हाल में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इज़रायल की एक आपत्ति पर फ़लस्तीनियों के लिए काम करने वाले एक गै़रसरकारी संगठन के सलाहकार संगठन होने के आवेदन को निरस्त कर दिया। जब इस मामले पर मतसंग्रह हुआ तो पहली बार भारत ने फ़लस्तीन के ख़िलाफ़ इज़रायल के पक्ष में अपना मत दिया। इस घटना के सन्दर्भ में जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ और अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन ने संयुक्त रूप से 17 जून, 2019 को एक आयोजन किया जिसमें मुख्य वक्ता थे वरिष्ठ पत्रकार और पश्चिम एशियाई मामलों की विशेषज्ञ सीमा मुस्तफ़ा, कॉमरेड सुधाकर रेड्डी (महासचिव, भाकपा), कॉमरेड डी. राजा (राष्ट्रीय सचिव, भाकपा) और कॉमरेड अरुण कुमार (महासचिव, अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन)। बैठक का विषय था भारत की विदेश नीति का बदलता रुख।
कार्यक्रम की शुरुआत में जोशी-अधिकारी इंस्टिट्यूट के कॉ. विनीत तिवारी ने संदर्भ रखते हुए बताया कि भारत शुरू से ही इज़रायल के ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ फ़लस्तीन के पक्ष में दृढ़़ता से खड़ा रहा है। भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में इज़रायल के पक्ष में जाना चिंताजनक है और यह पिछले दो दशकों में भारत की विदेश नीति में आ रहे बदलावों की एक अहम कड़ी है। मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद से भारत की विदेश नीति न्याय और आज़ादी के लिए लड़ने वालों के पक्ष में खड़ी होने के बजाय तेज़ी से साम्राज्यवादी मुल्कों की पक्षधर होती जा रही है।
वक्तव्य के बीच विनीत ने सूचित किया कि प्रख्यात मार्क्सवादी सिद्धांतकार, नब्बे से अधिक पुस्तकों की लेखिका और क्रांति की जनशिक्षिका मार्ता हारनेकर का एक दिन पूर्व रविवार को क्यूबा में देहांत हो गया है। मार्ता हारनेकर के बारे में अर्थशास्त्री कॉ. जया मेहता ने कहा कि वेनेजुएला की राजनीति को दिशा प्रदान करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने पूरे विश्व के सामने 21वीं शताब्दी के समाजवाद का उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने दर्शाया कि 21वीं शताब्दी के समाजवाद में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है- शासन में जनभागीदारी। उनका कहना था कि राजनीति सिर्फ़ संभव कामों को करना ही नहीं है, बल्कि राजनीति एक ऐसी कला है जो असंभव को भी संभव बना देती है। आज वो हमारे बीच नहीं हैं पर हम उनके जीवन का उत्सव मना रहे हैं। मार्ता ने पूरे लातिन-अमेरिकी समाज और दुनिया भर के बुद्धिजीवियों को प्रेरित किया।
सीमा मुस्तफ़ा ने इजरायल और फ़लस्तीन के बीच के तनावपूर्ण रिश्ते में भारत और अमेरिका जैसे देशों के रवैये की पोल खोल कर रख दी। उन्होंने बताया कि पूंजीवादी देश तो पहले से ही इजरायल के पक्ष में थे। अब भारत जैसे विकासशील देश भी इज़रायल का समर्थन करने लगे हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र में भारत ने फ़िलिस्तीनी लोगों के लिए काम करने वाले ‘शाहेद’ नामक एनजीओ (जिसके नाम का अर्थ होता है ‘न्याय’) के ख़िलाफ़ और इज़रायल के पक्ष में वोट दिया।
सीमा मुस्तफ़ा ने कहा कि पहले हमारी विदेश नीति में फ़लस्तीन हमेशा केन्द्र में होता था क्योंकि उसके बिना पश्चिम एशिया में शांति और सद्भाव संभव नहीं था। इस क्षेत्र में वे सारे देश जो अमेरिका से त्रस्त थे, हमेशा फ़लस्तीन के साथ खड़े होते थे, परंतु समय के साथ-साथ ‘व्यावहारिकता’ के नाम पर भारत की विदेश नीति धीरे-धीरे बदलती गई। फ़िलिस्तीन से दूरी बनती गई और इज़रायल के साथ संबंध गहरे होते गए।
सीमा मुस्तफ़ा ने बताया कि यह बड़ी चिंता का विषय है कि आज फ़लस्तीन का मुद्दा केवल मुस्लिम समाज और वामदलों को ही परेशान कर रहा है, बाकी आम लोगों को उनकी चिंता नहीं है। इज़रायल में भारत के सरकारी दौरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। एक बार एल.के. आडवाणी ने इज़रायल में एक सरकारी दौरे के दौरान कहा था कि भारत और इज़रायल में एक समानता है- हम दोनों देश दुश्मन पड़ोसियों से घिरे हुए हैं। ज़ाहिर है कि उनका इशारा भारत के लिए पाकिस्तान की ओर था और इज़रायल के लिए फ़लस्तीन की ओर। देखा जाए तो 1990 के दशक से ही भारत, इज़रायल के लिए अपने दरवाज़े खोलने लगा था। कांग्रेस से यह उम्मीद थी कि वो समझदारी वाला कदम उठाएगी पर उसने भी इज़रायल से घनिष्ठता को ‘व्यवहारिक’ बता दिया। चाहे वह मनमोहन सिंह की सरकार हो या अटल बिहारी वाजपेयी की- भारत को लगने लगा कि फ़लस्तीन के पास भारत को देने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए फ़लस्तीन को पीठ दिखाकर भारत इज़रायल के साथ व्यापार संबंध बनाने लगा।
इस मौके पर सीमा मुस्तफ़ा ने एक महत्त्वपूर्ण आंदोलन का जिक्र किया जिसे ‘‘बी.डी.एस’’ (बायकॉट, डाइवेस्टमेंट एंड सैंक्शंस) के नाम से जाना जाता है। इसकी शुरुआत अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हुई पर आज इसमें यूरोप के विद्यार्थी भी बड़ी संख्या में शामिल हैं। यह आंदोलन सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से इज़रायल के बहिष्कार की बात करता है। इस आंदोलन के साथ जुड़कर दुनिया के अनेक महान वैज्ञानिकों, लेखकों, अकादमिक विद्वानों, खिलाड़ियों और अनेक बड़े कलाकारों ने इज़रायल में अपने कार्यक्रम रद्द कर दिए और बड़ी संख्या में लोग इज़रायली कंपनियों के सामान का बहिष्कार कर रहे हैं। इस आंदोलन ने वाकई इज़रायल की नाक में दम कर रखा है। जर्मन संसद ने इस आंदोलन को ‘एंटी-सेमेटिक’ अर्थात ‘यहूदी-विरोधी’ घोषित कर दिया है। जर्मनी की इस हरकत का विरोध करने के लिए हम ‘पूमा’ जैसी जर्मन कंपनियों के सामान का बहिष्कार कर सकते हैं। अगर हम ऐसा कर पाने में कामयाब हो गए तो इसका संदेश पूरी दुनिया में जाएगा।
ऑल इंडिया पीस एंड सॉलिडेरिटी ऑर्गेनाइज़ेशन के राष्ट्रीय महासचिव कॉमरेड अरुण ने याद दिलाया कि पहले भारत के टेनिस खिलाड़ी भी इज़रायली खिलाड़ियों के साथ नहीं खेलते थे क्योंकि भारत की विदेश नीति में स्पष्ट रूप से फ़लस्तीन को समर्थन प्राप्त था। परंतु 1990 के दशक से नरसिम्हा राव की सरकार ने इज़रायल के साथ संबंध बनाने शुरू कर दिए। यहां यह महत्त्वपूर्ण है कि जिस वक्त भारत की विदेश नीति में ये बदलाव आ रहे थे ठीक उसी वक्त हमारी आर्थिक नीतियों का उदारीकरण भी हो रहा था। साथ ही सांप्रदायिक शक्तियां भी पनप रही थीं और यह वही समय था जब रूस का पतन हो रहा था। इन सभी घटनाओं को एक साथ जोड़कर देखे जाने की ज़रूरत है।
आज इज़रायल ने यहूदी स्टेट कानून पारित किया है, जिसके अनुसार अब यह संभव है कि पूरे विश्व में कहीं भी अगर कोई यहूदी है तो वो फ़लस्तीन की ज़मीन पर बस सकता है। पर वह व्यक्ति जो फ़लस्तीन में पैदा हुआ है वह पूरे विश्व में कहीं भी बसे पर फ़लस्तीन में उसे इज़रायल नहीं बसने देगा। इज़रायल बड़ी मज़बूती से फ़लस्तीन के प्राकृतिक संसाधनों (जैसे ज़मीन और पानी) के ऊपर अपना शिकंजा कसता जा रहा है। याद रहे चंद्रबाबू नायडू ने भी इज़रायली खेती को उन्नत बताया था और भारत के किसानों को उसे अपनाने के लिए कहा था।
कॉ. अरुण ने कहा कि इज़रायल के नेतन्याहू और भारत के मोदी में बड़ी समानता है- जैसे नेतन्याहू वेस्ट बैंक को पूरी तरह हथियाना चाहता है, उसी तरह मोदी पाकिस्तान को नेस्तनाबूद करना चाहते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि हम क्या कर सकते हैं? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जेएनयू को सुरक्षा प्रदान करने वाली कंपनी का नाम है ‘जी4एस’। यह एक इज़रायली कंपनी है। इसी प्रकार ‘हेवलेट एण्ड पैकार्ड’ जो कम्प्यूटर बनाने वाली कंपनी है, वह भी इज़रायली है। केरल सरकार ने सॉफ्टवेयर में मोनोपॉली रोकने के लिए ओपन सॉफ्टवेयर सोर्सेस को बढ़ावा दिया है। इसी प्रकार क्या हम एक हार्डवेयर कंपनी का बहिष्कार नहीं कर सकते?
फ़लस्तीन का भारत के साथ गहरा अंतर्संबंध है। दक्षिणपंथ के खि़लाफ़ संघर्ष में भारत और फ़लस्तीन समान रूप से शामिल हैं। ऐसे में महात्मा गांधी के फ़लस्तीन को लेकर विचार महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा था कि जब इंग्लैंड अंग्रेजों का है, जर्मनी जर्मनों का और फ्रांस फ्रांसीसियों का तो फ़लस्तीन वहां के लोगों का क्यों नहीं हो? ऐसे समय में एक बार फिर से ‘फ़लस्तीन सॉलिडेरिटी ग्रुप’ के साथ-साथ ‘एप्सो’ जैसे संगठनों को नये सिरे से सक्रिय किया जाना ज़रूरी है।
कॉ. डी. राजा ने मुद्दे की जटिलता का उल्लेख करते हुए बताया कि संयुक्त राष्ट्र में ‘टू-स्टेट रेज़ोल्यूशन’ पास नहीं हो पाया। ट्रंप ने यरूशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी है और अमेरिकी दूतावास को तेल-अवीव से हटाकर यरूशलम में स्थापित कर दिया है। उन्होंने कहा कि किसी भी देश की विदेश नीति हमेशा घरेलू नीति का ही विस्तार होती है। सन 1990 से ही हमारी विदेश नीति में बदलाव दिखने शुरू हो गए थे। इसके बाद इज़रायल के लिए सरकारी यात्राओं का दौर शुरू हो गया। कृषि तथा अन्य क्षेत्रों में आर्थिक सहयोग के साथ-साथ सुरक्षा संबंधी विषयों में इज़रायल के साथ गठजोड़ बढ़ता चला गया और धीरे-धीरे भारत इज़रायल से हथियार खरीदने वाले सबसे बड़े देशों में से एक बन गया।
1990 के दशक तक विदेश नीति को तय करने से पहले राष्ट्रीय स्तर पर सभी पार्टियों से सलाह-मशविरा किया जाता था पर अब यह सब बंद हो गया है। गांधी जी फलस्तीन को एक राजनीतिक मुद्दा नहीं बल्कि एक नैतिक विषय मानते थे। इस बात को हमें जनसाधारण तक पहुंचाना होगा। आज यह बेहद ज़रूरी है कि फ़लस्तीन के समर्थन में सारे वामदल एकजुट होकर संघर्ष करें। भारत को फ़लस्तीन के ख़िलाफ़ वोट नहीं करना चाहिए था। हमें फ़लस्तीन के साथ खड़ा होना चाहिए। पर बड़ा सवाल यह है कि इन बातों को हम आम जन तक कैसे पहुंचाएं। आज संसद में वामदलों का प्रतिनिधित्व भले हाशिये पर दिख रहा हो लेकिन हम हाशिये पर नहीं हैं। हम भाजपा के असली चरित्र को जनता के बीच उजागर करने का काम करते रहेंगे और जब लोग हक़ीक़त को समझेंगे तो बड़ा जनांदोलन छिड़ेगा और वाम उसके नेतृत्व में होगा। उन्होंने यह भी कहा कि जैसे हम भारत में सभी वामदलों के एकीकरण की कोशिश कर रहे हैं, वैसे ही फ़लस्तीन में भी मुक्तिसंघर्ष के सभी गुटों को साथ में आना चाहिए, तभी उनकी लड़ाई भी मज़बूत हो सकेगी।
एप्सो के राष्ट्रीय सचिव डॉ. सदाशिव ने बताया कि 1986 में अखिल भारतीय शांति मार्च का आयोजन किया गया था जिसमे आम लोगों ने हज़ारों की तादाद में भाग लिया था। इसी प्रकार इराक युद्ध के दौरान एप्सो ने अमेरिकी दूतावास के बाहर सैकड़ों की तादाद में प्रदर्शन किया था जिसे तितर-बितर करने के लिए पुलिस को आंसू गैस का सहारा लेना पड़ा था। विश्व शांति आंदोलन को आमजन तक पहुंचाने की कोशिशें नये सिरे से तेज़ करनी होंगी। हमें निराश होने की ज़रूरत नहीं है बल्कि इस बात को याद रखना चाहिए कि सही राजनीति में ख़तरे उठाने पड़ते हैं लेकिन आख़िरकार उसी से असंभव को संभव बनाया जा सकता है।
भारतीय महिला फ़ेडरेशन की राष्ट्रीय महासचिव कॉ. एनी राजा ने कहा कि देश महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। यह एक अच्छा अवसर है जब हम फलस्तीन के बारे में महात्मा गांधी के विचारों को लोगों तक पहुंचाएं।
अंत में सभा की अध्यक्षता कर रहे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव कॉमरेड सुधाकर रेड्डी ने कहा कि भारत की विदेश नीति में बदलाव कांग्रेस के समय से ही शुरू हो गया था। पहले इज़रायल के प्रति रुख नर्म होने लगा, फिर हथियारों की ख़रीद-फरोख़्त रूस के बदले इज़रायल के साथ होने लगी। ट्रम्प के आने के बाद से इज़रायल ने फ़लस्तीन के ख़िलाफ़ गतिविधियां बढ़ा दी हैं। मोदी के आने से पहले से ही भारत सरकार यह कहने लगी थी कि इज़रायली कृषि, इज़रायली हथियार, इज़रायली तकनीक इत्यादि काफ़ी उन्नत है। भारत के क़रीब 10 विभिन्न राज्यों से हमारे विधायक इज़रायल का दौरा कर चुके हैं- यह बात आपको मीडिया कभी नहीं बताएगा। हाल के वर्षों में मीडिया में भी इज़रायल के समर्थन में ज़्यादा से ज़्यादा लिखा जाने लगा है।
आज की पीढ़ी को फ़लस्तीन आंदोलन के बारे में ज्यादा पता नहीं है। उन्हें नहीं पता कि फ़लस्तीन की धरती में इज़रायल का उदय कैसे हुआ। हमें अपनी नई पीढ़ी को यह सब बताना होगा। देश के अंदर की दक्षिणपंथी सरकार कभी भी कोई प्रगतिशील विदेश नीति नहीं अपना सकती। आने वाले समय में इसका और भी भयावह रूप देखने को मिल सकता है। हमें अपनी तैयारियों को तेज़ करना होगा। फ़लस्तीनी संघर्ष के साथ एकजुटता एक प्रकार का साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन है। इसलिए फ़लस्तीन का संघर्ष कोई बाहर का संघर्ष नहीं है। हमारे लिए यह अन्याय के ख़िलाफ़ इंसाफ़ का संघर्ष है और वो जितना उनका है, उतना ही हमारा भी। हो सकता है कि इस वक़्त हम कमजोर हैं पर हमारा संघर्ष जारी रहेगा। फ़लस्तीन के मामले में ही नहीं, इस सरकार के हर ग़लत क़दम का ज़ोरदार विरोध होना चाहिए।
इस परिसंवाद में राज्यसभा सांसद कॉ. बिनॉय विस्वम, पूर्व लोकसभा सांसद कॉ. नागेन्द्रनाथ ओझा, भाकपा के राष्ट्रीय सचिव कॉ. भालचंद्र कांगो, एटक की राष्ट्रीय सचिव कॉ. बी.वी. विजयलक्ष्मी, भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के सचिव कॉ. वी.एस. निर्मल, रिवॉल्यूशनरी डेमोक्रेसी के संपादक डॉ. विजय सिंह, यूथ फ़ेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष आफ़ताब आलम व राष्ट्रीय महासचिव कॉ. तिरुमलाई रमण, कॉ. सुभाषिनी, कॉ. संजय नामदेव, कॉ. परमजीत ढाबा, एटक के कॉ. सुकुमार दामले, कॉ. धीरेन्द्र शर्मा, कॉ. प्रवीण सिंह, इप्टा के कॉ. विनोद कोष्टी, कॉ. आदिकेशवन, कॉ. जनार्दन, कॉ. धरमवीर, कॉ. दानिश, कॉ. शशि एवं अन्य साथी शरीक हुए।
रिपोर्ट: विनोद कोष्टी