“क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, यह एक सजा है?” -भगत सिंह
साल 2016 के नवंबर की रात 8 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टीवी पर आकर ऐलान किया कि “आज मध्य रात्रि 12 बजे से 500 और 1000 के नोट चलन से बाहर हो जाएंगे। मतलब ये नोट केवल कागज के टुकड़े भर हो चुके थे।” यह खबर सुनते ही लोगों के बीच आपाधापी का माहौल पैदा हो गया था। जल्दी से लोग बाजारों की ओर निकल पड़े। सभी ने 500 और 1000 के नोटों से अधिक से अधिक खरीददारी कर डाली। इस वर्ष बीते 24 मार्च को इसी तरह एकबार फिर प्रधानमंत्री ने रात 8 बजे टीवी पर आकर कहा- “आज रात 12 बजे से संपूर्ण राष्ट्र में 21 दिनों की देशबंदी (लॉकडाउन) लागू होगी।” उन्होंने देश की जनता को संबोधित करते हुए कहा कि राशन और दवाइयां जैसी आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सामान्य दिनों की तरह जारी रहेंगी। साथ ही लोगों से अपील की कि इन 21 दिनों में घरों से बाहर न निकलें। आपके स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए और कोरोना को समाप्त करने के लिए यह फैसला लिया गया है।
दोनों ही मामलों में गरीब मजदूरों और निम्न वर्ग को परेशानियों से गुजरना पड़ा। ये वो मजदूर थे, जो कहीं फैक्ट्री, बिल्डिंग निर्माण, मजदूरी, रिक्शा चालक, और अन्य दिहाड़ी मजदूरी करते थे। इसमें भी सबसे अधिक संख्या उन लोगों की है, जो प्रवासी मजदूर हैं, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल से जाकर महानगरों में कार्य करते हैं। भारत में 85 प्रतिशत लोग इसी असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत कार्य करते हैं। इन लोगों की आजीविका रोज कमा के खाने पर निर्भर होती है। नोटबंदी ने इन मजदूरों को लाइन में लगने को मजबूर किया, जिससे इनको काफी संकटों का सामना करना पड़ा था। एकबार फिर उसी प्रकार की अव्यवस्था हमे देशबंदी के एलान के बाद देखने को मिली।
केजरीवाल सरकार ने मजदूरों को मुफ्त राशन और 5 पांच हजार रुपए देने का एलान तो किया है, लेकिन न तो मेरे पास राशन कार्ड है और न ही हमारे ठेकेदार ने कभी हमारा पंजीकरण कराया है। ऐसी स्तिथि में बिना काम किये रूम का किराया और खाना पीना बहुत मुश्किल है। अब वापस घर जाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं बचा है”।
गरीब मजदूर कभी सरकार की प्राथमिकता में रहे ही नहीं
भगत सिंह द्वारा कही गयी ये बात आज के दौर में भी एकदम सटीक बैठती है। सच में गरीब होना सबसे बड़ा गुनाह है। गरीबों की कोई नहीं सुनता न उनकी तरफ किसी सरकार का ध्यान जाता है। सबसे पहला प्रश्न तो सरकार पर यही उठता है कि इतना बड़ा फैसला लेने से पहले सरकार ने तैयारी पहले से क्यों नही की। यदि सुनियोजित तरीके से इसको लागू किया जाता तो शायद इतनी दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता। जिस प्रकार सरकार ने विदेश से 15 लाख भारतीयों को लाने में संवेदनशीलता दिखाई उतनी अपने देश के प्रवासी मजदूरों के लिए क्यों नहीं दिखाई। कई लोगों की दिल दहला देनी वाली तस्वीरें सामने आई। लोग पैदल ही अपने बच्चों के साथ घर जाते दिखाई दिए। कई लोग बिना भोजन खाए 600 किलोमीटर तक पैदल चलकर अपने घर पहुँचे।
मीडिया में खबर चलने के बाद सरकार ने मजदूरों को बसों से घर भेजने का जो फैसला लिया, यदि यह तैयारी पहले से ही कर ली गई होती तो समस्या इतनी गंभीर नहीं होती। इसको लेकर लोगों ने सरकार की तरह-तरह की आलोचनाएं भी की। सरकार की मंशा पर भी उठता है कि जब विदेश से 15 लाख भारतीयों को सही सलामत उनके घर पहुँचाया जा सकता है तो देश के इन गरीब प्रवासी मजदूरों को क्यों नहीं? क्या सरकार को केवल विदेश से लाये गए लोगों की ही चिंता थी। सरकार विदेश से लाए लोगों के आधार पर वाहवाही लेना चाहती थी। इस बात से ऐसा ही लगता है कि सरकार के लिए गरीब कभी प्राथमिकता में रहे ही नहीं हैं। इसकी एक बानगी 2 दिन पूर्व देखने को मिली जब स्पाइसजेट ने सरकार के आगे गरीब मजदूरों को उनके घर पहुँचाने की पेशकाश की और इसके बाद ओयो रूम्स की तरफ से सरकार को सस्ती दरों पर अपने होटल बेघरों के लिए खोलने की बात कही गई। लेकिन, सरकार ने इस और ध्यान देना मुनासिफ नहीं समझा।
गौरव माथुर IIMC में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं.