मध्य प्रदेश के हरदा ज़िले में पटाखा फैक्ट्री में ब्लास्ट के 60 घंटे बाद भी ब्लास्ट की साइट पर जेसीबी चालू थी और मलबा साफ़ किया जा रहा था। स्थानीय लोगों का दावा है कि प्रशासन मृतकों की संख्या सैकड़ों से दहाई में सीमित कर रहा है। उनका ये भी कहना है कि मलबा साफ करने के बहाने, लाशों को गायब कर दिया गया है। देर रात 11 बजे मैं घटनास्थल पर मौजूद हूं और इस तथ्य का पता लगाना चाहती हूं कि क्या मलबा हटाते समय लगातार फ़ॉरेंसिक और मेडिकल एक्सपर्ट मौजूद हैं। ये साफ़ है कि ऐसा कोई विशेषज्ञ मौजूद नहीं है। इसी बीच एक वरिष्ठ अधिकारी मुझे रोकते हैं और मेरा परिचय मांगते हैं।
ये बताने पर कि मैं पत्रकार हूं और दिल्ली से आई हूं, वह अधिकारी मुझसे कहता है, ‘पत्रकारों की ज़रूरत नहीं हैं’। वो ये बात मुझसे बात करते हुए कई बार दोहराता है। मैं उसे कहती हूं कि ये कोई कैसे तय कर सकता है कि इतने भयावह हादसे के बाद पत्रकार वहां जाएंगे कि नहीं पर वह इसी बात पर अड़ता है। ये सब तब होता है, जब मैं न केवल साइट से काफी दूर खड़ी होकर सिर्फ मलबा हटाने की प्रक्रिया देखना चाह रही थी और किसी भी तरह से साक्ष्यों के आसपास भी नहीं थी। वैसे भी साक्ष्यों को मिटाने के आरोप प्रशासन और पुलिस पर लग रहे हैं न कि किसी पत्रकार पर। साथ ही प्रशासन के काम का तरीका मेरे सामने थे लेकिन उस अधिकारी की बात सही थी। क्योंकि यहाँ पत्रकार थे भी नहीं।
इतने गंभीर आरोपों के बावजूद हरदा के स्थानीय और मध्य प्रदेश के मीडिया की कोई इनवेस्टीगेटिव रिपोर्टिंग नहीं दिखाई दे रही। घटनास्थल पर कोई स्थानीय, प्रादेशिक या राष्ट्रीय पत्रकार मौजूद नहीं। यहां तक विपक्ष के बड़े नेताओं को इन आरोपों से ख़ास फ़र्क पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है। हरदा की कांग्रेस की युवा नेता और सुप्रीम कोर्ट की वकील अवनी बंसल इकलौती नेता थी, जो इस समय लगभग अकेले ही यहां अड़ी हुई थी कि साक्ष्यों को मिटाने के आरोपों का पुलिस जवाब क्यों नहीं दे रही और यहां फ़ॉरेंसिक टीम क्यों नहीं।
दिल्ली से भोपाल तक की मीडिया ने इतनी बड़ी और भयावह घटना को सिर्फ 12 लोगों की मौत कह के रफा दफा कर दिया है। जिस स्केल का यह हादसा था, जितने मज़दूर उस समय अंदर थे, जो चश्मदीदों के दावे हैं, जो लोग वहां से बच के निकले – उनके बयानों की मुख्यधारा के मीडिया में कोई जगह नहीं है। क्योंकि वह सरकारी दावों को झूठा बता रहे हैं।
यहां पर लोगों को कहना है और प्रथम दृष्टया दिख भी रहा है कि जिस तरह से पिछले 3 रातों से लगातार JCB चला के मलबा हटाया और दबाया जा रहा है, उससे इस मलबे में ब्लास्ट से चूरा बनी लाशों का ज़रा भी सुराग न मिल पाए। लेकिन यहाँ कोई ये सवाल करने के लिए नहीं खड़ा है कि
- क्या ये JCB द्वारा लगातार की जा रही उथल पुथल किसी फॉरेंसिक टीम की देख रेख में हो रही है
- यहाँ काम करने वाले लोगों में से अगर लोग ज़िंदा हैं तो वे कहाँ गए
- क्या सिर्फ उतने ही लोग इस फैक्ट्री में काम करते थे जो प्रदेश के अलग अलग अस्पतालों में भर्ती हैं
ये बुनियादी सवाल कोई नहीं करना चाहता। जो लोग ये सवाल कर रहे हैं उनको प्रशासनिक अधिकारी कह रहे हैं कि ‘यहाँ पत्रकारों की ज़रूरत नहीं है’
जिन चश्मदीदों, स्थानीय लोगों से अब तक मैंने बात की है – अगर उनके बयानों को सच मानें तो कई पूरे परिवार ही इस हादसे में ख़त्म हो गए हैं। मलबे में उनके अवशेष मिल भी गए तो उनके लिए कौन ही आवाज़ उठाएगा। ऐसे में आखिर किसको पड़ी हैं प्रवासी मजदूरों की जो इन खतरनाक फैक्ट्रियों में जान हथेली पर रख कर 200-300 रुपए की दिहाड़ी के लिए काम कर रहे थे।
फैक्ट्री से कुछ ही दूरी पर एक टूटे घर के बाहर बैठी कुछ महिलाओं से बात करने पर मालूम चला कि वो सब इसी फैक्ट्री में काम करती थी। पहले भी कई बार इस फैक्ट्री में ब्लास्ट हुए जिसमे जाने भी गयीं। उनमे से एक महिला के पति की मौत 2017 में इसी फैक्ट्री में हुई थी। इसका केस चलता रहा और फैक्ट्री का मालिक राजेश अग्रवाल लगातर पीड़ित परिवार से कहता रहा, ‘जो बन पड़े कर ले तुझे पैसे देने के बजाए मैं ऊपर पैसे खिला दूंगा, मेरा कोई क्या कर लेगा’। आप बस अंदाज़ा लगाइए कि इसके बाद भी गरीबी की क्या मज़बूरी होती है कि अपने छोटे बच्चे पालने के लिए वो महिला खुद इस फैक्टरी में काम करने लगी। इस बार के ब्लास्ट के समय वो ग्राउंड फ्लोर पर थी तो पहले हल्के ब्लास्ट के बाद वो भाग सकी। ये सभी महिलाए ऐसे ही भागी, इनका कहना है की जो ऊपर के तलों पर थे – वे तो मलबे में दब गए, भाग नहीं सके। उनके चिथड़े भी अब नहीं मिल पाएंगे क्यूंकि घटना की रात को ही मलबा डम्पर में भर कर कहीं निकाल दिया गया है। फैक्ट्री में छोटे-छोटे बच्चे और महिलाए भी मौजूद थीं। यानी कि यहां बाल श्रम भी हो रहा था। इस मलबे में कितनी लाशें थी इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता क्योंकि प्रशासन ये चाहता ही नहीं है। आग बुझने के बाद से ही लगातार यहाँ JCB चलाई जा रही है वो भी बिना किसी एक्सपर्ट टीम के।
मैं यहां ग्राउंड ज़ीरो पर रात को मौजूद हूं, दिन में पीड़ित परिवारों और चश्मदीदों से भी मिलूंगी पर यहां की स्थिति ख़ासकर स्थानीय मीडिया की निष्क्रियता (जो किसी दबाव में भी हो सकती है) और प्रशासन का रवैया देखते हुए – मुझे नहीं पता कि मुझे अपना काम एक पत्रकार के तौर पर करने दिया जाएगा या नहीं। लेकिन फिर भी अंतिम कोशिश तक मैं चाहती हूं कि सच सामने आए क्योंकि सच से ज़्यादा पवित्र कुछ नहीं होता। जैसा कि ऑस्ट्रियाई संपादक-पत्रकार हेनरी ग्रुनवाल्ड ने कहा था;
Journalism can never be silent: that is its greatest virtue and its greatest fault. It must speak, and speak immediately, while the echoes of wonder, the claims of triumph and the signs of horror are still in the air.
(पत्रकारिता कभी चुप नहीं हो सकती: ये ही इसका सबसे महान गुण है और ये ही सबसे बड़ी ग़लती। इसको बोलना ही होगा और तुरंत बोलना होगा, जबकि चमत्कार की गूंज, जीत के दावे और भय के संकेत अभी भी माहौल में हों..)