‘टीवी पत्रकारों के दुश्मन हैं संपादक! वक़्त रहते प्लान B तैयार करें!’

कुछ दिन पहले की बात है। उसने मुझे देखते ही गले से लगा लिया। ख़बर दी कि किसी तरह एक नई टाउनशिप में दुकान का जुगाड़ हो गया है। ऐसा करने की सलाह उसे मैंने ही दी थी जिसके लिए वह आभार जता रहा था। वह एक चैनल का रिपोर्टर है जिसका माइक उस समय भी उसके हाथ में था। उसे बस एक परेशानी थी कि दुकान पर बैठने के लिए उसके पास वक़्त नहीं है और किसी दूसरे पर भरोसा कैसे करे?  उसने कम पूँजी के सहारे कपड़े की दुकान खोलने की संभावना पर चर्चा की। मैंने उसे फ़िलहाल आलू टिक्की, गोलगप्पे और वेज-नॉनवेज रोल का धंधा शुरू करने की सलाह दी। नई बसावट में आने वाले ज़्यादातर लोगों की गृहस्थी नई होती है जहाँ बनाने से ज़्यादा खाने पर ज़ोर होता है, वह भी फटाफट।  कभी मैंने भी सोचा था कि ढाबा खोलूँगा जिसके बोर्ड पर लिखा होगा- एडिटर्स च्वायस ! ख़बरों में मिलावट के दौर में शुद्ध खाने की गारंटी !

यह आजकल मेरा पसंदीदा काम है, यानी सलाह देना। आईबीएन7 से बरख़ास्त होने के बाद तमाम युवा टीवी पत्रकार मुझसे जिंदगी का हासिल जानना चाहते हैं और यह भी कि मेरी जैसी हालत से वे कैसे बचें। मैंने टीवी पत्रकारिता की चकमक दुनिया में रहते हुए न कभी किसी नेता को सेटा और न अफ़सर के साथ दोस्ती गाँठी।  एक बड़े चैनल में सूबे का ब्यूरो चीफ़ रहते हुए, मुख्यमंत्री के बुलावे पर जाने के बजाय मिलने से इंकार कर देने का नशा अलग ही होता है बाबू मोशाय !  (अगर यह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने वाली बात लग रही हो तो आप ग़लत नहीं हैं)। नतीजा यह कि मैं सरकारी विज्ञापन बटोरने लायक़ भी नहीं रह गया जो गाढ़े वक़्त में काम आ सकता था। मैं अब युवा पत्रकारों  को ऐसे ‘मूर्खतापूर्ण नशे’ से दूर रहने और वक़्त रहते सरकारी योजनाओं में अपने लिए मकान, दुकान या पत्नी की नौकरी का इंतज़ाम करने की सलाह देता हूँ (बेशक, नियम कानून के लिहाज़ से। यह बहुत मुश्किल नहीं है। रिंद के रिंद रह सकते हैं और हाथ से जन्नत भी नहीं जाती !)

टीवी पत्रकारों का वक़्त रहते ‘समझदार’ हो जाना वक़्त का तक़ाज़ा है। वरना जब ‘भरी जवानी और कच्ची ग़हस्थी’ वाली हालत में कोई बेरोज़गार होता है तो ख़ुदकुशी का प्रेत चुपचाप सिर पर सवार हो जाता है जिसे बस एक मौक़े की ज़रूरत होती है। ऐसा नहीं कि यह हालत गिने-चुने या नाकारा लोगों की हो रही है। पिछले एक-दो सालों में सैकड़ों की तादाद में टीवी पत्रकार बेरोज़गार होकर बर्बाद हो चुके हैं। ऐसा भी नहीं कि वे लोग काम नहीं जानते थे, या उन्होंने कोई अपराध किया था जिसकी वजह से उन्हें नौकरी से निकाला गया।

21 जनवरी 2015 को आईबीएन7 प्रबंधन ने मेरे सामने दो विकल्प रखे थे-इस्तीफ़ा या बरख़ास्तगी। मुझे बरख़ास्तगी शब्द ज़्यादा रोमांचकारी लगा। बहरहाल ‘योद्धा’ बनने के रूमान ने तक़लीफ़ की किन गलियों से गुज़ारा, यहाँ उसका ज़िक्र करने का इरादा नहीं है, सिवाय एक के। हुआ यह कि आईबीएन7 में जिन लोगों के साथ मैं अक्सर ‘ग़ालिब-मीर’ करता पाया जाता था, वे कभी रात के अंधेरे में भी मुझे फ़ोन करके हाल-चाल जानने की हिम्मत न जुटा सके। यहाँ तक मेरी फ़ेसबुक पोस्ट लाइक करने में भी उनके हाथ काँपते थे। उन्हें डर था कि मेरे जैसे ‘बाग़ी’ से आभासी रिश्ता भी उन्हें भारी पड़ सकता है। उन्होंने वह सबकुछ किया जो उनसे कहा गया। अच्छे दिनों का ढोल पीटा और पर्दे को सुरसा और ताड़का से भर दिया। अफ़सोस, ऐसा करके भी वे अपनी नौकरी बचा नहीं सके।

आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है ? अख़बार में या किसी भी अन्य पेशे में उम्र बढ़ने के साथ उसके अनुभव की कद्र बढ़ती है। अख़बार के पत्रकार को छोटे-बड़े संस्करणों में संपादक बनने का मौक़ा मिलता है, लेकिन टीवी में उम्र और तनख़्वाह बढ़ने के साथ-साथ अचानक खेत रहने की आशंका बढ़ती जाती है। इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई संपादक की कितनी चापलूसी करता है। ख़ुद बिना कोई छुट्टी माँगे, फ़ेसबुक पर संपादक की सपरिवार विदेशयात्राओं की तस्वीरों पर अहो..अहो वाली टिप्पणियाँ लिखता है।

आख़़िर यह तिलिस्म है क्या ?

दरअसल, टीवी पत्रकारिता, पत्रकारों को गदहा बनाने का उपक्रम है (अपवाद नियम की पुष्टि करते हैं)। और जब यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो उन्हें ‘गधा’ बताकर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। 25-30 साल की उम्र में जब कोई चैनल के दफ़्तर में नियुक्तिपत्र के साथ दाखिल होता है तो पत्रकारिता के तमाम सिद्धांत उसे ज़बानी याद होते हैं। वह कुछ दिन अपनी पढ़ाई-लिखाई का जौहर दिखाने की कोशिश भी करता है, लेकिन अचानक उसे पता चलता है कि उसे ‘अन-लर्न’ करना है और चैनल उसके ‘ज्ञान बघारने’ का मंच नहीं है। भूत-प्रेत, पूजा-पाठ से जुड़ी ख़बरों की ही बात नहीं है, बाक़ी ख़बरों के लिए भी विकीपीडिया ज्ञान काफ़ी होता है। उसे पता ही नहीं चलता कि वह कब ‘आईबॉल’ की तलाश में कुत्सा का कारोबारी बन बैठा है जिसके लिए उसके मुहल्ले का वह ‘बदनाम’ लड़का ज़्यादा कारगर होता जिससे हमेशा दूर रहने की उसे सलाह दी जाती थी। फिर वह उत्साही नौजवान एक पुर्ज़े में तब्दील होकर ‘कट-पेस्ट’ की दुनिया में खो जाता है। चूँकि कंपनी की कमाई बढ़ती है और सालाना इन्क्रीमेंट सभी का होता है तो कुछ साल में उसका वेतन भी ठीक-ठाक हो जाता है। इस बीच वह किस्तों पर कार और फ्लैट का इंतज़ाम कर सपनों की दुनिया में खो जाता है। उसे दुश्चक्र में फँसने का अहसास भी नहीं होता।

टीवी पत्रकार भूल जाता है कि वह दरअस्ल एक मज़दूर है जो कंपनी को अपनी ‘विशेषज्ञता’ बेचने आया था जबकि वह जो काम कर रहा है उसमें किसी ‘विशेषज्ञता’ की ज़रूरत नहीं है। उसके वेतन से आधे पर वही काम करने को तैयार नौजवानों की सी.वी से मैनेजर (एच.आर) की आलमारी भरी हुई है। यह सब तब तक चलता रहता है जब तक कि मैनेजमेंट को ‘रीस्ट्रक्चरिंग’ का भूत सवार नहीं होता (यह दौरा हर दो-तीन साल में पड़ता ही है)। मैनेजमेंट में कुछ नए लोग शामिल होते हैं जो ‘कास्ट कटिंग’ के ज़रिये अपनी प्रतिभा का पहला प्रदर्शन करते हैं। (सुना जाता है कि चैनल का ‘लुक’ बदलने का खेल में घोटाला भी होता है ! ) नज़र सबसे पहले उनकी ओर जाती है जिनकी उम्र 40 के आसपास हो रही होती है और वेतन भी कुछ ज़्यादा हो चुका होता है। उनके न रहने से कंटेंट में कोई फ़र्क़ पड़ने की आशंका भी नहीं होती। ( कंटेंट मुद्दा ही नहीं है। अगर विदेश मामलों के जानकार से सिर्फ़ चीन या पाकिस्तान को गाली दिलाना है तो यह तो कोई भी कर सकता है। कूटनीति का उस्ताद की क्या ज़रूरत ? )  वे कंपनी को ‘यंग लुक’ देने का झाँसा देते हुए गिनाते हैं कि अगर ऐसे दस लोगों को हटा दिया जाए तो महीने में कंपनी के कम से कम 15 लाख बचेंगे, यानी साल के एक करोड़ अस्सी लाख..यानी पाँच साल में 9 करोड़ यानी…यानी..यानी….

खच्च..खच्च..खच्च…। अपने सहयोगियों की गर्दन उतारकर संपादक दिग्विजयी अंदाज़ में एक सेल्फ़ी खींचता है और फिर ख़ून सनी तलवार लेकर मैनेजमेंट के सामने बाअदब हाज़िर होकर शाबाशी पाता है। उसे रघु ठाकुर, रघु राय और रघु यादव में फ़र्क़ पता नहीं होता लेकिन मैनेजमेंट उसे देश का सबसे विश्वसनीय चेहरा बताने के लिए नया प्रोमो शूट प्लान करने लगता है। ( यह भी एक सूत्र है कि टीवी में सफल होना हो तो ख़ुद को ज़्यादा से ज़्यादा पर्दे पर दिखाओ। ख़ुद को ब्राँड बनाओ। ‘जो दिखता है – वह बिकता है’ मैनेजमेंट का फंडा है। उन्हें इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि दिखने वाला जब मुँह खोलता है तो समझदार लोग चैनल बदल लेते हैं। )

डेस्क या फ़ील्ड के पत्रकारों को बहुत दिनों तक भ्रम रहता है, लेकिन सच्चाई यही है कि संपादक नाम का यह जीव उनका असल दुश्मन होता है। ख़बरों के नाम पर तमाशा करके वह अच्छे-अच्छे पत्रकारों को बेकार बना देता है। ज़्यादातर संपादकों ने अपनी अक्षमता को अपनी शक्ति बना लिया है। वे मैनेजमेंट को यह समझाने में क़ामयाब हुए हैं कि जनता, खास़तौर पर हिंदी वालों को समझदारी और संजीदा बातों से कोई मतलब नहीं है। अब अगर सत्यनारायण की कथा या ‘गोबर महात्म्य’ ही दिखाना है तो क़ायदे के पत्रकारों की ज़रूरत क्या है। यानी पहले पत्रकार की योग्यता के अनुरूप काम लेना बंद किया जाता है और फिर कहा जाता है कि यह तो कोई काम ही नहीं करते।

वैसे भी, संपादकों की तनख़्वाह में बंपर इज़ाफ़े की कसौटी यह भी है कि वह कितने लोगों को झटके में हलाक़ कर सकता है। कभी ग़ौर से देखिये, संपादक ‘हायर एंड फ़ायर’ के सिद्धांत का घनघोर समर्थक होगा,  मज़दूरों, किसानों, ग़रीबों की समस्याओं को चैनल के पर्दे पर फटकने भी नहीं देना चाहेगा। दलितों और अल्पसंख्यकों के नाम पर मुँह बिचकाता मिलेगा.. और श्रमजीवी पत्रकार एक्ट में टीवी पत्रकारों को शामिल कराने या पत्रकारों की सेवा सुरक्षा जैसे मुद्दे पर उसे उल्टी आ जाएगी। यानी वह ख़ुद को पत्रकार नहीं, मैनेजमेंट का हिस्सा मान चुका है। अगर, पत्रकारों में ख़ुद को मज़दूर समझने सलाहियत होती तो ऐसा संपादक उनकी ‘वर्गघृणा’ के केंद्र में होता।

बहरहाल,सवाल यह है कि झटके में बाहर कर दिया गया टीवी पत्रकार करे तो क्या करे ? कमोबेश सभी चैनलों का मैनेजमेंट ‘ओवरस्टाफ़’ की शिकायत करता रहता है। ज़ाहिर है, कुछ ही भाग्यशाली हो सकते हैं जो किसी ‘शीर्षपुरुष’ की कृपा से जल्द नौकरी पा सकें। टीवी वालों का लिखना-पढ़ना भी छूट चुका होता है तो अख़बार भी भाव देने को तैयार नहीं होते। टीवी में भाषा के प्रति बरती जाने वाली घनघोर अराजकता उन्हें कहीं फ्रूफ़रीडर बन सकने लायक़ भी नहीं छोड़ती। नौकरी के नाम पर पुराने परिचित रोनी सूरत बना लेते हैं। हर कोई मंदी नाम की बीमारी का हवाला देने लगता है। ( अजब है, अगर सारे चैनल घाटे में हैं तो फिर इन्हें कौन और क्यों चलाये जा रहा है ? यह यक्षप्रश्न है। )

एक संपादक मुझे बहुत मानते थे। साथ काम करने के दौरान वह मेरी तारीफ़ करते हुए तमाम एसएमएस भेजते थे। एक बार तो अंग्रेज़ी में जो एसएमएस आया उसका मतलब कुछ यह था कि ‘मैं अपने काम से उन्हें गौरवान्वित होने का मौक़ा देता हूँ।’ किसी मेडल की तरह इस एसएमएस को मैं सालों सीने से लगाये घूमता रहा, पर बदक़िस्मती से मोबाइल ही खो गया (फिर मियाँ  मिट्ठू ! )। वे अकेले थे जिनसे मैं आईबीएऩ7 से बरख़ास्त होने के बाद मिला। लेकिन उन्होंने छूटते ही पूछा कि मैं ‘आईबीएन 7” से मुक़दमा क्यों लड़ रहा हूँ ? मैं चाय पीकर चला आया। एक और ‘शुभचिंतक’ संपादक से संदेश मिला कि अगर मैं चुपचाप इस्तीफ़ा देकर चला आया होता तो वे ज़रूर कुछ कर सकते थे।  यानी संपादक गण यह भी नहीं चाहते कि आप अपने अधिकारों के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ें। इस संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करते ही आप पूरी इंडस्ट्री के लिए ‘दाग़ी’ हो जाते हैं, फिर चाहे कितने हुनरमंद हों।

दिलचस्प यह है कि मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद श्रम क़ानून अभी तक बदले नहीं जा सके हैं लेकिन माहौल ऐसा बनाया गया है कि कोई भी, कभी भी, किसी को नौकरी से बाहर कर सकता है। अरे भाई, इसका परीक्षण तो अदालत में होगा, डरते और डराते क्यों हो ! भारत की आज़ादी के तमाम नायक पत्रकार थे। उन्होंने संविधान में पत्रकारों को सेवा सुरक्षा दी ताकि वे सरकार और अपने मालिक दोनों के ही दबाव में ना आयें और वही लिखें जो वह सही समझते हैं। क्या ही बेहतर होता कि टीवी पत्रकार ख़ुद को वाक़ई मज़दूर मानते हुए श्रमजीवी पत्रकार एक्ट में शामिल किए जाने की माँग को लेकर तमाम पार्टियों के दफ़्तर पर धरना देते। लॉबींग करते, संसद में सवाल उठवाते और फ़िल्म सिटी को अपनी माँगों के पोस्टर से भर देते। लेकिन जानता हूँ कि ऐसी किसी बात पर नौकरीशुदा तो छोड़िये, नौकरी से निकाले गये पत्रकार भी कान नही देंगे। वे कभी भी इंडस्ट्री की नज़र में ‘दाग़ी’ नहीं बनना चाहेंगे।

ऐसे में मैं अगर युवा टीवी पत्रकारों को शुरू से ही अपना इंतज़ाम दुरुस्त कर लेने की सलाह देता हूँ तो क्या ग़लत करता हूँ ? जो उन्हें गदहा बना रहे हैं, उन्हें वे उल्लू बनाने की तैयारी क्यों न करें ?  श्रमजीवी पत्रकार एक्ट कहता है कि पत्रकारों से अधिकतम साढ़े छह घंटे काम लिया जा सकता है, लेकिन टीवी पत्रकारों को औसतन 12 घंटे नौकरी  करनी पड़ती है जो उन्हें ब्लडप्रेशर और शुगर जैसी दो-तीन बीमारी तो गिफ़्ट कर ही देती है। बेहतर हो कि वे इसी दौरान ‘प्लान बी’ पर भी काम करें ताकि कोई उनके पिछवाड़े पर ठोकर मारना चाहे तो वे उसका अगवाड़ा तोड़कर निकल आएँ।

क्या आपको लगता है कि मेरी सलाह ठीक नहीं या कि मैं नौजवानों का करियर बिगाड़ना चाहता हूँ ? आप जो भी सोचें, मेरी बला से। मैं तो 2 सितंबर को होने जा रही देशव्यापी मज़दूर हड़ताल में शामिल होने की तैयारी कर रहा हूँ, जिसकी वजह पर चर्चा कराने के बजाय न्यूज़ चैनल सिर्फ़ इतना बताएँगे कि देश को एक दिन की हड़ताल से कितने हज़ार करोड़ का नुकसान हुआ। मेहनतकशों के पास और रास्ता भी क्या है ! फिर चाहे वे टीवी के अंदर हों या बाहर ! सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा है-

दु:ख तुम्हें क्या तोड़ेगा

तुम दु:खों को तोड़ दो

केवल अपनी आँखें

औरों के सपनों से जोड़ दो !

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(डॉ.पंकज श्रीवास्तव 20 साल से पत्रकारिता में हैं। स्टार न्यूज़ के यूपी ब्यूरो प्रभारी थे जब दस साल पहले लखनऊ से दिल्ली आ गए। आईबीएन7 में एसोसिएट एडिटर थे जब अंबानी ने ग्रुप को टेकओवर किया। असहमति दर्ज कराने की आदत छूटी नहीं और  21 जनवरी 2015 को बरख़ास्त कर दिए गए।)

 



 

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