सिर्फ बीमारी देखेंगे या स्वास्थ्य सेवाओं को भी वेंटिलेटर से हटायेंगे ?

अश्विनी कबीर

 

इन दिनों पलाश, कचनार और कदम्ब के पेड़ों पर अजीब सी खुमारी छाई हुई हैं. कुदरत ने अपना रंग भरकर उनको नायाब बना दिया है. भौंरे तो मानो उनका सारा रस पी लेना चाहते हैं. दूसरी तरफ कोरोना वायरस के संकट ने पूरे इंसानी जगत को हिलाकर रख दिया है. इस वायरस पर न तो धरती के युद्ध टैंक काम आ रहे हैं और न ही चंद्रमा की जानकारी. ऊंचे-ऊंचे भवनों और सुरक्षा अधिकारियों से भी ये वायरस ख़ौफ़ नहीं खाता.

ये सम्भव है कि जल्द ही इस वायरस का निचोड़ मिल जाये और अन्य महामारियों की तरह मानव जाति इस महामारी पर भी अपने साहस, आत्मविश्वास और लगन से जीत दर्ज करे. लेकिन समय के इस दौर में जिन सवालों को लेकर बहस होनी चाहिए वो कहीं नजर नहीं आती.

बहस का मुद्दा केवल कोरोना वायरस बन गया है. उससे होने वाली बीमारी तक ये बहस सिमटकर रह गई है. कुछ लोग डॉक्टर्स की कमी का हवाला दे रहें हैं. कुछ पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट, मास्क, वेंटिलेटर और अस्पताल में बेड की कमी की बात कर रहे हैं. समाधान के तौर पर हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की बात हो रही है. स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट पर भी एक-दो बार सवाल उठे हैं.

अस्पताल में बेडों की संख्या और वेंटिलेटर बढ़ा देने से, डॉक्टर्स को मास्क व जरूरी चीजें उपलब्ध करवा देने से इस बीमारी का इलाज करने में तो सहायता मिल सकती है किन्तु जो स्वास्थ्य क्षेत्र वेंटिलेटर पर पड़ा है उसका इलाज कौन करेगा?

मीडिया से जो उम्मीद थी. उसने वो ही काम किया. पहले डर का बाज़ार बनाया. झूठी सूचनाएं फैलाई और जब इससे भी काम नहीं चला तो उसे साम्प्रदायिक रंग से भर दिया. सारी बहस को हिन्दू बनाम मुस्लिम में समेट दिया. रात-दिन इंश्योरेंस और पब्लिक प्राइवेट पारटर्नरशिप की रट लगाने वाले दावों की हवा निकल गई.

जो मुद्दे इस बहस से गायब हैं

भारत में जब-जब स्वास्थ्य क्षेत्र की बात की जाती है तो वो न केवल अधूरी रहती है बल्कि अधिकांश मामलों में खोखली रहती है. भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और उन तक पहुंच एक गंभीर सवाल खड़ा करती है. स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता का मतलब है कि लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं लेने हेतु कितना दूर जाना है. दूसरे शहर या अन्य राज्य में? और क्या वे सेवाएं उसकी आर्थिक पहुंच में हैं भी? स्वास्थ्य क्षेत्र का अगला मुख्य मुद्दा है स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता और उन सेवाओं से रोगी के ठीक होने का भरोसा. कम से कम ये सेवाएं इतना यकीन तो दे सकें कि इससे हम ठीक हो जाएंगे. अंतिम मुद्दा है समता का है. स्वास्थ्य सेवाओं में अमीर-गरीब के अंतर का न हो.

इसे एक केस अध्ययन से समझा जा सकता है. हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िले में स्थित नारनौल शहर से रोजाना विभिन्न बीमारियों के मरीज अपना इलाज करवाने के लिए जयपुर आते है. नारनौल से जयपुर करीब 200 किलोमीटर दूर है. ये लोग हरियाणा और राजस्थान रोडवेज की बसों से 4 घंटे का सफर करके जयपुर आते हैं ताकि अपना इलाज करवा सकें.

हर रोज सुबह-सुबह सैंकड़ों की संख्या में ग्रामीण नारनौल बस स्टैंड पर आ जाते हैं. नारनौल बस स्टैंड पर सुबह के समय में जितनी बसें जयपुर के लिए निकलती हैं उनमें मौजूद सवारी या तो मरीज होते हैं या उनके साथ आये तीमारदार. इन्हें बस पकड़ने के लिए सुबह 3- 4 बजे अपने घर से निकलना पड़ता है.

नारनौल शहर में बड़े अस्पताल नहीं हैं. यहां 40 किलोमीटर दूर बहरोड़ में बड़ा अस्पताल स्थित है. लेकिन लोग वहां नहीं जाते क्योंकि वे उनके आर्थिक बूते में नहीं है. साथ ही यह विश्वास भी नहीं है कि वे वहां ठीक हो जायेंगे. जिसके कारण उनको जयपुर जाना पड़ता है.

स्वास्थ्य और बीमारी का झोल

चिकित्सक केवल बीमारी का इलाज नहीं करता वो मरीज के स्वास्थ्य की देखभाल करता है. बीमारी मात्र उसका एक पक्ष है. किन्तु जब हम स्वास्थ्य की बात करते हैं तो उसके साथ उस व्यक्ति का सामाजिक ढांचा, उसकी आर्थिक स्थिति और उसका परिवेश भी सम्मिलित होता है.

बीमार व्यक्ति तो दवा, परहेज इत्यादि से ठीक हो जाएगा. किन्तु वो दोबारा बीमार न हो और जो लोग ठीक हैं वे बीमार न पड़ें, ये स्वास्थ्य की बात है किंतु इसके लिए इस बहस में कहीं कोई सम्भावना नज़र नहीं आती. जिस इंश्योरेंस और पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप का बाज़ार खड़ा किया था वो सब औंधे मुहं गिरा है. क्योंकि इंश्योरेंस और पीपीपी केवल बीमारी के इलाज में मदद की बात करते है न कि स्वास्थ्य के क्षेत्र को सुधारने में.

स्वास्थ्य का एप्रोच

दुनिया में किसी भी देश का स्वास्थ्य क्षेत्र तीन एप्रोच पर कार्य करता है. प्रिवेंटिव, क्यूरेटिव और प्रोमोटिव. प्रिवेंटिव का मतलब है बीमारियों के रोकथाम का एप्रोच, क्यूरेटिव का अर्थ है यदि बीमारी हो जाये तो उसके इलाज का एप्रोच और प्रोमोटिव का अर्थ है कि जो व्यक्ति स्वस्थ है उनको स्वस्थ बनाए रखने का एप्रोच.

जहां तक भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की बात की जाये तो हम धीरे-धीरे केवल क्यूरेटिव एप्रोच पर आधारित हो गए हैं. हम बीमार होने पर केवल उस बीमारी का इलाज करते हैं.  हमें अन्य एप्रोच से कोई वास्ता नहीं रहा है. आज़ादी और ख़ासकर उदारीकरण के बाद से तो जैसे कि हमने बाकी बची दोनों एप्रोच को तो कहीं मेले में छोड़ दिया है. जबकि एमबीबीएस की पढ़ाई के प्रथम वर्ष में प्रीवेंटिव एंड सोशल मेडिसिन (पीएसएम) का पेपर होता है.

प्रिवेंटिव और प्रोमोटिव एप्रोच की हमे क्यों आवश्यकता है? क्या बिना इन दोनों के केवल क्यूरेटिव से स्वास्थ्य क्षेत्र को चलाया नहीं जा सकता है?  इसे  समझने के लिए हमें हिंदुस्तान के बीमारियों के प्रकोप को समझना होगा.

डिज़ीज़ बर्डन (बीमारियों का प्रकोप) 

जहां तक भारत की बात है तो यहां पर 40 फीसदी बीमारियां दूषित जल पीने, साफ़-सफाई के अभाव और कुपोषण से फैलती हैं. जिसमे मलेरिया, डायरिया हैजा, महावारी सम्बन्धी इन्फेक्शन, नवजात शिशु और गर्भवती महिला से सम्बंधित बीमारी इत्यादि शामिल हैं.

30 फीसदी बीमारियां गलत जीवन शैली की वजह से होती हैं जिसमें मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, तनाव, अस्थमा और मेटाबॉलिक सिंड्रोम इत्यादि शामिल हैं. जबकि शेष बचे 30 फीसदी में क्रोनिक बीमारियां जैसे किडनी, ह्रदय इत्यादि से जुड़ी बीमारियां शामिल हैं.

किसी भी देश की अपनी ख़ास भौगोलिक अवस्थिति होती है. उसकी अपनी जलवायु होती हैं. वहां रहने वाले लोगों की अपनी खास सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएं होती हैं. उनका अपना इतिहास होता है जो वहां के आर्थिक स्तर को निर्धारित करते हैं. वहां बीमारियों की प्रकृति और उनकी बारम्बारता भी काफी हद तक इन कारकों से तय होती है.

भारत में मधुमेह के रोगियों की संख्या के बढ़ने के अनुवांशिक कारण के साथ-साथ अन्य कारण भी हैं. इस बीमारी में सांस्कृतिक और सामाजिक कारक भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

भारतीय अपने आहार में कार्बोहाइड्रेट और संतृप्त वसा का पर्याप्त मात्रा में सेवन करते हैं. भारतीय आहार में आवश्यकता से अधिक कैलोरी और चीनी होती है. यह मोटापे का मुख्य कारण है और मोटापे से ग्रसित लोगों में मधुमेह की संभावना काफी अधिक होती है.

शहरी स्थानांतरण और जीवन शैली में परिवर्तन एक अन्य कारक है, जो भारत के लोगों में मधुमेह को बढ़ावा देता है. आज के युग के युवा आसीन जीवन शैली को अपनाना पसंद कर रहे हैं जिससे मधुमेह-2 बढ़ रहा है.

कहने का मतलब है कि हर देश क्षेत्र का अपना बीमारियों का प्रकोप रहता है. उनका प्रबन्धन भी अलग तरीके से किया जाता है न कि सब जगह एक तरह से ही उन बीमारियों का प्रबंधन हो.

स्वास्थ्य क्षेत्र का ढांचा

स्वास्थ्य को लेकर एप्रोच और बीमारियों के प्रकोप का प्रबंधन करने के लिए हमारे यहां ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में तीन स्तर पर स्वास्थ्य का ढांचा काम करता है. हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र के ढांचे में अस्पताल, डॉक्टर्स, नर्स, फार्मासिस्ट, लैब टेक्नीशियन, सफाईकर्मी, दवाइयां और अस्पताल के जरूरी इक्विपमेंट्स इत्यादि शामिल होते हैं.

भारत में प्रथम स्तर पर गांवों में एक सब सहायता केंद्र होता हैं जहां एएनएम की ड्यूटी रहती है, जो गांव में टीकाकरण इत्यादि का कार्य संभालती है. वहां एक प्राथमिक चिकित्सा केंद्र होता हैं. जहां बीमारियों के प्रबंधन हेतु एमबीबीएस डॉक्टर, आयुष डॉक्टर, नर्स, रक्त जांच करने की लैब, लैब तकनीशियन, फार्मासिस्ट और 249 प्रकार की जरूरी दवाएं उपलब्ध होती हैं. यहां अस्पताल में 4 से 6 बेड होते हैं.

दूसरे स्तर पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तथा टीबी हॉस्पिटल हैं. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 30 बेड का मिनी अस्पताल है. जहां 9 विशेषज्ञ डॉक्टर ड्यूटी करते हैं. यहां पर सभी जरूरी जांच सुविधा और 369 प्रकार की जरूरी दवाएं हर समय उपलब्ध रहती हैं.

जबकि तीसरे स्तर पर जिला अस्पतालों को रखा गया है. उसके बाद मेडिकल कॉलेज हैं. जिन्हें हायर एक्सीलेंस सेन्टर का दर्जा प्राप्त है. यहां 556 प्रकार की दवाएं तथा सभी जांच सुविधाएं उपलब्ध होती हैं. यहां सभी जरूरी विभाग कार्य करते हैं.

बीमारियों का प्रबंधन

प्रदूषित जल, साफ सफाई और कुपोषण से जो 40 फीसदी बीमारियां होती हैं, ये ही भारत की किलर बीमारियों के नाम से जानी जाती हैं. मशहूर मेडिकल जर्नल लैंसेट की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर वर्ष मलेरिया से 2 लाख मौतें होती हैं. यूनिसेफ के अनुसार दुनिया भर में हर दिन करीब 800 महिलाओं की गर्भावस्था और प्रसव के दौरान मौत हो जाती है, इनमें से 20 फीसदी महिलाएं भारत की होती हैं.

सयुंक्त राष्ट्र से जुड़ी एक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2017 में 8 लाख बच्चों की मौत हुई, अर्थात हर मिनट में तीन मौत. हर वर्ष अकेले डायरिया से 1.2 लाख बच्चों की मौत हो जाती है. हालात तो यहां तक हैं कि भारत में सबसे ज्यादा नवजात बच्चों की मौत होती है.

आईएमआरसी की रिपोर्ट में 2017 तक मौजूद डेटा के हवाले से बताया गया है कि पांच साल तक के बच्चों में मौत की एक बहुत बड़ी वजह कुपोषण है. प्रजनन के दौरान महिलाओं में पौष्टिक भोजन का आभाव होता है जिसकी वजह से बच्चों में इसका सीधा प्रभाव पड़ता है. शोध में यह भी कहा गया कि 32.7 प्रतिशत बच्चे कम वजन से पीड़ित थे. जबकि 59.7 प्रतिशत आयरन की कमी से पीड़ित पाए गए.

वहीं महिलाओं में खून की कमी भी बड़ी समस्या बनी हुई है. रिपोर्ट में पता चला कि 15 साल की लड़कियों से लेकर 49 साल महिलाओं के बीच एनीमिया से पीड़ित 54.4%  महिलाएं थीं.

इन सबका प्रबंधन प्राथमिक स्तर पर हो सकता है. यदि लोगों को साफ पीने का पानी उपलब्ध करवा पायें. चिकित्सा केंद्र पर निर्देशित दवा उपलब्ध हों, रक्त जांच की सुविधा हो, एमबीबीएस. और आयुष डॉक्टर उपलब्ध हो. यहां मौजूद आयुष उन्हें साफ-सफाई की जानकारी और पोषण की पूरकता से जोड़ सकते हैं.

दिल्ली सरकार ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक स्तर पर काम किया. जिसे हम मोहल्ला क्लिनिक के नाम से जानते हैं. इसका रिजल्ट हमारे सामने है.

खराब जीवन शैली की वजह से 30 फीसदी बीमारियां होती हैं. जिनमें मधुमेह, तनाव, मोटापा, उच्च रक्तचाप, मेटाबोलिक सिंड्रोम इत्यादि शामिल हैं. भारत को मधुमेह की राजधानी कहा जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अकेले भारत में 7.2 करोड़ लोग मधुमेह से पीड़ित हैं. आईसीएमआर के सर्वे के अनुसार 25 वर्ष से कम उम्र के 63.9 फीसदी युवा इसकी चपेट में हैं. डर की बात ये है कि ये सभी टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित हैं.  मतलब जो मधुमेह खराब जीवन शैली से होता है.

जयपुर स्थित मधुमेह विशेषज्ञ डॉ पारिख कहते हैं कि ये भारत की सबसे बड़ी महामारी हैं और चिंता की बात ये है कि 15 करोड़ से अधिक युवा बिल्कुल इस बीमारी के मुहाने पर खड़े हैं. डॉ पारिख आगे बताते हैं कि इस बीमारी में हर महीने की दवा का खर्चा 6 से 8 हजार रुपये तक चला जाता हैं. यदि वो मरीज किसी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में मधुमेह का अपना इलाज करवाता है तो उसका हर महीने का खर्च 12 से 15 हजार रुपये हो जाता है. ये ध्यान रहे कि ये खर्च उसके जीवन भर तक चलेगा.

डॉ पारिख आगे कहते हैं कि कितने बड़े दुख की बात है कि सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही. इस बीमारी का प्रबंधन सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर आसानी से किया जा सकता है, किंतु उससे भी ज्यादा जरूरी है उसकी रोकथाम इसके लिए जीवन शैली को दुरुस्त रखने और जंक फूड से बचने की हमारी तैयारी.

डॉ पारिख बताते हैं कि मोटापा, उच्च रक्तचाप और तनाव का मुख्य कारण ये जंक फूड व खराब जीवन शैली है, किन्तु हमें कहीं भी इस संदर्भ में सरकार की कोई पहल नज़र नहीं आती. इनका प्रबन्धन भी प्राथमिक स्तर पर किया जा सकता है.

यहां हमें प्रोमोटिव और प्रीवेंटिव की कोई एप्रोच दिखलाई नहीं पड़ती. जो मधुमेह से ग्रसित नहीं हैं वे कैसे जीवन भर स्वस्थ बने रहें इसके लिए हमारे पास कोई कार्यक्रम ही नहीं है.

30 फीसदी क्रोनिक बीमारियों के लिए हमारे पास जिला अस्पताल हैं. मेडिकल कॉलेज हैं. यहां इन बीमारियों का प्रबंधन हो सकता है. हमारे यहां समस्या ये है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर स्वास्थ्य का ढांचा दुरुस्त नहीं रहता और उसका भार जिला अस्पताल पर पड़ता है, जिससे कारण वहां एक सामान्य बुखार वाला व्यक्ति और ह्रदय रोग से सम्बंधित व्यक्ति समान रूप से देखे जाते हैं. जबकि दोनों के लिए गंभीरता का स्तर अलग है.

कुछ जरूरी सवाल-जवाब

लोग अक्सर कहते हैं भारत में डॉक्टर की संख्या कम है. वे इसकी तुलना अन्य देशों से करते हैं जैसे कि जर्मनी में प्रति हज़ार लोगों पर 4.3 डॉक्टर हैं. स्पेन में 3.9, अमेरिका में 2.9, ऑस्ट्रेलिया में 3.7, ब्रिटेन में 2.9 जबकि भारत में 0.8 डॉक्टर हैं. इससे 135 करोड़ लोगों का कैसे ईलाज संभव है?

भारत में 11 लाख से ज्यादा एमबीबीएस डॉक्टर प्रैक्टिस करते हैं साथ ही 6.3 लाख आयुष डॉक्टर भी हैं. यदि आयुष डॉक्टर की ड्यूटी प्रीवेंटिव और प्रोमोटिव एप्रोच पर काम करने में लगाई जाए तो ये 11 लाख एलोपैथिक डॉक्टर की संख्या पर्याप्त है.

कुछ लोगों का मत है कि ग्रामीण भारत में डॉक्टर पोस्टिंग नहीं लेते. दरअसल इसे भी हमारी अज्ञानता ही कहा जायेगा. इंटरनेट, सोलर लाइट, अच्छे रोड और ट्रांसपोर्ट के बेहतर साधन की वजह से अब कोई डॉक्टर खासकर यंग डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्र में जाने में परहेज नहीं करता. सरकार चाहे तो ये नियम निकाल सकती है कि अपनी पढ़ाई की समाप्ति के शुरुआती 3 साल वे गांव में ही दें. उनको आगे अध्यन में इसका फायदा मिलेगा.

जरूरी बातें जिनसे हल सम्भव है

सबसे पहला काम तो प्राथमिक स्तर को दुरुस्त बनाने का है. वहां सूची की सभी जरूरी दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना, सूची के अंतर्गत शामिल सभी रक्त की जांच सुविधाएं तथा उनके दायरे में आने वाले क्षेत्र के साफ पानी की उपलब्धता, पोषण की पूरकता, साफ सफाई तथा सही जीवन-शैली के विषय में आयुष चिकित्सक को पाबंद करना.

हमें ये अच्छे से जान लेना है कि स्वास्थ्य की तीनों एप्रोच एक साथ ही कारागर हो सकती हैं. बिना सही पोषण के इम्युनिटी नहीं बनेगी और व्यक्ति बिना इम्युनिटी के रोगों से नहीं लड़ पायेगा. क्यूरेटिव अकेला कुछ नहीं कर सकता.

व्यक्ति के स्वास्थ्य बजट का अधिकांश हिस्सा उसके दवाओं तथा जांच पर खर्च होता है. दवा बनाने वाली दवा कंपनी के सीनियर मैनेजर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हमें अस्पतालों में अपनी दवा को लागू करवाने के लिए 20 से 40 प्रतिशत हिस्सा डॉक्टर को देना पड़ता है. 20 प्रतिशत हिस्सा मेडिकल स्टोर वाले का होता है. 20 प्रतिशत हिस्सा हमसे बल्क में दवा खरीदने वाले मेडिकल स्टोर का होता है. 10 फीसदी हिस्सा मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव को मिलता है. 10 फीसदी कंपनी का प्रॉफिट. लागत 10 से 20 फीसदी मात्र होती है.

यदि सरकार दवा कंपनी से सीधे दवा खरीदे तो हम मात्र 5 प्रतिशत मुनाफे पर ही सरकार को सीधा दे देंगे. अर्थात एक 90 रु की दवा मात्र 15 से 20 रु में मिल जाएगी. तमिलनाडु राज्य की सरकार सीधे दवा कंपनियों से दवा खरीदती है जिससे कॉस्ट बहुत कम हो जाती है. सरकार अपने लागत मूल्य पर वो दवा मरीजों को दे सकती है.

साफ-सफाई, पोषण और जीवन शैली के प्रति जागरूकता करने हेतु आयुष के साथ लोक कलाकार को जोड़ा जा सकता है. बजट का जितना हिस्सा ऐड करने में खर्च किया जाता है उतने हिस्से को कठपुतली वाले को, बहुरूपिये को, कलन्दर और मदारी को दिया जा सकता है. वे लोग अपने नृत्य, सांग, नाटक, गीत और वेश बदलकर लोगों को इसके प्रति जागरूक कर सकते हैं.

इन लोगों की ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुच हैं. इनको ग्रामीण लोग बड़े चाव से देखते-सुनते हैं. इसका प्रभाव भी अच्छा पड़ेगा. साथ ही आयुष डॉक्टर को गांव से जुड़ने का भी मौका मिलेगा. जहां वो प्राथमिक स्तर पर लोगों की कॉउंसलिंग कर सकता है. उनको पोषण के कार्यक्रमों से जोड़ सकता है. सही जीवन शैली की जानकारी दे सकता है.

सुझावों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए राजस्थान अजमेर के रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता रॉय डेनियल कहते हैं कि सरकारों को इन सुझावों से कोई वास्ता नहीं है. कोरोना का इतना बड़ा संकट चल रहा है और हकीकत कुछ और है.

रॉय कहते हैं कि राजस्थान सरकार में भी आयुष डॉक्टर तैनात हैं किंतु वे अपने अस्पताल में नहीं बल्कि पंचायती राज में प्रतिनियुक्ति पर बीडीओ की पोस्ट पर काम कर रहे हैं. और जो बीडीओ हैं वे एपीओ हैं.

दुःख की बात तो ये है कि पिछले एक वर्ष से चिकित्सा विभाग अपने 37 आयुष डॉक्टर को वापस मांग रहा है. किंतु पंचायती राज विभाग उनको वापस नहीं भेज रहा. जबकि रूल बुक का सरकारी आदेश है कि कोई भी 6400 ग्रेड पे का कर्मचारी 4400 ग्रेड पे पर नियुक्त नहीं हो सकता. लेकिन ये कानून तो जैसे राजस्थान सरकार के लिए कोई मायने ही नहीं रखते.

हद तो तब हो गई जब पूरे प्रेदेश में कोरोना संकट है और 37 आयुष डॉक्टर बीडीओ के पद पर जमे हुए हैं. जबकि चिकित्सा सचिव ने कितने ही लेटर जारी कर दिए. जब ये स्थिति होगी तो डॉक्टर की संख्या 11 लाख क्या आप 20 लाख कर दीजिए, अस्पताल में 30 लाख बेड बढ़ा दीजिए उन पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट्स का क्या मायने जब वे वहां ड्यूटी पर हैं ही नहीं.

बीडीओ का पद प्रोफेशनल पद है जो आरएएस सेवा के तहत मिलता है. उनकी प्रॉपर ट्रेनिंग होती है. वो स्थानीय स्तर पर विकास की जरूरी कड़ी है. किंतु आयुष डॉक्टर ने न तो अपना काम किया और उस बीडीओ के काम को भी धक्का दे दिया.

हमारे नीति निर्माताओं और जनता को ये ध्यान रखना है की जब तक व्यक्ति स्वस्थ नहीं होगा तो वो राष्ट्र निर्माण में कैसे अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकता है? बीमार लोगों से अर्थव्यवस्था भी रुग्ण ही बनेगी. यदि देश को आर्थिक रूप से सक्षम बनना है तो पहले स्वास्थ्य के स्तर पर सक्षम बनना पड़ेगा.


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘नई दिशाएँ’ के संयोजक हैं।

 

 

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