उम्मीद जगमगायी: ऐसे नादाँ तो न थे जाँ से गुज़रने वाले, नासेहो, पंदगरो रहगुज़र तो देखो!’

यही मुज़फ्फरनगर था जहाँ 2013 के इन्हीं दिनों ( 27 अगस्त से 17 सितम्बर) दंगे करवा दिये गए थे... आम चुनाव नज़दीक थे उनमें चुनावी फ़सल काटने के लिये पहले से कटे- बंटे समाज में दरारें और चौड़ी व गहरी करने के लिये दंगों का षड्यंत्रकारी आयोजन था। अब फिर वही मुज़फ़्फ़रनगर था, पर फ़िज़ा बदली हुई थी ... वहां दिखाई दे रही रंग-बिरंगी एकता विभोर करने वाली, ख़ुशी से भर देने वाली थी।  यह एकता ही उन लोगों को हैरान, परेशान और डराने वाली है जिन्होंने सालों साल जतन से इसे खंडित किया था और जो विभाजन की विभीषिका को याद कराने के अपने आततायी अभियान पर लोलुप आंखे गड़ाये बैठे हैं।

यह पांच सितम्बर 2021 का दिन ऐतिहासिक था …. किसी चुनावी फ़तह का यक़ीन देता दिन नहीं, ज़ालिमों से लम्बी लड़ाई लड़ने के संकल्प का दिन… अपनी ताक़त की याद आने, याद दिलाने का दिन… विभाजनों को पाटने, साम्प्रदायिकता को पटकने का दिन… एकजुटता का दिन! यह देश को संदेश और उद्देश्य देने का दिन है | यह एक तरह से देश को उजाड़ कर रहे लोगों को हरे – भरे खेतों की ओर से चेतावनी का दिन है। एक पंचायत को लेकर इसे अनाप- शनाप कयासबाज़ी मानने की ग़लती न कर बैठना…. ज़रा ग़ौर करिये, पलटकर उस राह पर नज़र डालिये जिससे होकर यह गहमाहमी और यह संकल्प यहाँ तक पहुँचा है और आगे बढ़ने को सन्नद्ध है… इस राह में यातनाएं हैं, बेशुमार तक़लीफ़ें हैं, मौसम की मार है, प्रशासन की प्रताणना हैं, लेकिन कराहें नहीं हैं, ख़ून – पसीना है और गहरी वेदना से उपजे आंसू हैं, जान की बाज़ी लगा देने वाले शहीद हैं… इतने ज़ोख़िमों के बाद यह मक़ाम हासिल हुआ है… एक बड़ा लक्ष्य मिला है , तीन कृषि क़ानूनों की लड़ाई का फ़लक व्यापक होकर अब देश- बचाओ की जंग में बदला है… इसी के लिए वह भाईचारा, एकता और हौसला दरकार था जिसके दर्शन हुए और लाखों किसान- मज़दूर इसके साक्षी बने… अब की पांच सितम्बर को हमारे किसान हमारे शिक्षक भी हो गये हैं…. कितना कड़ा और कठिन रास्ता इस शुरुआती सफलता के लिये तय किया गया...’ ऐसे नादां तो न थे जां से गुज़रने वाले / नासेहो, पंदगरो रहगुज़र तो देखो .. !’

यही मुज़फ्फरनगर था जहाँ 2013 के इन्हीं दिनों ( 27 अगस्त से 17 सितम्बर) दंगे करवा दिये गए थे… आम चुनाव नज़दीक थे उनमें चुनावी फ़सल काटने के लिये पहले से कटे- बंटे समाज में दरारें और चौड़ी व गहरी करने के लिये दंगों का षड्यंत्रकारी आयोजन था। अब फिर वही मुज़फ़्फ़रनगर था, पर फ़िज़ा बदली हुई थी … वहां दिखाई दे रही रंग-बिरंगी एकता विभोर करने वाली, ख़ुशी से भर देने वाली थी।  यह एकता ही उन लोगों को हैरान, परेशान और डराने वाली है जिन्होंने सालों साल जतन से इसे खंडित किया था और जो विभाजन की विभीषिका को याद कराने के अपने आततायी अभियान पर लोलुप आंखे गड़ाये बैठे हैं।…बेशक , कोई अंतिम बात अभी कैसे कही जा सकती है… आगे की रणनीति पर, जनता को अधिकाधिक जोड़ने पर बहुत कुछ निर्भर है, फिर जिनसे पाला पड़ा है वे धूर्त, शातिर, क्रूर और संगदिल हैं… पर निस्संदेह आज की मंज़िल यही, आज का हासिल यही एकजुटता और संघर्ष- भावना है… इसने बड़ी उम्मीद बंधायी है… अंधेरों में कुछ रोशनी जगमगायी है… अली सरदार जाफ़री की एक नज़्म को याद करें तो :

तीरगी के बादल से
जुगनुओं की बारिश है
रक़्स में शरारें हैं
हर तरफ़ अंधेरा है
और इस अंधेरे में
हर तरफ़ शरारें हैं
कोई कह नहीं सकता
कौन सा शरारा कब
बेक़रार हो जाए
शोलाबार हो जाए

मुज़फ़्फ़रनगर ने जो उम्मीद जगायी है, उसे प्रचारित-प्रसारित करना और रचना प्राणप्रण से जुटने का काम है | सात सालों में देश की जो दुर्दशा हुई हैं, लोकतांत्रिक- संवैधानिक व्यवस्थाएं बुरी तरह ध्वस्त की गयीं हैं | देश के गृहमंत्री तो लोकतंत्र को महज़ क़ानून- व्यवस्था का मामला मानते हैं… और देश की क़ानून -व्यवस्था की हालत किससे छुपी हुई है, ‘ बेगुनाह कौन है शहर में क़ातिल के सिवा! ‘ .. उम्मीद के बिना नहीं जिया जा सकता…. मुज़फ़्फ़रनगर में उम्मीद दिखी तो लगा कि जिनके हाथों की हरारत से फ़सलें लहलहाती हैं, उनके हाथों और दिलों की गर्मी देश को एक बड़ी मुक्ति की राह पर ले जाएगी। हालांकि दंगों, बाबरी विध्वंस, गुजरात-2002 और कट्टर साम्प्रदायिकता के अनुभव और खटके थे, पर जनता को नयी उम्मीद चाहिए थी और उसने उनपर भरोसा किया जिन्होंने हर तरह से साबित किया कि वे भरोसे के कहीं से भी क़ाबिल नहीं हैं।  इनके साथ बीते समय के अनुभव भयावह हैं और इनके इरादे आगे गहन संगीन हैं। यह लगता नहीं था कि ये इतने संवेदनशून्य, निर्दयी, बेपरवाह और अमानुष हैं.. पर इस देश के किसान- मज़दूरों ने भी बताया कि वे किस मिट्टी के जाये हैं… धैर्य, सहनशीलता और शक्ति उनमें किस तरह कूट- कूट कर भरी है। मुज़फ़्फ़रनगर से निकली आशामयी किरणें ह्दय को आलोकित किये हुए हैं | … ग्रीस के महाकवि यानिस रित्सोस की कविता ‘ संसार की जड़ें ‘ की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिये:

… हम प्यास से भरे हुए थे
भूख से भरे हुए थे
यातना से भरे हुए थे,
हमने कभी यकीन नहीं किया होता
कि मनुष्य इतने बेरहम हो सकते हैं ,
हमने कभी यकीन नहीं किया होता
कि हमारे दिल इतने ताक़तवर हो सकते हैं ,
हम प्यास से भरे हुए थे
सारा दिन पत्थरों से जूझते हुए ,
सिर्फ़ हमारी प्यास के नीचे
इस संसार की जड़ें छिपी हुईं हैं …

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

 

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