वन्दे जम्हूरियत !
रामशरण जोशी
त्रिपुरा में ढाई दशकों के शासन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता के पतन को वाम विचारधारा के अंत के रूप में देखना -प्रचारित करना सरासर इतिहास विरोधी दृष्टि होगी. त्रिपुरा में हार को वाम शक्तियों की राज सत्ता के पराभव के रूप में देखा जा सकता है, न कि वामवादी वैचारिक सत्ता की पराजय.
फिर भी ठोस राजनीतिक यथार्थ को नज़रंदाज़ करना भी इतिहास से मुँह मोड़ना होगा. यकीनन यह समय दक्षिणपंथ की आक्रमकता का है, जिसके आलम हमलावर हैं नरेन्द्र मोदी, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे लोग.अमेरिका, यूरोप ,एशिया समेत विश्व के दूसरे भागों में कॉर्पोरेट-याराना पूंजीवाद के राकेट पर सवार होकर दक्षिणपंथी शक्तियां चारों दिशाओं में हमले कर रही हैं. इस नक़्शे को दिमाग में रख कर त्रिपुरा-हार और संघ-भाजपा उभार को देखा जाना चाहिए.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने त्रिपुरा चुनाव प्रचार में हुंकार भरी थी कि राज्य में वामपंथ के गढ़ को ध्वस्त करके रहेंगे. उन्हें माणिक-सरकार से कहीं ज्यादा नफरत थी ‘वामपंथ ‘ से. अतः मोदी-सेना ने जैविक घृणा से लैस होकर त्रिपुरा पर धावा बोल दिया. कामयाबी भी मिली.लेकिन इसका श्रेय वैश्विक दक्षिण पंथी ताक़तों को भी जाता है.हालांकि, जन-फैसले का आदर क्या जाना चाहिए. लेकिन, सच यह भी है कि अकूत संसाधनों से लैस संघ-परिवार ने त्रिपुरा चुनावों में अपनी पूरी शक्ति झोक दी थी; त्रिपुर -विजय का सबब -सन्देश है निरंकुश पूंजीवाद का विस्तार; कट्टरवादी-अंधराष्ट्रवादी-युद्ध उन्मादी प्रवृतियों का फैलाव: फियर-सायकोसिस से प्रगतिशीलों-अल्पसंख्यकों की सामजिक व राजनीतिक घेराबंदी। भाजपा एक सामान्य व प्रोफेशनल राजनीतिक पार्टी नहीं है. यह पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर आश्रित है. संघ का सुदूरगामी एजेंडा है भारत को ‘धार्मिक उर्फ़ हिन्दू राष्ट्र ‘ बनाना. इसके लिए संविधान में संशोधन अनिवार्य है. यह तभी मुमकिन है जब संसद और विधान सभाओं में अनिवार्य सस्दस्य संख्या रहे. इसलिए त्रिपुरा -जीत या उत्तर-पूर्व विजय अभियान पर वैचारिक दूरबीन से नज़र रखनी होगी.
प्रधानमन्त्री मोदी कहते हैं कि वास्तु शास्त्र की दृष्टि से उत्तर-पूर्व दिशा अच्छी होती है.उन्होंने इस चुनावी सफलता को तुरंत ही मध्ययुगीन मानसिकता के साथ नत्थी कर दिया. दूसरे शब्दों में इसे धार्मिक-सांस्कृतिक रंग दे डाला. एक ‘अखिल भारतीय हिन्दुत्व मानसिकता’ को चुनावी राजनीति के केंद्र में ले आये. यह खतरनाक संकेत है. संघ परिवार की कोशिश यही है कि पूरा देश ‘संघ मय ‘ व ‘ हिन्दू’मय बन जाए. इस सन्दर्भ में संघ-सुप्रीमो मोहन भागवत के दम्भ भरे उवाच को याद रखना चाहिए. उन्होंने 25 फरवरी को मेरठ में आहवान दिया था कि ‘सारा समाज संघ बनें।’ वे कहते हैं कि हिन्दुओं को एकताबद्ध होना पड़ेगा. उनके ही कांधों पर भारत की ज़िम्मेदारी है. इन शब्दों का सीधा अर्थ यह है कि भाजपा राजनीतिक सफलताओं तक ही सीमित नहीं रहेगी, न ही संतुष्ट होगी. यह तो उसका छद्म एजेंडा है. असली एजेंडा है देश के धर्मनिरपेक्षवादी चरित्र को ध्वस्त कर देना. उसके स्थान पर गुरु गोलवरकर जी के सपनों को साकार करना. उनके ‘बच ऑफ़ थॉट्स ‘ के मार्ग दर्शन में आगे बढ़ना। इसलिए उत्तर-पूर्व में संघ -परिवार के उभार को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. इसके दूरगामी परिणामों पर नज़र गड़ाए रखना होगा.
मोदीजी कहते हैं कि मुसलमानों के एक हाथ में कुरान, दूसरे हाथ में कंप्यूटर होना चाहिए. इससे असहमति किसी की नहीं है. लेकिन वे यही बात तथाकथित लव जेहादियों,गौ रक्षकों जैसों पर भी लागू करेंगे? उनके सौ खून माफ. यह कैसी आधुनिकता है,यह कैसा ‘सबका साथ -सबका विकास’ है ! वास्तव में संघ परिवार उत्तर -पूर्व को अपनी नयी सांस्कृतिक-धार्मिक प्रयोगशाला बनाने के उपक्रम में है;जहाँ पिछली सदियों में पादरियों ने इस क्षेत्र का ईसाईकरण क्या था, अब इस सदी में संघ जनजातियों का ‘हिन्दूकरण ‘ करना चाहता है. जनजाति संस्कृति पर वर्चस्ववादी संस्कृति आरोपित करना चाहता है. मुख्य भारत के क्षेत्रों में इसने यही किया है। ( लेखक की पुस्तक देखें -. यादों का लाल गलियारा -दंतेवाड़ा ) सारांश में, मोदी जी अल्पसंख्यकों का तो आधुनिकीकरण करना चाहते हैं,लेकिन अपने तथाकथित सांस्कृतिक सेना को मध्ययुगीनता के अस्तबल में ही बांधे रखना चाहते हैं. कैसी है यह दोगली मानसिकता! क्या उत्तर-पूर्व की भी यही नियति रहेगी?
ज़रुरत इस बात की है कि मोदी-शाह जुगलबंदी का राग कर्णाटक और अन्य प्रदेशों में सुनायी न दे, इसके लिए सभी सच्चे लोकतान्त्रिक राष्ट्रवादियों,धर्मनिरपेक्षवादियों,संविधानवादियों, और नस्ल-जात विरोधियों को गोलबंद होने का समय है.
( वरिष्ठ लेखक और पत्रकार रामशरण जोशी मीडिया विजिल के सलहाकार मंडल के सम्मानित सदस्य हैं।)