जनसत्ता
मजबूरी की नजदीकी
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का नजदीक आना एक बड़ी राजनीतिक घटना है। इसका जहां उत्तर प्रदेश की राजनीति पर गहरा असर पड़ेगा, वहीं देश का राजनीतिक परिदृश्य भी थोड़ा-बहुत प्रभावित हो सकता है। बस, सवाल यह है कि दोनों पार्टियों ने अभी जिस नजदीकी के संकेत दिए हैं, क्या वह अगले लोकसभा चुनाव में गठबंधन या सीटों के तालमेल में बदल पाएगी? दोनों पार्टियों ने 1993 में विधानसभा चुनाव गठबंधन करके लड़ा था, और तब उत्तर प्रदेश की सत्ता में अपनी वापसी के लिए आश्वस्त भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। सपा-बसपा गठबंधन की जीत हुई और मुलायम सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। लेकिन जून 1995 में गठबंधन टूट गया। बसपा के समर्थन वापस ले लेने से मुलायम सिंह सरकार गिर गई। यह अलगाव गेस्टहाउस कांड के कारण दुश्मनी में बदल गया। तब से बाईस साल गुजर गए, मायावती ने औरों से जब-तब हाथ मिलाया मगर सपा उनके लिए प्रतिद्वंद्वी ही नहीं, दुश्मन भी बनी रही। अब बसपा और सपा में मेलमिलाप होता दिख रहा है, तो इसके दो प्रमुख कारण हैं। एक यह कि अब सपा की कमान मुलायम सिंह के नहीं, बल्कि अखिलेश यादव के हाथ में है।
दूसरे, 2014 के लोकसभा चुनाव और फिर पिछले विधानसभा चुनाव ने दोनों पार्टियों को यह अच्छी तरह अहसास करा दिया है कि वे अकेले भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएंगी। लोकसभा चुनाव में तो बसपा का खाता तक नहीं खुला था। विधानसभा चुनाव में मायावती को लग रहा था कि वे अकेले भाजपा से निपट लेंगी, पर उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर आ गई। इस पृष्ठभूमि में, जाहिर है सपा और बसपा में बढ़ती नजदीकी अपना वजूद बचाने की कवायद है। रविवार की सुबह मायावती ने एलान किया कि गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में भाजपा के खिलाफ सबसे मजबूत उम्मीदवार का बसपा समर्थन करेगी। इशारा साफ तौर पर सपा उम्मीदवार के समर्थन की तरफ था। लेकिन शाम होते-होते उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि राज्यसभा के लिए सपा को अपने अतिरिक्त वोट बसपा उम्मीदवार को दिलाने होंगे; जबकि बसपा विधान परिषद के लिए सपा उम्मीदवार का समर्थन करेगी। जाहिर है, मामला फिलहाल इस हाथ ले उस हाथ दे का है। गठबंधन की अटकलों का खुद मायावती ने खंडन किया है, पर गठबंधन की संभावना को खारिज भी नहीं किया है। यानी उन्होंने अपने पत्ते खुले रखे हैं। दरअसल, बहुत कुछ गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों पर निर्भर करेगा। गोरखपुर लोकसभा सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफे से खाली हुई है, जबकि फूलपुर लोकसभा सीट उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के कारण।
सपा और बसपा का हाथ मिलाना उत्तर प्रदेश की राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग के लिहाज से बहुत अहम माना जा रहा है और इन उपचुनावों में इसका पहला परीक्षण होगा। मायावती बहुत बार कह चुकी हैं कि वे गेस्टहाउस कांड कभी नहीं भूलेंगी। लंबे समय से वे सपा को शत्रु के रूप में चित्रित करती रही हैं। ऐसे में क्या वे बसपा के सारे वोट सपा की झोली में डलवा पाएंगी? इस सवाल का जवाब तो उपचुनावों के नतीजे ही देंगे। लेकिन अगर गोरखपुर और फूलपुर, दोनों जगह निराशा हाथ लगी, तब भी सपा और बसपा के बीच फिर से दोस्ती, यहां तक कि गठबंधन की संभावना भी खत्म नहीं हो जाएगी, क्योंकि भाजपा की प्रचंड चुनावी सफलताओं ने उन्हें ऐसी जगह ला छोड़ा है। तमाम अटकलों के बीच जो बात निर्णायक रूप से मायने रखती है वह यह है कि क्या दोनों पार्टियां सीटों के बंटवारे का बेहद कठिन सवाल सुलझा पाएंगी!
हिन्दुस्तान
एक और घोटाला
हर बार जब धोखाधड़ी या घोटाले का कोई बड़ा मामला सामने आता है, तो आम आदमी यही कामना करता है कि काश, यह ऐसा आखिरी मामला हो। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है। पिछले घोटाले अभी विस्मृत नहीं होते और नए घोटाले की खबर आ जाती है। इस बार 3,200 करोड़ रुपये के जिस घोटाले की खबर आ रही है, उसे टीडीएस घोटाला कहा गया है। पिछले एक महीने में जितने भी घोटाले सामने आए हैं, आम आदमी के लिए उन्हें समझना काफी टेढ़ी खीर था। उसके मुकाबले इस घोटाले को समझना थोड़ा आसान है। आमतौर पर वे नौकरी-पेशा लोग, जिनका वेतन आयकर के दायरे में आता है, उन्हें उनका वेतन आयकर काटकर दिया जाता है। इस कटौती को टीडीएस यानी स्रोत पर ही आयकर कटौती कहा जाता है। यह नियोक्ता की जिम्मेदारी होती है कि वह इस कटौती को उनके नाम से आयकर कार्यालय में जमा करा दे। आयकर विभाग ने 447 ऐसी कंपनियों का पता लगाया है, जिन्होंने कर्मचारियों के वेतन से यह टीडीएस तो काट लिया, लेकिन उसे आयकर विभाग के हवाले करने की बजाय खुद ही उपयोग कर लिया। इन कंपनियों के कर्मचारियों की आयकर की देनदारी बनी रही और उन्हें आयकर बकाए के नोटिस मिलने लग गए। पिछले एक महीने में जो बड़े घोटाले उजागर हुए थे, उनमें आमतौर पर बैंकों को चूना लगाया गया था, लेकिन इस मामले में तो सीधे मध्यवर्गीय कर्मचारियों के साथ ही धोखाधड़ी की गई है।
ऐसा नहीं है कि इस तरह के घोटाले या घपले पहले नहीं हुए हों। लेकिन अगर एक साथ 447 कंपनियों का नाम एक ही तरह के घोटाले में सामने आ रहा है और घोटाले की रकम हजारों करोड़ रुपये में है, तो इसका अर्थ हुआ कि हेरा-फेरी का यह तरीका बहुत आम हो चुका है। अगर देश की सैकड़ों कंपनियों को कमाई का यह आसान जरिया पता है, तो यह मुमकिन नहीं कि आयकर विभाग के अधिकारियों को इसकी जानकारी नहीं रही होगी। लेकिन यह भी सच है कि ऐसे मामलो पर अब लंबे समय तक परदा डाले रखना संभव नहीं होता। अब आयकर के पूरे हिसाब-किताब के कंप्यूटरों पर आ जाने के बाद हिसाब-किताब और देनदारी के मिलान में ज्यादा समय नहीं लगता। ऐसा नहीं है कि यह बात इस हेरा-फेरी में शामिल कंपनियों को नहीं पता होगी। इसलिए यह समझना जरूरी है कि घपला करके बच निकलने का आत्म-विश्वास उन्हें कहां से मिला होगा?
ऐसे घपलों को रोकने के लिए सबसे जरूरी यह है कि इन कंपनियों के कर्ता-धर्ताओं को शीघ्र कड़ी सजा मिले। टैक्स की हेरा-फेरी के ज्यादातर मामलों में शीघ्र न्याय अपराध रोकने का सबसे कारगर तरीका होता है। इस मामले में एक और जरूरी चीज यह है कि जो लोग इसके शिकार बने हैं, उन्हें किसी भी तरह से बचाया जाए। इसका जिक्र इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि बड़ी कंपनियां तो अपने बचाव के सारे तरीके अपना लेती हैं, लेकिन वे लोग आसानी से फंस जाते हैं, जिनके नाम पर छोटी-मोटी देनदारी दर्ज होती है। कोई भी अर्थव्यवस्था जब विस्तार पाती है, तो कुछ लोग उसकी जटिलता में इस तरह के घपलों की गुंजाइश निकाल लेते हैं। ऐसे में, व्यवस्था से यह उम्मीद की जाती है कि वह इस तरह की गुंजाइश के रास्तों को लगातार ध्वस्त करती रहे। इसी तरह की सक्रियता का समय फिर आ गया है।
अमर उजाला
बेरोजगारों का गुस्सा
सरकारी नौकरियां आज भी देश के अधिकांश युवाओं का सपना होती हैं, ऐसे में किसी प्रतिस्पर्धी परीक्षा से संबंधित पर्चा लीक हो जाए, तो कठोर परिश्रम करने वाले और प्रतिभाशाली हजारों विद्यार्थियों पर क्या गुजरती होगी, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) की संयुक्त स्नातक स्तरीय टियर टू परीक्षा के पर्चे के कथित तौर पर लीक होने से नाराज युवाओं का राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक हिस्सों में चल रहा प्रदर्शन इसलिए हैरान नहीं करता। हालांकि अब एसएससी ने 21 फरवरी को हुई परीक्षा के पर्चे के लीक होने और अन्य अनियमितताओं की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए हैं और सर्वोच्च न्यायालय भी इस मामले में 12 मार्च को सुनवाई करने वाला है। आखिर इतनी महत्वपूर्ण परीक्षा, जिससे लाखों युवाओं का भविष्य जुड़ा हुआ है, उसका पर्चा परीक्षा के नियत समय से पहले ही ‘आंसर की’ सहित सोशल मीडिया पर कैसे आ गया! दिल्ली के एक केंद्र के शौचालय तक मे उत्तर पुस्तिका मिलने की शिकायत की गई है। प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में इस तरह की अनियमितताएं और सामूहिक नकल चिंता का कारण है। पर्चा लीक होने के विरोध में एसएससी के परीक्षार्थियों के प्रदर्शन को वास्तव में देश में रोजगार के वृहत परिदृश्य के साथ भी जोड़कर देखना चाहिए। तमाम आश्वासनों के बावजूद सरकारी नौकरियों की स्थिति बेहतर नहीं हो सकी है। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने खुद अपने बजट भाषण में स्वीकार किया था कि विगत दो वर्षों में सिर्फ 2.5 लाख केंद्रीय नौकरियों का सृजन हो सका है। वहीं दूसरी ओर कुछ सौ पदों के लिए लाखों बेरोजगार आवेदन करते हैं और उन्हें अपनी शिक्षा से बेहद कमतर पदों पर काम करना भी मंजूर है। मसलन, इसी वर्ष राजस्थान विधानसभा सचिवालय में चपरासी के 18 पदों के लिए आवेदन करने वालों में इंजीनियर, विधि स्नातक, सीए और पोस्ट ग्रेजुएट तक शामिल थे। इसके साथ ही सरकारी नौकरियों की प्रक्रिया पूरी होने में दो-तीन साल का समय लग जाता है, सो अलग। एसएससी की परीक्षा में हुई गड़बड़ी को किसी संगठित गिरोह के बिना अंजाम नहीं दिया जा सकता; इस घटना ने कर्मचारी चयन आयोग सहित अन्य संस्थानों के परीक्षा तंत्र को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है।
दैनिक भास्कर
अखिल भारतीय बनती भाजपा उदार और समावेशी भी बने
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव में अपने पक्ष में भारी उलटफेर करके भारतीय जनता पार्टी ने जता दिया है कि विचारधारा, संगठन और नेता की खोज में लगी दूसरी विपक्षी पार्टियों के लिए उससे पार पाना मुश्किल है। राष्ट्रीय स्तर पर नेता, संगठन, संसाधन और कार्यकर्ताओं की फौज से लैस भाजपा ने इन तीनों राज्यों में चुनावी विजय के लिए क्षेत्रीय दलों से सहयोग की वही रणनीति अपनाई जो वह नब्बे के दशक से सफलतापूर्वक अपनाती रही है। उसके विपरीत यूपीए गठबंधन के माध्यम से केंद्र में दस वर्षों तक सरकार चला चुकी और केरल में यूडीएफ जैसा मोर्चा चलाने वाली कांग्रेस पार्टी वैसा करने से चूक गई। कांग्रेस ही क्यों केरल और पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक गठबंधन और मोर्चा बनाकर शासन करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी सैद्धांतिक अकड़ के चलते वह दांव नहीं चल पाई। भाजपा को वास्तविक कामयाबी त्रिपुरा में हासिल हुई है, जहां उसने अपने दो प्रतिशत से भी कम वोटों को त्रिपुरा मूल निवासी फ्रंट(आईपीएफटी) के साथ मिलकर 50 प्रतिशत तक पहुंचा दिया और कांग्रेस के 36.5 प्रतिशत वोटों को 1.8 प्रतिशत तक ला दिया। भाजपा को त्रिपुरा में दोहरी खुशी प्राप्त हुई है। एक तो उसने वहां 25 वर्षों से सत्ता पर काबिज वाममोर्चा को हटा दिया और दूसरी तरफ कांग्रेस को विपक्ष की पदवी से हटाकर वहां माकपा को पहुंचा दिया। हालांकि, त्रिपुरा में वाममोर्चे का तकरीबन 45 प्रतिशत वोट अभी भी बरकरार है। भाजपा और संघ परिवार की असली वैचारिक शत्रुता तो कम्युनिस्टों से ही है, क्योंकि कांग्रेस तो कई रूपों में उसके करीब बैठती है। इसलिए सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रांति के सौ साल पूरे होने पर छोटे से राज्य में ही सही लेकिन, वाममोर्चा के एक गढ़ के ढहने से उसकी उन्मुक्त प्रसन्नता स्वाभाविक है। नगालैंड में भाजपा ने सबसे चालाक किस्म का गठबंधन बनाया और पहले की सत्तारूढ़ पार्टी एनपीएफ से संबंध तोड़े बिना एनडीपीपी के साथ तालमेल बनाकर बहुमत का खेल भी साध लिया और कांग्रेस के तकरीबन 25 प्रतिशत मतों को दो प्रतिशत तक कर दिया। पूर्वोत्तर के प्रति भाजपा की यह ललक उसे पहले की कांग्रेस पार्टी की तरह अखिल भारतीय और अजेय तो बनाती है लेकिन, इसकी सार्थकता तब है जब वह सामाजिक समावेशी और उदार भी बने।
राजस्थान पत्रिका
बेदाग हो सिस्टम
कर्मचारी चयन आयोग की एक और परीक्षा संदेह के घेरे में आ गई है। सीजीएल टियर-दो परीक्षा में हुई गड़बड़ियों की जांच आखिर अब सीबीआई के सुपुर्द होने जा रही है। दिल्ली में छह दिन चले आन्दोलन के बाद आखिर आयोग को सीबीआई जांच के लिए झुकना पड़ा। ये अकेली परीक्षा नहीं है जिसे लेकर गड़बड़ी के आरोप लगे हों। देश के हर राज्य में, परीक्षा कोई भी हो, बिना जांच, बिना अदालती कार्रवाई के सम्पन्न होती ही नहीं। कहीं परीक्षा में नकल के गम्भीर आरोप लगते हैं तो कहीं पेपर लीक की शिकायतें सामने आती हैं। जांच भी होती है और कार्रवाई भी। लेकिन ठोस नतीजा कभी सामने नहीं आता ही नहीं। न नकल करने वालों को सजा मिल पाती है और न नकल कराने वाले संगठित गिरोहों को। पेपर लीक कराने वाले लोग संदेह के आरोपों में पकड़े तो बहुत जाते हैं लेकिन सींखचों के पीछे कभी नहीं पहुंच पाते। बड़ा सवाल यही है कि परीक्षार्थियों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले लोग कानूनी शिकंजे में फंसते क्यों नहीं? बात क्लर्क परीक्षा तक ही सीमित नहीं रह गई है। डॉक्टर, इंजीनियर और अधिकारी वर्ग की परीक्षाएं भी गड़बड़झाले से बची नहीं हैं। राज्यों के लोक सेवा आयोग के अधिकारी-कर्मचारियों के पेपर लीक कराने के मामले में फंसने की खबरें चिंताजनक हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि इसे गंभीरता से लेने वाला कोई नजर नहीं आ रहा। कर्मचारी चयन आयोग सीजीएल टियर-दो की परीक्षा सीबीआई से जांच के लिए मजबूरी में तैयार हुआ नजर आता है। हजारों छात्रों के छह दिन चले आन्दोलन में जब अन्ना हजारे जा पहुंचे तो सरकार भी सक्रिय हुई और गृह मंत्रालय तथा भाजपा नेता भी। अन्ना अगर नहीं पहुंचते तो शायद छात्र अब भी धरने-प्रदर्शन कर रहे होते। पैसे के दम पर नौकरी पा जाना कोई छोटा अपराध नहीं है। ये अपराध जितना गंभीर है, उसके लिए सजा भी उतनी ही कठोर होनी चाहिए ताकि दूसरा कोई ऐसा अपराध करने की सोच भी नहीं सके। परीक्षा प्रणाली में भी बदलाव लाने के विचार पर मंथन होना चाहिए। ऐसा बदलाव जिससे गड़बड़ी की आशंका ही ना हो। ऐसे घोटाले की जांच भी त्वरित होनी चाहिए। तभी चयन आयोग और लोक सेवा आयोग की साख बच पाएगी। यहां सवाल योग्य अभ्यर्थियों के मुकाबले अयोग्य अभ्यर्थियों के चयन का है। इसके साथ समझौता किया जाना ही नहीं चाहिए।
दैनिक जागरण
उचित नसीहत
दिल्ली में सौ करोड़ के कथित घोटाले में मुख्य सचिव को बुलाने पर विधानसभा की समिति को दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा फटकार लगाया जाना सर्वथा उचित है। अदालत की यह टिप्पणी भी स्वागतयोग्य है कि यदि आप मुख्य सचिव का सम्मान नहीं करेंगे तो काम कैसे होगा? अदालत की यह टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है और नसीहत देती है कि सरकारी मशीनरी में हर कर्मचारी और अधिकारी के आत्मसम्मान की रक्षा की जानी चाहिए। विधानसभा की प्रश्न एवं संदर्भ समिति ने मुख्य सचिव को इस मामले में तलब किया था, लेकिन मुख्य सचिव समिति के समक्ष उपस्थित नहीं हुए थे। इसपर उन्हें विशेषाधिकार नोटिस भेजा गया था, जिसके खिलाफ उन्होंने हाई कोर्ट में याचिका डाली थी। इस याचिका पर सुनवाई के दौरान सोमवार को अदालत ने यह भी कहा कि नोटिस देकर आप आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुख्य सचिव किसी भी राज्य के प्रशासनिक तंत्र का मुखिया होता है। राज्य सरकार और मुख्य सचिव का तालमेल उस राज्य की प्रगति और विकास कार्यो के लिए अत्यंत आवश्यक है। हालांकि मौजूदा दिल्ली सरकार के कार्यकाल में मुख्य सचिवों के साथ तनाव का माहौल चला आ रहा है और उससे दिल्ली का विकास भी प्रभावित हो रहा है। सरकार अधिकारियों पर दबाव बनाकर टकराव को बढ़ाती नजर आ रही है। इससे दिल्ली की तमाम बड़ी परियोजनाओं के प्रभावित होने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। अत: यह आवश्यक है कि दिल्ली सरकार हाई कोर्ट की नसीहत पर अमल करते हुए आग बुझाने की दिशा में प्रयास करे।
प्रभात खबर
जीडीपी के मायने
कुछ दिन पहले आये वित्त वर्ष 2017-18 की तीसरी तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों का एक संकेत है कि चीन को पछाड़ते हुए भारत दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्था बन गया है. अक्तूबर-दिसंबर, 2017 में जीडीपी की वृद्धि दर 7.2 फीसदी पर जा पहुंची है, जबकि चीन की दर फिलहाल 6.8 फीसदी है. वृद्धि दर का सकारात्मक और तीव्रतर होना अर्थव्यवस्था के उभार का सूचक है. जीडीपी की बेहतरी यह भी बताती है कि निवेशकों का भरोसा बहाल है. निवेश के बढ़ने से कंपनियों के लिए कारोबार बढ़ाने के अवसर पैदा होते हैं. बाजार में मांग और आपूर्ति का सिलसिला मजबूत होता है. जीडीपी में बढ़ोतरी के जरिये बेशक ऐसे अनुमान लगाये जा सकते हैं और यह एक हद तक जायज भी है, लेकिन सकारात्मक बात का एक संदर्भ होता है और उस संदर्भ पर गौर करना किसी आर्थिक संकेतक के निहितार्थों को समुचित रुप से समझने में मददगार होता है. चीन की आर्थिक वृद्धि दर अभी भारत से कमतर है, परंतु चीनी अर्थव्यवस्था का कुल मोल फिलहाल 23 ट्रिलियन डॉलर है, जबकि भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ते हुए 2.25 ट्रिलियन डॉलर के मोल तक पहुंची है. लिहाजा, 6.8 फीसदी की वृद्धि दर से भी जितने समय में चीन अपनी अर्थव्यवस्था के मोल में 1,183 बिलियन डॉलर का इजाफा करेगा, उतने समय में भारत 7.2 फीसद की रफ्तार कायम रहते हुए 500 बिलियन डॉलर की ही बढ़त जोड़ सकेगा. दूसरी बात जीडीपी में प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी की है. इस लिहाज से चीन की अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में पांच गुना ज्यादा बड़ी है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था 32 गुना. ध्यान रखने की एक बात यह भी है 1991 में भारत की जीडीपी का कुल मोल 275 बिलियन डॉलर था और साल 2017 में यह 2.25 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया. विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक, अगर यह वृद्धि दर जारी रहती है, तब भी 2030 तक भारत 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन पायेगा, जो अमेरिका (19 ट्रिलियन डॉलर) तथा चीन (23 ट्रिलियन डॉलर) से बहुत कम है. यह भी उल्लेखनीय है कि मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही की दर को राजस्व वसूली और सोना-चांदी की अधिक खरीद से भी उछाल मिला है. जाहिर है, आर्थिक वृद्धि दर को देश के आम नागरिकों के जीवन-स्तर और आर्थिक स्थिति का सही संकेत बनाने के लिए दो मोर्चों पर काम करना आवश्यक है. एक जीडीपी की अपेक्षित बढ़वार कायम रहनी चाहिए तथा दूसरे, जीडीपी में लोगों की हिस्सेदारी में इजाफा होना चाहिए. चूँकि जीडीपी देश के हर आर्थिक व्यवहार को समाहित करता है, इसलिए यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जिन क्षेत्रों से अधिकाधिक लोगों को रोजगार मिलता हो तथा देश के विकास और समृद्धि को सीधे आधार मिलता हो, उनकी बढ़त पर सरकार और उद्योग जगत अपना ध्यान केंद्रित करें.
देशबन्धु
महिलाओं के लिए क्या सोचती है भाजपा
भाजपा के नेताओं के मन में महिलाओं के लिए कितना सम्मान है, इसकी एक तस्वीर हमने कुछ समय पहले संसद में देखी थी, जब प्रधानमंत्री ने रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना शूर्पणखा से की थी। हैरत की बात है कि देश के प्रधानमंत्री द्वारा की गई इस अत्यंत अभद्र टिप्पणी पर जैसा विरोध सभ्य समाज की ओर से होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। नरेन्द्र मोदी ने केवल एक विरोधी सांसद के लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल नहीं किया था, बल्कि शूर्पणखा के प्रसंग को उठाकर समूचे महिला समुदाय का अपमान किया था। गंगा को मां बोलने वाले प्रधानमंत्री संसद में तो महिला की मर्यादा का ख्याल रख नहीं सके, फिर उनके कुनबे के बाकी लोग भला महिलाओं का अनादर करने से पीछे क्यों रहें? मर्यादापुरुषोत्तम राम के नाम की राजनीति करने वाले नारी अस्मिता को कैसे तार-तार करते हैं, इसकी दूसरी तस्वीर आदित्यनाथ योगी के एक मंत्री ने दिखाई।
फूलपूर की एक चुनावी सभा में उप्र सरकार में स्टाम्प और नागरिक उड्डयन मंत्री नंदगोपाल गुप्ता नंदी ने मुख्यमंत्री योगी की मौजूदगी में रामायण को वर्तमान संदर्भों से जोड़ते हुए भाषण दिया। वैसे इसे भाषण कहना सही नहीं होगा। मंत्री महोदय ने विरोधियों के लिए जहर भरे अपशब्द कहे और मुख्यमंत्री योगी इसे मसखरी समझकर मुस्कुराते रहे। सरकार में जिम्मेदार पद पर बैठे नंदगोपाल गुप्ता ने सार्वजनिक मंच से बोलते हुए अपनी जिम्मेदारियों का तनिक लिहाज नहीं किया, बल्कि उनका पूरा ध्यान प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की चाटुकारिता में लगा था।
बस चरण धोकर पीने की कमी थी। श्री गुप्ता ने रामायण के पात्रों का कलयुग में वर्णन करते हुए मुलायम सिंह यादव को रावण, शिवपाल यादव को कुंभकरण, अखिलेश यादव को मेघनाद और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को मारीच बताया। अखिलेश यादव के लिए उन्होंने कहा कि तुम युवराज हो, लेकिन एक बार जनता को मूर्ख बनाकर अयोध्या पर राज करने बैठ गए। यानी जनता के बहुमत से समाजवादी पार्टी की जो सरकार बनी थी, उसे नंदगोपाल गुप्ता जनता की मूर्खता बतला रहे हैं। ऐसे में गोवा, मणिपुर और अब मेघालय में गिनी-चुनी सीटें होने के बावजूद भाजपा ने जो सत्ता हथियाई है, उसे वे क्या कहेंगे? क्या यह लोकतंत्र को मूर्ख बनाना नहीं है? नंदगोपाल गुप्ता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राम और आदित्यनाथ योगी को उनका हनुमान बताया। अपने आकाओं की वे कैसी चापलूसी करते हैं, यह उनका विशेषाधिकार है, अच्छा होता, अगर वे यह भी बता देते कि क्या वे खुद और बाकी मंत्री वानर सेना का अंग हैं?
बहरहाल, कलयुग में रामायण के पात्रों का वर्णन करते हुए, नंदगोपाल गुप्ता ने तब सारी हदें लांघ दीं, जब उन्होंने मायावती को शूर्पणखा बतलाया और निहायत ओछे तरीके से कहा कि इस युग में भी तुम्हारा विवाह नहीं होगा। राजनैतिक विरोध पर व्यक्तिगत प्रहार की यह पराकाष्ठा है, जिस पर समाज का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। लेकिन योगी समेत मंच पर बैठे तमाम लोग इस ओछेपन का मजा लेते रहे। पाठकों की जानकारी के लिए बता दें कि नंदगोपाल गुप्ता नंदी 2007 में बसपा की टिकट से ही विधानसभा पहुंचे थे और मायावती सरकार में मंत्री भी थे।
इसके बाद बहुत से नेताओं की तरह वे भी दलबदल कर भाजपा में शामिल हो गए थे। इससे पहले भी उत्तरप्रदेश में भाजपा के उपाध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह ने मायावती के खिलाफ बेहद अपमानजनक टिप्पणी की थी। तब भाजपा ने उनका निलंबन किया था, लेकिन बाद में निलंबन वापस भी ले लिया था। भारतीय समाज में महिलाएं पहले से निचले दर्जे पर हैं। उस पर दलित और विरोधी दल की हो, तो फिर भला भाजपा अपमान करने में पीछे क्यों रहे?
प्रधानमंत्री मन की बात में भले बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, नारी शक्ति जैसी लफ्फाजी कर लें, उनकी कथनी और करनी का सच सब जानते हैं। अभी कुछ दिनों में आठ मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाएगा। इसमें फिर महिला शक्ति की शान में अच्छी-अच्छी बातें कही जाएंगी। मोदीजी, योगीजी और भाजपा के तमाम बड़े नेता माताओं-बहनों के लिए सद्विचार प्रकट करेंगे। अगर सचमुच उनके मन में महिलाओं के लिए सम्मान है, तो प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी क्रमश: रेणुका चौधरी और मायावती से सार्वजनिक माफी मांगकर दिखाएं और खेद प्रकट कर के बताएं।