अब जनता उनके खिलाफ़ कड़ी हो गयी है!
टीवी पर चले समाचार कार्यक्रमों में इस बीच नियम से एक तस्वीर दिखाई जा रही थी जिसमें 2015 में बडापेस्ट में टहलते हुए प्रवासियों की तस्वीरें, हंगरी-सर्बिया की सरहद पर शरणार्थियों और दंगा पुलिस के बीच झड़प के फुटेज दिखाए गए हैं।
एक पत्रकार का कहना था, ”हमेशा सहिष्णुता की आलोचना होती है जबकि प्रवासी विरोधी भावनाओं को जायज राय के रूप में स्थापित किया जा रहा था।” ऑर्बन से जुड़ी सीधी खबर करने वाले पत्रकारों को कुछ चुनिदा कीवर्ड सौंपे गए थे और अकसर ही संपादक वहां आकर अपने मुंह से बोलकर खबरें लिखवाता था। उस दौरान वह फोन पर लगा रहता। पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि खबर लिख रहे व्यक्ति को पता तक नहीं होता कि फोन के दूसरी ओर कौन है।
गार्डियन ने एमटीवीए के स्टाफ को मिले दिशानिर्देशों के हवाले से बताया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय का स्टाफ जो निर्देश जारी करता, उसे पत्रकारों को सौंप दिया जाता ताकि वे उसी के इर्द-गिर्द बात करें। अकसर ऐसे हंगरीवासियों की आलोचना की जाती जो मौजूदा सरकार को नापसंद करते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में हंगरी में सरकार ने हर तरह के मीडिया पर अपनी पकड़ मजबूत की है। कई मीडिया संस्थानों को तो सत्ता के करीबी लोगों ने खरीद तक लिया है। अभी ऑर्बिन के पास राज करने को चार साल बचे हुए हैं। पत्रकारों को डर है कि सरकार बचे-खुचे आलोचनात्मक स्वरों को भी शांत करा देगी। इसका बड़ा उदाहरण यह है कि चुनाव के दौरान सरकार की आलोचना करने वाले अखबार माग्यार नेमज़ेत बुधवार को हमेशा के लिए बंद हो गया। अखबार के मालिक ने ऑर्बन का विश्वास खो दिया था लिहाजा उसने फैसला लिया कि वह अब अखबार में पैसा नहीं लगाएगा।
चुनाव के बाद अब कुछ पत्रकार सरकारी टीवी से इस्तीफ़ा देने का सोच रहे हैं। एक पत्रकार ने गार्डियन को बताया, ”मुझे खतरनाक अहसास हुआ क्योंकि हम देख पा रहे थे कि हम क्या कर सकते हैं और हमने वाकई जनता को प्रभावित किया। हम में से कुछ लोग इस बात को लेकर आश्वस्त रहते थे कि हमें तो कोई नहीं देखता, कि हमारा कोई मतलब नहीं है। दुख की बात है कि यह गलत साबित हुआ है। हमारा असर तो पड़ता है।”
असर बेशक इस मायने में पड़ा है कि सत्ताधारी दल की जीत हुई है, लेकिन जो एक लाख जनता शनिवार को सड़कों पर उतरी है उसे देखकर लगता है कि सरकारी प्रवक्ता बने मीडिया का असली असर उल्टा ही हुआ है।
क्या हमारे देश के मीडिया के लिए इसमें कोई सन्देश खोजा जा सकता है? संपादकों को सोचना होगा!
दि गार्डियन से साभार। मूल स्टोरी यहां देखें