कभी चुनाव विश्लेषक रहे और अब स्वराज इंडिया नाम की राजनीतिक पार्टी चला रहे योगेंद्र यादव ने अपने स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं को एक आभार संदेश भेजा है। स्वराज इंडिया के प्रेसीडियम की ओर से उन्होंने ‘’नई और वैकल्पिक’’ राजनीति को आगे बढ़ाने में अपना वक्त, ऊर्जा और संसाधन देने के लिए कार्यकर्ताओं का गहनतम आभार जताया। इस संदेश के दूसरे पैरा को पढ़ा जाना चाहिए जो आगे की बात के लिहाज से मौजूं है:
‘’हमारा देश विचारधाराओं के चौराहे पर खड़ा है। लोकसभा चुनाव के परिणाम संकेत दे रहे हैं कि स्वराज इंडिया की राजनीतिक लाइन- भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में मौजूद दक्षिणपंथी ताकतों का विरोध करना और उन विपक्षी दलों से बराबर दूरी बनाकर रखना जिनके पास किसी वैकल्पिक आख्यान की परिकल्पना तक नहीं है- में कोई दोष नहीं है।‘’
इस संदेश में दो-तीन बातें ध्यान देने लायक हैं। पहला, देश ‘’विचारधाराओं के चौराहे’’ पर खड़ा है। दूसरा, ‘’दक्षिणपंथी ताकतों का विरोध करना और विपक्षी दलों से बराबर दूरी बनाकर रखना’’। तीसरा, ‘’नई और वैकल्पिक राजनीति’’। इन तीनों की समीक्षा दो कारणों से ज़रूरी है- अव्वल तो इसलिए कि यादव ने हाल ही में ‘’कांग्रेस के मर जाने’’ संबंधी एक बयान दिया था, जिसकी बाद में दि इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखकर उन्होंने व्याख्या की। दूसरे इसलिए, कि यादव एक पंजीकृत राजनीतिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं लेकिन इस आम चुनाव में वे मीडिया के मंचों पर चुनाव विश्लेषक के रूप में नमूदार होते रहे हैं। उनका कोई भी बयान या लेख उन्हें चुनाव विश्लेषक या समाजशास्त्री मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, भले मीडिया में बैठे संपादक इस बात को भुला दें कि उनकी अपनी एक अनिवार्य राजनीतिक पोज़ीशन है जिसे संपादकों की बेपरवाही के चलते वे एक समाजशास्त्री की ‘’तटस्थ’’ राय के तौर पर धड़ल्ले से प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं।
Why hasn't the Congress been able to keep up with the BJP?
Panellists at #IndiaTodayAxisPoll put forward their opinion.#ExitPoll2019 @priyam_manisha @_YogendraYadav @JhaSanjay @rahulkanwal @sardesairajdeep
Live https://t.co/4fqxBVUizL pic.twitter.com/LOvmDdG0Na— IndiaToday (@IndiaToday) May 19, 2019
आइए, एक-एक कर के योगेंद्र यादव के कहे पर विचार करते हैं। विचार-विमर्श करने का न्योता उन्होंने खुद दि इंडियन एक्सप्रेस में लिखे लेख में यह कहते हुए दिया है कि ‘’मैं इस उम्मीद में अपनी दलील रख रहा हूं ताकि और ज्यादा गंभीर व रचनात्मक विमर्श पैदा हो सके‘’:
Let me, therefore, spell out the rationale in the hope that it would generate a more serious and constructive debate.
कार्यकर्ताओं और पब्लिक को अलग-अलग ज्ञान
वे लिखते हैं कि मोदी राज अपने साथ दो गहरे खतरे लेकर आया है- एक ओर हम चुनावी अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहे हैं और दूसरे, नॉन-थियोक्रेटिक मेजॉरिटेरियनिज़्म यानी एक ऐसे बहुसंख्यकवाद की ओर बढ़ रहे हैं जो अनिवार्यत: धार्मिक कट्टरतावादी नहीं है। वे कहते हैं कि कांग्रेस के पास इनसे लड़ने की दृष्टि, रणनीति व ज़मीनी ताकत नहीं है, बल्कि उलटे कांग्रेस उन लोगों के लिए अवरोध का काम कर रही है जो विकल्प तैयार करना चाहते हैं।
माना कि कांग्रेस के पास इन खतरों से लड़ने की दृष्टि नहीं है। ऐसे में कांग्रेस किन वैकल्पिक दृष्टियों की राह में रोड़ा है, यह ज़रूर उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था जिससे वे बच निकले। अपने स्वयंसेवकों को भेजे संदेश में योगेंद्र यादव जिस ‘’विचारधाराओं के चौराहे’’ की बात कह रहे हैं, सवाल उठता है कि वह चौराहा कहां है, यदि देश उनके गिनाए दो खतरों की ओर बढ़ रहा है? कार्यकर्ताओं के लिए देश ‘’विचारधाराओं के चौराहे’’ पर खड़ा रहे लेकिन अखबारी पाठकों के लिए देश ‘’इलेक्टोरल अथॉरिटेरियनिज़्म और नॉन-थिओक्रेटिक मेजॉरिटेरियनिज़्म’’ की ओर बढ़ रहा हो, जबकि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के पास कोई दृष्टि भी न हो- ये दो बातें क्या एक साथ संभव हो सकती हैं?
वे कार्यकर्ताओं से कहते हैं कि दक्षिणपंथी राजनीति का विरोध करना है और विपक्षी दलों से बराबर दूरी बनाकर रखना है। वे पब्लिक में कहते हैं कि कांग्रेस को मर जाना चाहिए। विपक्ष में एक दल विशेष के प्रति बराबर दूरी वाली बात पब्लिक में लागू क्यों नहीं होती? केवल कांग्रेस ही नहीं, ऐसी बात वे आम आदमी पार्टी के बारे में भी दिल्ली के पिछले निकाय चुनावों के दौरान कह चुके हैं। अप्रैल 2017 में उन्होंने लिखा था कि ‘’आम आदमी पार्टी की बीजेपी हत्या कर दे, उससे पहले वह सुसाइड कर लेगी’’।
आम आदमी पार्टी खुदकुशी कर ले, कांग्रेस मर जाए- एक राजनीतिक दल के मुखिया द्वारा दिए जाने वाले ऐसे बयान किसकी राजनीति को फायदा पहुंचाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि योगेंद्र यादव एक टिप्पणीकार के रूप में और एक राजनीतिक दल के मुखिया के रूप में दो तरह की बातें करते हैं? अपने कार्यकर्ताओं को वे विपक्ष से बराबर दूरी बनाए रखने को कहते हैं, जबकि खुद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के मामले में दिलजले जैसा बरताव करते हैं? क्या कोई वैचारिक शिफ्ट नज़र आ रहा है योगेंद्र यादव के इन उहापोह वाले बयानों में?
दक्षिणपंथ का एवजी विरोध
बीते 16 मई को योगेंद्र यादव को लंदन जाना था। वे नहीं गए। लंदन में कोई दो सौ साल पुराना एक वैश्विक थिंकटैंक है जिसका नाम है ऑक्सफर्ड यूनियन। यह थिंकटैंक वैश्विक मसलों पर बहस करवाने के लिए मशहूर है और राष्ट्रों की नीतियों पर भी अलग-अलग तरीके की रायशुमारी के माध्यम से असर डालता है। इसी की बहस में योगेंद्र यादव और अधिवक्ता प्रशांत भूषण विषय के पक्ष में आमंत्रित थे। इनके अलावा कांग्रेस से सलमान खुर्शीद भी पक्ष में बुलाए गए थे। विषय के विपक्ष में दो वक्ता थे- गुरचरन दास और जाह्नवी डडारकर। बहस का विषय जानकर आपको आश्चर्य होगा: ‘’दिस हाउस हैज़ नो कॉन्फिडेंस इन मोदी गवर्नमेंट’’ (इस सदन को मोदी सरकार पर विश्वास नहीं है)। इस विषय की प्रस्तावना नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस से डॉ. लेनिन रघुवंशी को प्रस्तुत करनी थी जिसके बाद बहस शुरू होती।
बहस में योगेंद्र यादव ने आखिरी वक्त में अपनी शिरकत रद्द कर दी और प्रशांत भूषण को भेज दिया। दूसरी ओर एक दिलचस्प घटनाक्रम में डॉ. लेनिन- जिन्हें मोदी के संसदीय क्षेत्र से होने के नाते विषय प्रवर्तन का जिम्मा दिया गया था- की भागीदारी बिना किसी पूर्वसूचना के न्योते के बावजूद रद्द कर दी गई। फिर भी, 16 मई को नियत समय पर बहस हुई। ऑक्सफर्ड यूनियन ने जब बहस में दिए गए वक्तव्यों को ट्विटर पर डालना शुरू किया तब जाकर पता चला कि यादव वहां नहीं गए थे। बाद में उनके दफ्तर से इसकी पुष्टि हुई।
https://twitter.com/OxfordUnion/status/1129109977250041862
ध्यान देने वाली बात है कि योगेंद्र यादव, जो वैसे तो कार्यकर्ताओं को स्वराज इंडिया की राजनीतिक लाइन के बतौर ‘’दक्षिणपंथी ताकतों के विरोध’’ की बात गिनवाते हैं, इसी विरोध का मुखर मौका एक अहम अंतरराष्ट्रीय मंच पर मिलने के बावजूद खुद नहीं गए। इसके बजाय उन्होंने स्वराज अभियान को देख रहे प्रशांत भूषण को वहां भेज दिया। सांप भी मर गया और लाठी भी बच गई।
ऐसा कहां होता है कि पार्टी और अभियान एक साथ एक ही नाम से चलते हैं? स्वराज इंडिया एक राजनीतिक पार्टी है और स्वराज अभियान उसका कैम्पेन। स्वराज अभियान का जिम्मा प्रशांत भूषण के पास है। पार्टी का यादव के पास। जब कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता के बतौर सलमान खुर्शीद विदेशी मंच पर जाकर मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर बहस कर सकते हैं तो यादव को क्या परहेज? क्या वे प्रशांत भूषण के मुखर स्वर और दक्षिणपंथ के खिलाफ राजनीतिक प्रतिबद्धता का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए कर रहे हैं?
ज्यादा दिलचस्प बनारस के डॉ. लेनिन को न्योता देकर मौका न दिए जाने का मामला रहा, जो 2011 से ही यह राजनीतिक लाइन लिए हुए हैं कि ‘’नरेंद्र मोदी हिटलर है और अरविंद केजरीवाल मुसोलिनी’’। मोदी के चुनावी गढ़ बनारस में आरएसएस की खुलकर मुखालफ़त करने वालों में डॉ. लेनिन का नाम विरल है। उनके ऊपर कुछ साल पहले इस मुखालफ़त के लिए जानलेवा हमला भी हो चुका है। मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर बनारस के चुनाव से ठीक तीन दिन पहले हो रही एक अंतरराष्ट्रीय बहस में बनारस के आरएसएस विरोधी स्वर को आखिर किसने रोकने का काम किया? इसका जवाब जानना उतना ही अहम है जितना यह कि योगेंद्र यादव दक्षिणपंथ के विरोध की राजनीतिक लाइन को बड़े मंच पर पुष्ट करने के लिए खुद क्यों नहीं गए और उलटे यहां बैठकर उन्होंने ‘’कांग्रेंस की मौत’’ की कामना क्यों कर डाली।
दि इंडियन एक्सप्रेस के लेख में यादव लिखते हैं कि कांग्रेस वैकल्पिक राजनीति करने वालों का रास्ता अवरुद्ध कर रही है। क्या यह सच नहीं है कि जिन्हें वे वैकल्पिक राजनीति का वाहक बता रहे हैं (अपने अलावा वे किसी को ऐसा मानते हों, इस पर अभी उनकी सार्वजनिक उद्घोषणा नहीं आयी है), वे खुद विकल्प के नाम पर वैचारिक धुंधलके और महत्वाकांक्षा की टुच्ची लड़ाइयों में फंसे हुए हैं? उनकी ‘’नई और वैकल्पिक’’ राजनीति आखिर है कहां? कांग्रेस में राहुल गांधी की वैकल्पिक राजनीति को वे दृष्टिहीन मानते हैं। आम आदमी पार्टी के विकल्प से उनकी निजी रंजिश है और उसकी ‘’बीजेपी द्वारा हत्या से पहले सुसाइड’’ जैसे खयाल तक वे पाल लेते हैं। समाजवादी जन परिषद के दिग्गजों को आम आदमी पार्टी के बैनर पर 2014 वे जबरन चुनाव में उतारकर अपने तईं भ्रष्ट कर ही चुके हैं। वाम राजनीति से उनका न एक लेना है न दो देना बल्कि उनकी वैचारिक विरासत ही बुनियादी रूप से वाम-विरोधी है।
अगर हम खुद उन्हें ‘’नई और वैकल्पिक राजनीति’’ का वाहक मान लें, जैसा कि कार्यकर्ताओं को भेजे संदेश में वे दम भरते हैं, तो वह राजनीति आखिर है क्या? वे किसानों की बात करते हैं। चुनाव से पहले दिल्ली की विशाल किसान रैली में उन्होंने समाजवादी जन परिषद की अपनी पिछली राजनीति के प्रभाव का इस्तेमाल कर के ओडिशा के किसानो को बाहरी दिल्ली में जुटाया। सबसे देर में उनका पीत काफिला लाल किला पहुंचा। इस किसान मार्च का श्रेय पूरा का पूरा लेने के लिए उन्होंने चैनलों की ओबी वैनें लाल किले के बाहर तैनात करवा दीं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से खुद मौके पर पहुंच नहीं पाए जिसके चलते सही मौके पर कम से कम पी. साइनाथ को बोलने का अवसर मिल सका। वरना यादव पूरी फुटेज खाने को तैयार बैठे ही थे।
इस पूरे चुनाव में देखा जाए तो यादव और उनकी पार्टी के लोग घूम-घूम कर दूसरे प्रत्याशियों के लिए प्रचार करते रहे। खुद अपना राजनीतिक संगठन और दल होने के बावजूद वे दूसरों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाते रहे और दिल्ली में, जहां आम आदमी पार्टी की संभावनाएं अपेक्षाकृत कांग्रेस से प्रबल थीं, वहां के मतदाताआं से वे नोटा देने का आह्वान करते रहे।
इस बार के चुनाव में नोटा की नई परिभाषा उन्होंने गढ़ी- विकल्प होने तक कोई नहीं। यदि वे खुद विकल्प हैं, तो चुनाव में खड़े होते। या फिर यह खुलकर मान लें कि वे और उनकी पार्टी अभी विकल्प नहीं बन सकी है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी या किसी अन्य विपक्षी दल की जड़ में मट्ठा डालना और आरएसएस/बीजेपी के विरोध की बात आने पर कन्नी काट जाना कैसी वैकल्पिक राजनीति है?
जब तक वे सेफॉलाजिस्ट थे, ठीक थे। अब वे राजनीति कर रहे हैं, लेकिन टीवी चैनलों की नज़र में सेफॉलाजिस्ट ही बने हुए हैं। राजनीति और चुनाव विश्लेषण- इन दो ध्रुवों के बीच उनकी पहचान धुंधला गई है। इसीलिए जब वे पीला साफा बांधे एक नेता की तरह बात करते हैं तब भी अविश्वसनीय होते हैं। जब सेफॉलाजिस्ट की तरह चुनावी आंकड़े गिनाते हैं तब भी हास्यास्पद हो जाते हैं। टीवी को एक ऑडियोजेनिक, फोटोजेनिक विनम्र वक्ता चाहिए, सो उनकी मांग अब तक बनी हुई है। कार्यकर्ता अपने नेता की मीडिया डिमांड देखकर खुश होता है और धंसता-फंसता चला जाता है, बगैर यह समझे कि योगेंद्र यादव वैचारिक और राजनीतिक रूप से खुद बुरी तरह फंस चुके हैं।
एक छटपटाते बौद्धिक का सेल्फ-प्रोजेक्शन
उन्होंने दो काम की बातें अपने लेख में लिखी हैं। पहली, उन्हें कांग्रेस के नेताओं से कोई ‘’खुंदक’’ नहीं है। अंग्रेज़ी में उन्होंने ‘’खुंदक’’ का ही प्रयोग किया है। दूसरी बात, कांग्रेस की मौत वाली बात को उन्होंने मेटाफर ठहराया है यानी रूपक। राजनीतिक और वैचारिक फंसान का इससे बड़े साक्ष्य मिलना मुश्किल है। बयान विवदों में आया तो जनता को मूर्ख समझ कर आपने उसे रूपक ठहरा दिया और अनुकूल तर्क गढ़ लिया, यहां तक तो ठीक है लेकिन ‘’खुंदक’’ का आरोप तो सफाई योग्य नहीं बनता था, अगर किसी ने कहा भी हो तो?
“The broad judgment is not dependent on the exit polls, unless, of course, the Congress manages to defeat the BJP in the states where it is a direct Congress-BJP contest. Two, I harbour no animus or khundak against Congress leaders. I have said publicly that Rahul Gandhi is more sincere than most political leaders that I have met and far more intelligent than everyone thinks”.
कांग्रेस से ‘’खुंदक’’ न होने का मुक्त उद्घोष और अगली पंक्ति में राहुल गांधी की सराहना की बात को दुहराना दरअसल चुनाव नतीजे से पहले के अप्रत्याशित माहौल और उसमें संतुलन साधने की कवायद से ज्यादा कुछ नहीं है। क्या जाने 22 मई को लेख छप रहा है और 23 मई को कांग्रेस ही जीतकर आ गई तब? बड़ा अनर्थ हो जाएगा फिर। इसीलिए कांग्रेस की मौत वाले बयान पर उठे विवाद को 23 मई की मतगणना से पहले सार्वजनिक करना जरूरी था, उसे रूपक ठहराना ज़रूरी था। इसीलिए लेख लिखा और छपा। 16 मई को लंदन न जाकर आपने मोदी विरोध से तो खुद को बचा ही लिया था।
अब, जबकि नतीजे आ चुके हैं, तो कार्यकर्ताओं को पत्र भेजकर ‘’नई और वैकल्पिक राजनीति’’ के लिए आभार प्रकट किया गया है। वह राजनीति वास्तव में है क्या, इसे कार्यकर्ता भी अच्छे से समझते हैं और यादव के सबसे करीबी प्रशांत भूषण भी। यह दरअसल निर्विकल्पता की राजनीति है। समाजवादी जन परिषद, आम आदमी पार्टी और पूर्वांचल के कुछ वाम संगठनों से योंगेंद्र यादव का नाम देखकर दो साल पहले स्वराज इंडिया में आए कार्यकर्ता अपने पार्टी अध्यक्ष के वैचारिक दोमुंहेपन के चलते निर्विकल्पता की स्थिति में फंस गए हैं। कार्यकर्ताओं का क्या है, वे तो कहीं भी निकल लेंगे। असल फंसे खुद योगेंद्र हैं और वो भी बहुत गहरे, लेकिन अपने प्रभाव-विन्यास और आभामंडल के चलते अब तक बच रहे हैं। निर्विकल्पता को विकल्प का नाम देकर बहुत दिन तक नहीं जिलाया जा सकता। इसीलिए अपने संगठन और राजनीति की स्वाभाविक मौत का खयाल आते ही उन्हें कांग्रेस याद आती है।
यादव ने लिखा है कि कांग्रेस की मौत दो तरीके से हो सकती है। वे निजी तौर पर ‘’आदर्श मौत’’ की कामना दूसरे तरीके में करते हैं जब कांग्रेस के भीतर और बाहर मौजूद ऊर्जा मिलकर एक नए विकल्प का निर्माण करेगी। यह गजब विरोधाभासी बात है- यदि वे नए विकल्प के लिए भी कांग्रेस की ही ओर देख रहे हैं, तो क्या वे प्रकारांतर से अपनी राजनीति और अपने दल की मौत की कामना नहीं कर रहे?
आखिरी पंक्ति में उनका रूपक देखिए: मौत का काला रूपक नए जन्म (या पुनर्जन्म?) के बारे में विचार का न्योता है।
There are two ways in which the Congress can “die”. There is death by attrition, where a big party keeps getting marginalised and gradually loses traction with the voters. This process takes many elections, perhaps many decades. This is exactly what the BJP would wish for the Congress. But there is also death by submergence, where the remaining energy of the party gets subsumed in a new, larger coalition. There is still a lot of energy in the country to take on the challenge to our republic. The ideal “death” for the Congress would be for this energy, inside and outside the Congress, to merge into a new alternative.
The dark metaphor of death is an invitation to think about a new birth. Or a rebirth?
राजनीतिक धुंधलका अकसर अध्यात्म की ओर ले जाता है। स्वराज इंडिया के अध्यक्ष अपनी आखिरी पंक्ति में वहां पहुंच चुके हैं। कांग्रेस के पुनर्जन्म या नए जन्म के लिए उसकी ओर टकटकी लगाए हुए योगेंद्र यादव दरअसल उस झंझट और रायते से मुक्त होना चाह रहे हैं जिसे उन्होंने निजी खुंदक में पाल लिया है। उन्हें पता है कि मोक्ष का मार्ग कांग्रेस से ही होकर जाता है, लेकिन इस बात को वे खुलकर बोल नहीं सकते क्योंकि मौजूदा सत्ता का दमनकारी चरित्र भी वे समझते हैं।
कुल मिलाकर यह देश नहीं, खुद योगेंद्र यादव विचारधाराओं के चौराहे पर खड़े हैं। जब तक उन्हें वाया कांग्रेस कोई मुकम्मल रास्ता नहीं मिलेगा, तब तक वे न तो खेलेंगे और न ही खेलने देंगे, बस खेलवा बिगाड़ेंगे। यह बिलकुल वही काम है जिसका आरोप उन्होंने अपने लेख में कांग्रेस पर लगाया है।
दि इंडियन एक्सप्रेस में योगेंद्र यादव का कांग्रेस के बारे में लेख दरअसल उनके अर्धचेतन का प्रोजेक्शन है, उनका अल्टर-ईगो है, उनके बेचैन स्व का प्रतिबिंब है।