इसमें शक़ नहीं कि गाँधी की तुलना में अंबेडकर ज़्यादा आधुनिक और वैज्ञानिक सोच वाले हैं। दोनों में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तीख़ी बहसें हुईं। इन बहसों का सर्वाधिक असर गाँधी पर पड़ा। ये संयोग नहीं कि जो गाँधी जातिव्यवस्था को काम के बँटवारे के लिहाज़ से उचित ठहराते थे, उन्होंने ऐलान किया कि वे आशीर्वाद देने उन्हीं शादियों में जाएँगे जिनमें एक पक्ष दलित होगा। जातिप्रथा तोड़ने के लिए अंतर्जातीय विवाहों को अंबेडकर भी महत्वपूर्ण उपाय मानते थे क्योंकि जाति का पूरा सोपान ‘रक्त की शुद्धता’ के विचार पर ही टिका है। यह भी संयोग नहीं कि जीवन भर कांग्रेस का विरोध करनेवाले अंबेडकर को महात्मा गाँधी के दबाव की वजह से ना सिर्फ़ संविधानसभा की ड्राफ़्टिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया, बल्कि नेहरू ने उनके महत्व को समझते हुए उन्हें देश का पहला क़ानून मंत्री भी बनाया। अफ़सोस की बात है कि आधुनिक भारतीय इतिहास पर सर्वाधिक असर डालने वाली इन दो विभूतियों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का चलन है। चर्चित पत्रकार राकेश कायस्थ बता रहे हैं कि उन्हें एक करने का वक़्त आ गया है। पढ़ें उनका लेख–
राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में अंबेडकर ने इससे अलग एक महान क्रांति का नेतृत्व किया। नस्लवाद के सबसे घृणित रूप यानी जाति व्यवस्था के खिलाफ उनकी लड़ाई को मानव मुक्ति के इतिहास की कुछेक सबसे कामयाब लड़ाइयों में एक माना जा सकता है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा नेता होगा जिसकी एक अकेली कोशिश से सदियों से दबे करोड़ो लोगो को उनके हक मिले। गांधी की लड़ाई अलग थी और अंबेडकर की मुकाबले कहीं ज्यादा जटिल थी। उन्हे कई-कई अंतर्विरोधो के साथ चलना था। कई परस्पर विरोधी हित समूहों में तालमेल बिठाकर आगे बढ़ना था। गांधी ने भी अपनी लड़ाई बहुत कामयाबी से लड़ी और वो भी बिना समझौता किये। उन्होने भारत ही नहीं पूरी दुनिया को ये रास्ता दिखाया कि अगर आप सच की राह पर हैं और संकल्प साथ है, तो जीत मिलेगी ही।
गांधी की ज़रूरत क्यों?
सवाल ये है कि गांधी के बाद वैसी कोई लड़ाई दोबारा क्यों नहीं लड़ी गई। जवाब ये है कि ना तो नेतृत्व था, ना परिस्थितियां और ना इच्छाशक्ति। सारी लड़ाइयां छोटे मकसद की थी। किसी भी राजनीतिक समूह के पास कोई मोरल हाई ग्राउंड नहीं था, इसलिए गांधीवादी संघर्ष का वो मोमेंटम बरकरार नहीं रह पाया, जो आजादी से पहले तक था। लेकिन क्या गांधी अप्रसांगिक हो गये? बिल्कुल नहीं हुए। जिसने भी गांधी को याद किया, गांधी सचमुच मुन्नाभाई एमबीबीएस के बापू की तरह उसके सामने आये। आज़ाद भारत के इतिहास में इसके दो बड़े उदाहरण मिलते हैं। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इमरजेंसी के ख़िलाफ लड़ी गई लड़ाई मूलत: एक गांधीवादी लड़ाई थी, जो एक हद तक कामयाब रही। उसके बाद क्या हुआ यह बिल्कुल सवाल है। दूसरा उदाहरण अन्ना हजारे के आंदोलन का है। भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अहिंसक एक आंदोलन खड़ा हुआ और पूरे देश ने उसका समर्थन किया। बाद में अन्ना अलग हुए और बाकी आंदोलनकारियों ने आम आदमी पार्टी बना ली। ठीक है कि इन दोनो आंदोलनों से राजनीति और समाज ज्यादा नहीं बदले। लेकिन दोनो मौकों पर यह साफ हुआ कि गांधीवाद कोई किताबी चीज़ नहीं है। यह एक बहुत ताक़तवर राजनीतिक हथियार है। लेकिन ये हथियार तभी कारगर होगा जब इसे सचमुच गांधीवादी तरीके से इस्तेमाल किया जाये। यानी आप सत्य के मार्ग पर हों, अहिंसा में आपकी आस्था हो और सबसे बड़ी बात ये है कि साध्य की प्राप्ति के लिए इस्तेमाल होनेवाले आपके साधन भी पवित्र हों।
गांधी का तरीका और अंबेडकर का विज़न
अंबेडकरवाद पूरी तरह सत्य का मार्ग है। यह गांधीवाद की तरह बार-बार अहिंसा पर भले ही ज़ोर ना देता हो, लेकिन मूलत: यह एक अहिंसक विचार है। यानी दो मुद्दों पर गांधी और अंबेडकरवाद में कोई फर्क नहीं है। अब रही तीसरी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है। साध्य की प्राप्ति के लिए साधन की पवित्रता। यहां कहानी थोड़ी सी अलग है। अंबेडकर की आइयोलॉजी को एक सफल राजनीतिक प्रयोग में बदलने वाले कांशीराम कहते थे– ना हम वामपंथी हैं, ना धर्मनिरपेक्षतावादी हैं, हम पूरी तरह अवसरवादी हैं। नज़रिया बहुत साफ था। सत्ता में आये बिना कुछ भी बदलना संभव नहीं है और सत्ता हासिल करने के लिए अगर समझौते करने पड़े तो भी कुछ गलत नहीं है। कांशीराम के इस विचार को उनकी राजनीतिक उत्तराधिकारी मायावती ने आगे बढ़ाया। सत्ता मिली भी, कुछ-कुछ बदला भी। लेकिन जो समझौते हुए उसने दलित राजनीतिक की धार कुंद कर दी। समझौते होने चाहिए थे या नहीं होने चाहिए, यह एक लंबी बहस का मुद्धा है। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि अंबेडकर का समग्र राजनीतिक दर्शन पीछे छूट गया। भारत को लेकर उनका आइडिया किसी ने देश को ठीक से नहीं समझाया। किसी ने ये नहीं बताया कि अंबेडकर जितने ज़रूरी दलितों के लिए हैं, उतने ही ज़रूरी ओबीसी के लिए भी हैं। अंबेडकर के पास तर्कशक्ति से भरा जो वैज्ञानिक नजरिया था, वह गांधी के पास नहीं था। अंबेडकर के आइडियोलॉजी को अपनाकर ही भारत साझा दुख और साझ सुख पर आधारित एक प्रगतिशील देश बन सकता है। इस लड़ाई में गांधीवादी तरीका पूरी तरह कारगर हो सकता है।
महापुरुषों की हाईजैकिंग का खेल
गांधी आज़ादी के बाद जिस कांग्रेस को भंग किये जाने के पक्ष में थे, उसी कांग्रेस ने गांधी को हाईजैक कर लिया और धीरे-धीरे उन्हे तीन बंदरों के साथ खड़ी एक बूढ़ी प्रतिमा में बदल दिया। अब ऐसी ही तैयारी अंबेडकर को लेकर है लेकिन ये कारस्तानी कांग्रेस की नहीं बल्कि संघ परिवार की है। स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी है और अमल शुरू हो चुका है। पहले चरण अंबेडकर को एक महान राष्ट्रवादी नेता बनाने का है। मूर्तियां लगाई जा रही हैं, मेमोरियल बनाये जा रहे हैं। जातिप्रथा से लेकर हिंदू धर्मशास्त्रों को लेकर उनके विचार धीरे-धीरे दबाये जा रहे हैं। ताज्जुब नहीं अगर अगले पांच या दस साल में अंबेडकर के मंदिर भी बन जाये। प्राण प्रतिष्ठा की जाये, ब्राहण पुजारी नियुक्त हों, मंत्रोचार के साथ अभिषेक हो और जय-जय के शोर में दलितों की आवाज़ पूरी तरह गुम हो जाये।
राजनीति जिस तरह रास्ते पर चल पड़ी है, उसे देखते हुए भावी तस्वीर की कल्पना कठिन नहीं है। दलितों को कहीं पुचकारा जाएगा, कहीं पिटाई होगी। इनाम देकर ओबीसी एकता तोड़ी जाएगी। बहुजन विरोधी नीतियां जारी रहेंगी और मुसलमानों का निशाने पर होना तय है। राजनीतिक हिंदू गढ़ने की कोशिशों के रास्ते में जो भी आएगा उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी, यह बात पूरी तरह स्पष्ट है। ऐसे में हर जिम्मेदार नागरिक को थोड़ी ठहरकर यह सोचना होगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। मुसलमानों समेत सभी जातीय समूहों को भी ये सोचना होगा कि उनकी राजनीति पर काई की मोटी परत क्यों जमी हुई है। धूल साफ करके निर्णायक लड़ाई के लिए एकजुट होना पड़ेगा। हिंसा की प्रतिध्वनियों के बीच गांधी की सत्य-अहिंसा और अंबेडकर के न्याय का एक साथ होना अपरिहार्य है।